सोचिए… एक ऐसा टैक्स जो आपने कभी समझा ही नहीं, वो आपकी जेब से 40 साल तक हर दिन कटता रहा। आपने बस टिकट लिया, सब्ज़ी खरीदी, कपड़े खरीदे—और आपको पता भी नहीं चला कि हर बार आप एक War की कीमत चुका रहे हैं। सन् 1971 में पाकिस्तान पर ऐतिहासिक जीत के बाद भारत सरकार ने जो ‘बांग्लादेश सरचार्ज’ लगाया था, वो कुछ महीनों का टेम्परेरी टैक्स होना था… मगर यह टैक्स अगले चार दशक तक जारी रहा। और ये तो सिर्फ शुरुआत थी—इस War की असली कीमत किसने चुकाई? आम आदमी ने—आपने। आज हम इसी विषय पर गहराई में चर्चा करेंगे।
1971 का War सिर्फ सैन्य दृष्टि से ही नहीं, बल्कि भावनात्मक और भौगोलिक दृष्टि से भी भारत के लिए सबसे बड़ी जीत थी। भारत ने पाकिस्तान को कई मोर्चों पर घेरा, बांग्लादेश को आज़ादी दिलाई और दुनिया के सामने अपनी सैन्य ताकत का लोहा मनवाया। लेकिन इस ऐतिहासिक जीत के साथ ही एक बड़ी जिम्मेदारी भी भारत के सिर पर आ गई—करोड़ों बांग्लादेशी शरणार्थियों को सहारा देना। इन्हीं शरणार्थियों की देखभाल और व्यवस्थाओं के लिए भारत सरकार ने ‘बांग्लादेश सरचार्ज’ नाम का टैक्स लगाया, जो हर वस्तु पर जुड़ गया।
सरकार ने कहा था कि जैसे ही हालात सामान्य होंगे, टैक्स हटा दिया जाएगा। लेकिन ऐसा हुआ नहीं। देश के कई हिस्सों में ये टैक्स दशकों तक वसूला जाता रहा। उदाहरण के लिए, महाराष्ट्र की सरकारी बसों में 2014 तक हर टिकट पर 15 पैसे का बांग्लादेश टैक्स काटा जाता रहा। एक जनहित याचिका में जब ये सवाल उठा तो सामने आया कि सिर्फ महाराष्ट्र की परिवहन एजेंसियों ने, इस मद में 440 करोड़ रुपये से ज्यादा इकट्ठा कर लिए थे—वो भी बिना ये जाने कि इसका क्या करना है।
अब सोचिए, अगर देशभर के सभी राज्यों में इस टैक्स के जरिए जमा रकम का हिसाब लगाया जाए तो आंकड़ा हजारों करोड़ में पहुंच सकता है। और ये सब कुछ आम जनता की जेब से गया। कोई War में बंदूक नहीं उठा पाया, लेकिन टैक्स जरूर दे दिया।
War का ये बोझ यहीं खत्म नहीं हुआ। जब 1971 में ढाका में पाकिस्तानी जनरल नियाज़ी ने भारतीय लेफ्टिनेंट जनरल अरोड़ा के सामने आत्मसमर्पण किया था, तो उनके साथ 93,000 से ज़्यादा पाकिस्तानी सैनिक भी भारतीय कैद में आए थे। इन सैनिकों के खाने, रहने, सुरक्षा और अन्य जरूरतों का खर्च भारत ने उठाया। साल भर तक ये सैनिक भारत की जेलों में रहे, और उनका हर दिन का खर्च भारत के आम नागरिकों की जेब से निकला।
अब आप सोचिए, एक तरफ घर में महंगाई की मार, दूसरी तरफ War का खर्च और फिर भी देश चलाना। वो भी तब, जब भारत खुद एक विकासशील राष्ट्र था और संसाधन सीमित थे। हर बार युद्ध सिर्फ बॉर्डर पर नहीं होता, उसकी लहरें देश के अंदर तक आती हैं और सीधे आम आदमी की जेब और थाली पर वार करती हैं।
आइए अब आंकड़ों की ज़ुबानी समझते हैं कि War का सीधा असर भारत की अर्थव्यवस्था पर कैसे पड़ा। 1965 की लड़ाई से ठीक पहले भारत की महंगाई दर 13.36 प्रतिशत थी, जबकि पाकिस्तान की 4.18 प्रतिशत। War हुआ, तो भारत की महंगाई थोड़ी गिरी, मगर अगले ही साल ये फिर 10.88 प्रतिशत तक पहुंच गई और उसके बाद लगातार बढ़ती रही। 1967 में भारत में महंगाई 13 प्रतिशत से ऊपर चली गई।
यही नहीं, भारत की GDP ग्रोथ रेट, जो 1964 में 7.45 प्रतिशत थी, वह 1965 में गिरकर -2.64 प्रतिशत हो गई। यानि एकदम जमीन पर। सोचिए, जिस देश की अर्थव्यवस्था तेजी से बढ़ रही थी, उसे एक War ने झकझोर कर रख दिया।
अब बात करते हैं 1971 की, जब भारत ने पाकिस्तान को करारी शिकस्त दी थी। उस साल भारत की महंगाई दर 3 प्रतिशत थी, मगर उसके अगले ही साल यानी 1974 में ये बढ़कर 28.6 प्रतिशत तक पहुंच गई—इतिहास की सबसे बड़ी उछालों में से एक। उस वक्त न सिर्फ आम आदमी की थाली महंगी हुई, बल्कि रसोई गैस, कपड़े, इलाज, सब कुछ आम लोगों की पहुंच से दूर होता चला गया।
गौर करने वाली बात ये है कि War के तुरंत बाद ऐसा नहीं होता। War जीतने का जोश, टीवी पर विजयी सैनिकों की तस्वीरें, अखबारों की हेडलाइंस—ये सब हमें गर्व से भर देते हैं। लेकिन कुछ ही महीनों बाद जब सब्ज़ी महंगी हो जाती है, पेट्रोल की लाइनें लंबी हो जाती हैं, स्कूल की फीस बढ़ जाती है—तब हमें एहसास होता है कि युद्ध के असली खर्च की किस्तें अभी बाकी हैं।
और युद्ध का असर केवल आर्थिक ही नहीं होता, मनोवैज्ञानिक और सामाजिक भी होता है। एक अनुमान के मुताबिक, हर War में हजारों सैनिक शहीद होते हैं, और उनके परिवारों को सिर्फ सरकारी मुआवज़े से जीना होता है। हर सैनिक जो War में गया, उसकी जगह कोई स्कूल टीचर, कोई किसान, कोई सरकारी बाबू बन सकता था। लेकिन वो चला गया सीमा पर देश के लिए जान देने।
1971 के बाद जब पाकिस्तान में महंगाई का ग्राफ देखा गया तो वह और भी भयावह था। 1973, 74 और 75 में पाकिस्तान की महंगाई दर क्रमशः 23, 26 और 20 प्रतिशत के पार थी। GDP की रफ्तार तो जैसे रुक ही गई थी। 1970 में 11 प्रतिशत की दर से बढ़ने वाला पाकिस्तान, अगले दो साल में 1 प्रतिशत से भी नीचे पहुंच गया।
भारत की हालत भी कुछ बेहतर नहीं थी। 1970 में हमारी GDP ग्रोथ 5.17 प्रतिशत थी, जो War के साल में 1.64 और उसके अगले साल -0.5 प्रतिशत पर पहुंच गई। यह गिरावट किसी महामारी से कम नहीं थी। हमें इससे उबरने में कई साल लगे, और 1975 में जाकर हम फिर 9 प्रतिशत की गति पकड़ पाए।
अब आप सोचिए, ये सब कुछ किसने झेला? सरकार ने? नेता ने? नहीं। इस देश के शिक्षक, किसान, नौकरीपेशा लोग, दुकानदार—हर आम नागरिक ने इसकी कीमत चुकाई। किसी ने सब्ज़ी महंगी खरीदी, किसी ने दवा का खर्च बढ़ाया सहा, किसी ने बच्चों की पढ़ाई बीच में छोड़ी, तो किसी ने रोज़गार गंवाया।
एक और छिपी हुई कीमत है, जिसे अक्सर कोई नहीं देखता—वो है पुनर्निर्माण की लागत। War के दौरान जो पुल, सड़कें, रेलवे ट्रैक, संचार व्यवस्था नष्ट होती है, उसे फिर से खड़ा करना किसी War से कम नहीं होता। इसके लिए भी अरबों रुपये खर्च होते हैं, जिनका सीधा बोझ आम आदमी पर पड़ता है—tax के रूप में, महंगाई के रूप में।
और अगर आप सोचते हैं कि यह सब इतिहास की बात है, तो ज़रा आज के हालात पर भी नज़र डालिए। जब रूस-यूक्रेन War शुरू हुआ, तो भारत में भी पेट्रोल के दाम बढ़े, खाने के तेल की कीमत आसमान छूने लगी, गेहूं का स्टॉक कम पड़ गया। War कहीं भी हो, असर आपके घर तक पहुंचता है।
इतना ही नहीं, जब भारत और पाकिस्तान के बीच LOC पर तनाव बढ़ता है, तो Foreign investors घबराकर पैसा निकाल लेते हैं। इससे शेयर बाजार गिरता है, रुपया कमजोर होता है, और देश की आर्थिक स्थिरता डगमगाती है। इसका मतलब है कि War सिर्फ सीमा पर नहीं लड़ा जाता—ये आपके बैंक खाते, नौकरी, और बच्चों की शिक्षा पर भी वार करता है।
अब सवाल ये है कि क्या War हमेशा नुकसानदेह ही होता है? इसका उत्तर इतना आसान नहीं है। जापान, इज़राइल और वियतनाम जैसे देशों ने भी युद्ध झेले हैं, मगर उन्होंने खुद को पुनः खड़ा किया और विश्व के सामने मिसाल कायम की। लेकिन वहां की नीतियों, जनभागीदारी और दूरदर्शिता ने ये संभव किया।
भारत में भी अगर युद्ध की कीमत को लेकर पारदर्शिता लाई जाए, War के बाद पुनर्निर्माण को प्राथमिकता दी जाए, और सबसे ज़रूरी—आम आदमी को इस बोझ से राहत देने की नीति बने, तो शायद युद्ध के बाद की जीत सच में सार्थक हो सके।
कुल मिलाकर, एक बात तो स्पष्ट है—War की असली कीमत गोलियों से नहीं, बटुए से चुकाई जाती है। और वो बटुआ किसी नेता या अफसर का नहीं होता—वो होता है आम आदमी का, आपकी-हमारी जेब का। जब भी युद्ध का जिक्र हो, हमें शहीदों को नमन जरूर करना चाहिए, लेकिन साथ ही उन लोगों को भी याद रखना चाहिए, जो घर बैठे हर दिन उसका बोझ उठाते हैं।
Conclusion
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