सोचिए, एक ऐसा परिवार जो पहले डेयरी और पोल्ट्री फार्म चलाकर रोज़ी-रोटी कमाता था, आज अरबों की दौलत का मालिक बन चुका है। और वो भी आतंकवाद के रास्ते पर चलते हुए। पाकिस्तान के बहावलपुर शहर में रहने वाला एक ऐसा शख्स, जिसे दुनिया आज सबसे खतरनाक आतंकी संगठनों में से एक, जैश-ए-मोहम्मद का सरगना मानती है — मौलाना Masood Azhar।
एक ओर भारतीय सेना का ऑपरेशन सिंदूर उसके अड्डों को तबाह कर रहा था, वहीं दूसरी ओर इस हमले में उसका पूरा परिवार — उसकी पत्नी तक — मारा गया। लेकिन क्या आप जानते हैं कि इस आतंकी का परिवार कभी एक सीधा-सादा व्यापार करता था? आइए, आपको ले चलते हैं उस काले सच की गहराइयों में, जो बताता है कि एक मामूली डेयरी व्यवसाय कैसे आतंकवाद की फैक्ट्री बन गया।
Masood Azhar का जन्म 1968 में पाकिस्तान के पंजाब प्रांत के बहावलपुर शहर में हुआ था। उसका परिवार सामान्य मुस्लिम तबके से आता था, जहां शिक्षा और धार्मिक परंपराएं साथ-साथ चलती थीं। उसके पिता, अल्लाह बख्श शब्बीर, एक सरकारी स्कूल में अध्यापक थे। लेकिन यह एक आम शिक्षक की कहानी नहीं है — बल्कि वह व्यक्ति जो देवबंदी विचारधारा का कट्टर समर्थक था, Masood Azhar के चरमपंथी बनने की नींव वहीं से रखी गई थी। धार्मिक कट्टरता और शिक्षा का यह मेल, जिसे पाकिस्तान में एक सामान्य बात समझा जाता है, वही बाद में पूरे दक्षिण एशिया के लिए खतरा बन गया।
लेकिन परिवार की आजीविका का मुख्य जरिया क्या था? वीकिपीडिया और कई पाकिस्तानी रिपोर्ट्स के मुताबिक, Masood Azhar का परिवार एक डेयरी और पोल्ट्री फार्म चलाया करता था। गाय-भैंसें पालना, दूध बेचना और अंडों की सप्लाई — यही उनका प्रमुख धंधा था। बहावलपुर जैसे छोटे लेकिन घनी आबादी वाले शहर में यह व्यापार ठीकठाक चलता था। वे लोग मस्जिदों और स्थानीय मंडियों में अपने उत्पाद बेचते थे। यही उनकी रोज़मर्रा की जिंदगी थी — सादा, मेहनती और शरीफाना। लेकिन वक्त ने करवट ली और यह परिवार सीधे-साधे जीवन से निकलकर उस रास्ते पर चला, जहां से लौटना लगभग नामुमकिन होता है।
समय के साथ Masood Azhar को धार्मिक शिक्षा के लिए कराची और फिर बिनोरी टाउन जैसे धार्मिक मदरसों में भेजा गया। वहीं से उसकी सोच में कट्टरता और जिहादी विचारों की जड़ें जमने लगीं। उसने भाषण देने की कला सीखी, भावनात्मक रूप से युवाओं को जोड़ना सीखा और धीरे-धीरे डेयरी फार्म का लड़का, कट्टरपंथी प्रचारक बन गया। ये वही समय था जब अफगान युद्ध में अमेरिका और पाकिस्तान मिलकर मुजाहिदीन तैयार कर रहे थे, और मदरसे उग्रवाद की प्रयोगशालाएं बन चुके थे। Masood Azhar को भी इस सिस्टम ने तैयार किया, तराशा और फिर भारत के खिलाफ इस्तेमाल किया।
परिवार की आर्थिक स्थिति तब बदलने लगी, जब Masood Azhar ने जैश-ए-मोहम्मद की स्थापना की। अब आमदनी का जरिया सिर्फ दूध और अंडे नहीं थे — अब विदेशी फंडिंग, हवाला नेटवर्क, धार्मिक चंदे और जमीन-जायदाद के सौदे उसके पास आ चुके थे। बहावलपुर में ही जैश का हेडक्वार्टर बनाया गया, जिसे “उस्मान-ओ-अली कॉम्प्लेक्स” नाम दिया गया। ये कोई आम इमारत नहीं थी — 18 एकड़ में फैला एक ऐसा ट्रेनिंग सेंटर, जो बाहर से मस्जिद लगता था, लेकिन अंदर से हथियारों और आतंकियों की फैक्ट्री थी।
भारतीय सेना के ऑपरेशन सिंदूर ने इसी मुख्य अड्डे को निशाना बनाया। इस हमले में Masood Azhar की पत्नी, उसके चार नजदीकी रिश्तेदार और परिवार के कई सदस्य मारे गए। जब अजहर से पूछा गया कि कैसा महसूस कर रहा है, तो उसका जवाब था, “काश मैं भी मर गया होता।” यही एक वाक्य उसके दर्द, झूठे मकसद और खोखले विचार की पूरी कहानी कह जाता है। यह वही शख्स था, जिसे कभी पाकिस्तान का धार्मिक योद्धा समझा जाता था, लेकिन अब उसकी असलियत खुद पाकिस्तान के लिए भी बोझ बन गई है।
रिपोर्ट्स बताती हैं कि Masood Azhar के पास कई एकड़ जमीन है, जिनमें से अधिकतर मस्जिद के नाम पर दर्ज हैं। लेकिन सच्चाई ये है कि इन्हीं जमीनों पर आतंकवाद की खेती होती है। करोड़ों रुपये की कीमत वाली ये जमीनें, अब पाकिस्तानी प्रशासन की आंखों में चुभ रही हैं, क्योंकि भारत का सैन्य दबाव अब खुली कार्रवाई का रूप ले चुका है। पाकिस्तान की सरकार और सेना के सामने अब यह सवाल खड़ा हो गया है कि वह कब तक इन आतंकियों को पनाह देती रहेगी?
फ्रांस ने कुछ साल पहले अजहर के करोड़ों डॉलर के अंतरराष्ट्रीय बैंक खातों को फ्रीज कर दिया था। लेकिन पाकिस्तान में उसकी दौलत और संसाधनों पर कभी खुलकर बात नहीं की गई। वहां की मीडिया उसे एक “धार्मिक नेता” मानकर उसकी संपत्ति पर चुप्पी साधे रही। लेकिन अब जब उसका साम्राज्य बिखर रहा है, तो सच सामने आने लगा है। ये वही धन है जो स्कूल, अस्पताल और सड़कों पर खर्च होना चाहिए था, लेकिन वह एक आतंकवादी के महलों और बंकरों में गुम हो गया।
जैश का नेटवर्क बहावलपुर से लेकर मुरिदके और मरकज तैयबा जैसे क्षेत्रों में फैला हुआ है। यहां भी जैश की संपत्तियां करोड़ों में हैं, और इनका इस्तेमाल हथियारों की तस्करी, आतंकियों की ट्रेनिंग और चरमपंथी साहित्य के प्रसार के लिए होता था। अब इन जगहों को भी निशाना बनाया गया है। और पाकिस्तानी सेना की मजबूरी के चलते, ये सब कुछ खुलेआम नहीं बल्कि दबे स्वर में किया जा रहा है। एक ओर भारत का प्रेशर है, तो दूसरी ओर अंतरराष्ट्रीय समुदाय की निगरानी, और इसी बीच पाकिस्तान की दोहरी नीति भी।
भारत के लिए यह सिर्फ सैन्य ऑपरेशन नहीं, बल्कि एक संदेश था — कि जो भी देश आतंकवाद को पालेंगे, उन्हें उसकी कीमत चुकानी ही पड़ेगी। मसूद अजहर का पारिवारिक व्यापार कभी दूध और अंडों का था, लेकिन उसने उसे नफरत और हिंसा के ज़हर में बदल दिया। और इसी नफरत की खेती ने एक पूरे देश की छवि को दागदार बना दिया। पाकिस्तान आज जिस आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक संकट से गुजर रहा है, उसमें इन संगठनों की भूमिका को नकारा नहीं जा सकता।
अब सवाल यह है कि क्या पाकिस्तान वाकई इस नेटवर्क को खत्म करना चाहता है? क्या Masood Azhar की मौत या जैश के अड्डों के तबाह होने से आतंक का अंत होगा? या फिर यह केवल एक चेहरा बदलने का खेल है? पाकिस्तान की नीति हमेशा से यही रही है — एक आतंकी को कुर्बान करके बाकी नेटवर्क को बचा लेना। और यही वजह है कि आज भी Masood Azhar जैसे आतंकियों के खिलाफ ठोस कार्रवाई नहीं हो पाती।
इस पूरी कहानी में एक और तथ्य बेहद दिलचस्प है — Masood Azhar का अधिकांश पैसा धार्मिक चंदों और विदेशों से आने वाले फंड्स के जरिए इकट्ठा किया गया। खाड़ी देशों से लेकर यूके, यूएस, और यहां तक कि कुछ अफ्रीकी देशों तक, जैश ने अपने समर्थकों के जरिए फंडिंग जुटाई। सोशल मीडिया और ऑनलाइन पोर्टल्स का भी इस्तेमाल किया गया। एक तरफ ज़कात और खैरात के नाम पर पैसा लिया गया, और दूसरी तरफ उन्हीं पैसों से भारत में आतंक फैलाया गया। यह एक सुनियोजित नेटवर्क था, जिसे धर्म की आड़ में चलाया जा रहा था।
Masood Azhar की निजी सुरक्षा भी किसी राष्ट्रपति से कम नहीं थी। उसके पास निजी बॉडीगार्ड्स, बुलेटप्रूफ गाड़ियां और बहावलपुर में एक किला-जैसा आवास था। और हैरानी की बात ये है कि ये सब कुछ पाकिस्तान की सरकार की नज़रों के सामने हो रहा था, लेकिन कोई कार्रवाई नहीं की गई — शायद इसलिए क्योंकि सरकार भी इस नेटवर्क से कहीं न कहीं जुड़ी थी। जब तक इस गठजोड़ को नहीं तोड़ा जाएगा, तब तक आतंक की जड़ें वहीं बनी रहेंगी।
अंत में, जब हम इस कहानी को देखते हैं, तो यह सिर्फ एक व्यक्ति की बात नहीं है। ये एक पूरे सिस्टम की कहानी है, जो डेयरी और पोल्ट्री फार्म से शुरू होकर आतंकवाद के अंतरराष्ट्रीय मंच तक जा पहुंचा। Masood Azhar का परिवार कभी सादगी से जीवन बिताता था, लेकिन एक विचारधारा की ग़लत दिशा ने उसे सबसे घातक रास्ते पर डाल दिया। यह हमें सिखाता है कि विचारधारा की ताकत क्या होती है, और जब उसका दुरुपयोग होता है तो समाज किस हद तक बर्बादी की ओर जा सकता है।
और जब आज भारत की सेना उसके अड्डों को ध्वस्त कर रही है, तो यह केवल बदला नहीं — बल्कि चेतावनी है। उन सभी के लिए जो नफरत की दुकान चलाते हैं, जो धर्म के नाम पर खून बहाते हैं, और जो अपने फायदे के लिए मासूम लोगों की जान से खेलते हैं। यह वक्त है सच्चाई को पहचानने का, नफरत के धंधे को खत्म करने का और इंसानियत की तरफ लौटने का।
Conclusion
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