एक दिन देश की सबसे बड़ी Financial watchdog की पूर्व प्रमुख पर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लगते हैं। मीडिया की सुर्खियों में उनके नाम की चर्चा हर जगह होती है। संसद में विपक्ष आवाज़ उठाता है, ट्विटर पर बहसें तेज़ हो जाती हैं, और हर कोई यह सोचता है कि अब क्या होगा?
लेकिन फिर एक दिन देश की सबसे बड़ी भ्रष्टाचार विरोधी संस्था—लोकपाल—अपना अंतिम फैसला सुनाती है और कहती है: “कोई भी आरोप प्रमाणित नहीं हुआ।” यह कहानी है Madhabi Puri Buch की—सेबी की पहली महिला चेयरपर्सन और एक ऐसी महिला की जो बिना किसी राजनीतिक समर्थन, या विशेष लॉबी के उस कुर्सी तक पहुंचीं जहां से देश के सबसे बड़े कॉरपोरेट्स को नियंत्रित किया जाता है। आज हम इसी विषय पर गहराई में चर्चा करेंगे।
लोकपाल ने स्पष्ट रूप से कहा है कि Madhabi Puri Buch के खिलाफ दर्ज शिकायतें न केवल तुच्छ थीं, बल्कि उनका कोई तथ्यात्मक आधार भी नहीं था। हिंडनबर्ग रिसर्च की रिपोर्ट को आधार बनाकर जिन लोगों ने शिकायतें की थीं, उन्होंने केवल Presumption, prejudice और Unconfirmed facts के आधार पर एक सार्वजनिक पदाधिकारी की छवि खराब करने की कोशिश की।
रिपोर्ट के मुताबिक, ये आरोप इस आधार पर लगाए गए कि बुच और उनके पति धवल बुच की मॉरीशस की एक ऑफशोर कंपनी में हिस्सेदारी है, और उसी कंपनी में विनोद अदाणी ने अरबों डॉलर Invest किए थे। आरोप था कि इसका इस्तेमाल शेयर मार्केट को प्रभावित करने के लिए किया गया। लेकिन जब इन दावों की गहराई से जांच की गई, तो कोई भी सबूत सामने नहीं आया।
लोकपाल की छह सदस्यीय पीठ, जिसकी अध्यक्षता सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश ए एम खानविलकर कर रहे थे, ने अपने 116 पन्नों के विस्तृत आदेश में साफ-साफ कहा है कि आरोप अनुमानों और अटकलों पर आधारित हैं। किसी भी प्रकार की सत्यापन योग्य जानकारी, दस्तावेज़ या गवाह सामने नहीं रखे गए। लोकपाल ने यह भी कहा कि रिपोर्ट से प्रेरित होकर कुछ लोगों ने जो आरोप लगाए, वे न केवल without evidence हैं बल्कि पूर्वाग्रह से प्रेरित भी हैं। यह कहना गलत नहीं होगा कि यह पूरा विवाद एक राजनीतिक और कॉरपोरेट युद्ध का हिस्सा था, जिसमें Madhabi Puri Buch जैसे अधिकारी को बीच में घसीटा गया।
महुआ मोइत्रा, जो कि तृणमूल कांग्रेस की सांसद हैं, उन्होंने सबसे पहले 13 सितंबर 2023 को यह शिकायत दर्ज कराई थी। उन्होंने मांग की थी कि इस मामले की प्रारंभिक जांच ईडी या सीबीआई जैसी जांच एजेंसियों से करवाई जाए। इसके बाद कुछ और लोगों ने भी इस मामले को हवा दी। लेकिन जैसे-जैसे जांच आगे बढ़ी, सच सामने आता गया। और आखिरकार, लोकपाल ने साफ शब्दों में कहा कि इन शिकायतों को निस्तारित किया जाता है क्योंकि इनमें कोई दम नहीं है।
हिंडनबर्ग रिसर्च की रिपोर्ट, जिसने यह पूरा विवाद जन्म दिया, खुद एक शॉर्ट सेलर की रिपोर्ट थी। इसका उद्देश्य था किसी विशेष समूह के शेयर को निशाना बनाना और उससे मुनाफा कमाना। हिंडनबर्ग की रिपोर्ट ने अदाणी ग्रुप के खिलाफ कई गंभीर आरोप लगाए थे, लेकिन बाद में पता चला कि इनमें से कई दावे जांच के दौरान साबित नहीं हो पाए। इसी रिपोर्ट के कुछ अंशों को लेकर बुच पर भी निशाना साधा गया, जो सेबी की उस समय की चेयरपर्सन थीं। लेकिन यह तथ्य भुला दिया गया कि सेबी की जिम्मेदारी है हर कंपनी की निगरानी करना, न कि किसी विशेष रिपोर्ट के आधार पर कार्यवाही करना।
लोकपाल ने विशेष रूप से यह कहा कि किसी लोक सेवक के खिलाफ जांच शुरू करने से पहले हमें उनकी दलीलों, उपलब्ध सबूतों और आरोपों की प्रकृति को ध्यान से देखना चाहिए। यह केवल कागज़ी आरोपों के आधार पर नहीं किया जा सकता। और जब एक लोक सेवक जैसे बुच, जो पारदर्शिता और निष्पक्षता के लिए जानी जाती हैं, उनके खिलाफ कोई भी पुष्ट जानकारी नहीं मिलती, तो फिर इस तरह की शिकायतें केवल उनके मान-सम्मान को ठेस पहुंचाने के उद्देश्य से लगाई गई मानी जाती हैं।
बुच पर लगाए गए पांच प्रमुख आरोपों में एक यह था कि उन्होंने और उनके पति ने, उस फंड में Investment किया जो अदाणी समूह से जुड़ा हुआ था। दूसरा आरोप यह था कि उन्होंने महिंद्रा एंड महिंद्रा और ब्लैकस्टोन को सलाहकार सेवाओं के नाम पर अनुचित लाभ पहुंचाया। तीसरा आरोप यह था कि उन्होंने Wockhardt से कंसल्टेंसी के बदले रेंटल इनकम ली। चौथा आरोप था कि ICICI बैंक के ESOP बेचकर अनुचित लाभ कमाया। लेकिन इन सभी आरोपों का गहराई से विश्लेषण करने के बाद लोकपाल ने कहा कि इनका कोई तथ्यात्मक आधार नहीं है। यह सब केवल अटकलों पर आधारित था।
Madhabi Puri Buch ने दो मार्च 2022 को सेबी की चेयरपर्सन के रूप में कार्यभार संभाला था, और 28 फरवरी 2024 को उन्होंने अपना कार्यकाल पूरा किया। यह समय भारतीय पूंजी बाजार के लिए बेहद संवेदनशील और चुनौतीपूर्ण रहा, खासकर कोविड के बाद के दौर में जब Investors की संख्या में जबरदस्त बढ़ोतरी हुई और IPO की बाढ़ सी आ गई। इस दौरान बुच की Leadership ability और Administrative efficiency की कई बार प्रशंसा की गई। उन्होंने सेबी में तकनीक के समावेशन पर जोर दिया और जांच प्रक्रिया को तेज, पारदर्शी और डिजिटल बनाया।
सेबी प्रमुख के रूप में बुच का कार्यकाल विवादों से परे रहा है। लेकिन उनके खिलाफ लगाए गए आरोप इस बात का संकेत देते हैं कि जब भी कोई अधिकारी निष्पक्ष और सख्त फैसले लेता है, तो उसे निशाना बनाया ही जाता है। लोकतंत्र में यह बेहद जरूरी है कि ऐसे अधिकारियों की रक्षा की जाए, जो बिना दबाव के काम करते हैं। वरना भविष्य में कोई भी अधिकारी कठिन निर्णय लेने से कतराएगा।
लोकपाल के इस फैसले ने केवल Madhabi Puri Buch को क्लीन चिट ही नहीं दी, बल्कि यह भी स्पष्ट कर दिया कि जांच और न्याय की प्रक्रिया में भावना या राजनीतिक विचारधारा का कोई स्थान नहीं होना चाहिए। सबूत, तर्क और निष्पक्ष विश्लेषण ही न्याय का आधार बनना चाहिए। यह फैसला उन सभी अधिकारियों के लिए प्रेरणा है, जो सच्चाई के साथ काम करते हैं और देश की व्यवस्था को मजबूत बनाने में अपना योगदान देते हैं।
अब सवाल यह उठता है कि क्या भविष्य में कोई भी रिपोर्ट, बिना सबूत के, किसी अधिकारी को इस तरह से बदनाम कर सकती है? क्या ऐसी रिपोर्ट्स को शेयर बाजार में इस्तेमाल करने वालों पर भी सख्ती नहीं होनी चाहिए? क्योंकि अगर हर बार बिना प्रमाण के आरोप लगते रहेंगे, तो इससे न केवल संस्थाओं की साख को ठेस पहुंचेगी, बल्कि Investors का विश्वास भी डगमगाएगा।
Madhabi Puri Buch की यह कहानी केवल एक अधिकारी के सम्मान की बहाली नहीं, बल्कि उस तंत्र की जीत है जो सच्चाई और निष्पक्षता के सिद्धांतों पर चलता है। यह बताता है कि चाहे जितना भी शोर हो, अंत में न्याय की आवाज सबसे ऊपर होती है। और यही लोकतंत्र की असली ताकत है।
Conclusion
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