एक ऐसी कंपनी जिसने भारत के आसमान को नए पंख दिए, यात्रियों को किफायती और भरोसेमंद उड़ान का विकल्प दिया, और देखते ही देखते देश की सबसे बड़ी एयरलाइन बन गई। लेकिन उसी कंपनी के सह-संस्थापक ने इसे एक दिन ‘पान की दुकान’ कह दिया। यह बात सिर्फ शब्दों की नहीं थी, बल्कि उस समय देश के कॉरपोरेट जगत में भूचाल ला देने वाली टिप्पणी थी। इस तंज ने मीडिया की सुर्खियों से लेकर बोर्डरूम मीटिंग्स तक हलचल मचा दी।
और सबसे दिलचस्प बात ये रही—जिस कंपनी को राकेश गंगवाल ने ‘पान की दुकान’ कहा, उसी ने उन्हें 30,000 करोड़ रुपये से अधिक की कमाई दी। यही कॉरपोरेट की विडंबना है—जहां मतभेद, मुनाफे और मशहूरियत एक ही छत के नीचे रहते हैं। यह कहानी उस सोच को भी झकझोरती है जो कभी व्यवसाय को केवल दोस्ती या साझेदारी की बुनियाद पर देखती थी। आज हम इसी विषय पर गहराई में चर्चा करेंगे।
IndiGo की कहानी 2006 से शुरू होती है, जब दो अनुभवी कारोबारी—राहुल भाटिया और राकेश गंगवाल—ने साथ मिलकर भारत की एक नई एयरलाइन की नींव रखी। उस दौर में भारत की एविएशन इंडस्ट्री उथल-पुथल से भरी हुई थी। किंगफिशर, स्पाइसजेट और एयर डेक्कन जैसी कंपनियां अलग-अलग रणनीतियों से बाजार में पकड़ बना रही थीं।
लेकिन IndiGo ने तय किया कि वो “नो फ्रिल्स, लो कॉस्ट” मॉडल को अपनाएगी—यानि कम खर्च, कम सुविधाएं लेकिन समय पर और विश्वसनीय सेवा। यह मॉडल भारत जैसे कीमत-संवेदनशील बाजार में चल निकला। कुछ ही वर्षों में IndiGo ने अपनी जगह मजबूत कर ली और देश की सबसे बड़ी एयरलाइन बन गई। यह एक उदाहरण था कि कैसे सादगी और फोकस से बड़ा बिजनेस खड़ा किया जा सकता है।
लेकिन जैसे-जैसे सफलता की उड़ान ऊँचाई पकड़ती गई, वैसे-वैसे मतभेद भी गहराने लगे। गंगवाल और भाटिया, जो कभी एक ही दिशा में देख रहे थे, अब कॉरपोरेट गवर्नेंस, बोर्ड की कार्यशैली और पारदर्शिता को लेकर आमने-सामने आ गए। राकेश गंगवाल को यह लगता था कि कंपनी के अंदर पारदर्शिता की कमी है और निर्णयों में निष्पक्षता नहीं है।
उन्होंने इस मुद्दे को बोर्ड के सामने उठाया और फिर मीडिया के जरिए भी अपनी बात रखी। इसी दौरान 2019 में उनका वह विवादास्पद बयान आया जिसमें उन्होंने IndiGo को ‘पान की दुकान’ जैसा कहा। यह बयान दर्शाता है कि जब मूल्य आधारित मतभेद आर्थिक हितों से टकराते हैं, तो कारोबारी रिश्ते किस कदर खटास में बदल सकते हैं।
यह शब्द सुनने में चाहे कितना भी हल्का क्यों न लगे, लेकिन इसके पीछे एक बड़ी नाराज़गी और गहरी शिकायत थी। गंगवाल चाहते थे कि कंपनी बड़े स्तर की बने, न कि एक परिवार द्वारा संचालित व्यापार की तरह चलाई जाए। उनके इस बयान पर राहुल भाटिया ने तंज कसते हुए कहा, “अगर यह पान की दुकान है, तो बहुत अच्छी तरह चल रही है।
” यह वाक्य भारतीय कॉरपोरेट इतिहास के सबसे चर्चित संवादों में शामिल हो गया। यह तकरार इतनी बढ़ी कि मामला रेगुलेटरी बॉडी तक पहुंच गया। लेकिन तब तक कंपनी जनता के भरोसे पर खरी उतर चुकी थी और उसकी व्यावसायिक सफलता को कोई नकार नहीं सकता था। यह मामला एक क्लासिक केस बना कि कैसे निजी मतभेद सार्वजनिक प्रभावों में बदल जाते हैं।
गंगवाल ने धीरे-धीरे अपने शेयर बेचना शुरू किया। उन्होंने यह तय कर लिया था कि अब वह कंपनी के नियंत्रण से बाहर निकलना चाहते हैं। लेकिन एक व्यवसायी के रूप में उन्होंने यह भी सुनिश्चित किया कि उन्हें अपने Investment का पूरा मुनाफा मिले। और इसी सिलसिले में 26 मई 2025 को उन्होंने Inter Globe Aviation में अपनी 5.8% हिस्सेदारी बेच दी। इस ब्लॉक डील के जरिए उन्हें करीब 11,928 करोड़ रुपये की कमाई हुई। यह अब तक की उनकी सबसे बड़ी हिस्सेदारी बिक्री में से एक थी। लेकिन यह पहली बार नहीं था—उन्होंने इससे पहले भी अपनी हिस्सेदारी धीरे-धीरे कम की थी। हर बार उन्होंने न केवल बाजार को समझा, बल्कि सही समय पर कदम उठाया।
कुल मिलाकर, गंगवाल ने अब तक IndiGo से 30,000 करोड़ रुपये से अधिक की कमाई की है। जिस कंपनी को उन्होंने किसी समय ‘पान की दुकान’ कहा था, उसी ने उन्हें अरबों की दौलत दी। यह कॉरपोरेट की वह विडंबना है जो केवल भारत में ही नहीं, बल्कि पूरी दुनिया में देखी जाती है। मतभेद, विवाद और आलोचना—ये सब होते हुए भी व्यापार में लाभ की संभावना बनी रहती है, और गंगवाल की कहानी इसका जीवंत उदाहरण है। यह भी बताता है कि कारोबारी समझ और धैर्य से कोई भी स्थिति आपके पक्ष में बदली जा सकती है, बशर्ते आपकी रणनीति सटीक हो।
इसके अलावा, राहुल भाटिया अब कंपनी के इकलौते नियंत्रक हैं और सभी रणनीतिक फैसले उन्हीं के इर्द-गिर्द तय होते हैं। कंपनी ने साफ तौर पर संकेत दिया है कि वह इंटरनेशनल विस्तार और प्रीमियम सेगमेंट में अपनी स्थिति को और मजबूत करेगी। अब भाटिया को फुल कंट्रोल मिलने के बाद कंपनी एक नई दिशा में जा रही है और शायद वो पारदर्शिता भी लौटे जो गंगवाल कभी चाहते थे।
इस दौरान एक और बड़ा बदलाव कंपनी में आया—वेंकटरमणी सुमंत्रन के स्थान पर विक्रम सिंह मेहता को IndiGo का नया चेयरमैन नियुक्त किया गया। मेहता मई 2022 से इंटरग्लोब एविएशन के बोर्ड में सदस्य हैं और उनके पास सार्वजनिक और निजी क्षेत्रों में काम करने का लंबा अनुभव है। वह भारत में शेल कंपनीज के चेयरमैन रह चुके हैं और मिस्र में भी शेल के केमिकल डिवीजन का संचालन कर चुके हैं। उनके आने से कंपनी को रणनीतिक सोच और इंटरनेशनल डिप्लोमैसी दोनों में मदद मिलने की संभावना है। यह बदलाव सिर्फ नाम का नहीं, दृष्टिकोण का भी संकेत है।
हालांकि, वेंकटरमणी सुमंत्रन का कार्यकाल भी कम प्रभावशाली नहीं रहा। उन्होंने कोविड महामारी के बाद IndiGo को पटरी पर लाने में अहम भूमिका निभाई। उनके नेतृत्व में कंपनी ने न केवल घाटा कम किया, बल्कि यात्रियों का विश्वास भी दोबारा जीता। अब जब नए चेयरमैन की नियुक्ति हो चुकी है, तो यह देखना दिलचस्प होगा कि IndiGo किस दिशा में आगे बढ़ती है। उनके अनुभव से उम्मीद की जा रही है कि कंपनी अब न केवल बाजार हिस्सेदारी बढ़ाएगी, बल्कि सेवा के मानकों को भी नई ऊँचाई पर ले जाएगी।
आज IndiGo भारत ही नहीं, बल्कि दक्षिण एशिया की सबसे मजबूत एयरलाइनों में से एक मानी जाती है। कंपनी के पास मजबूत फ्लीट, प्रशिक्षित स्टाफ और भरोसेमंद समय-सारिणी है। कम लागत में बेहतर सेवा देना उसका मुख्य मंत्र है और यही कारण है कि वह यात्री वर्ग में सबसे लोकप्रिय एयरलाइन बनी हुई है। लेकिन गंगवाल और भाटिया के बीच हुए मतभेद यह भी दर्शाते हैं कि बिजनेस में वैचारिक समानता और पारदर्शिता कितनी जरूरी होती है। यह घटना हमें यह सिखाती है कि केवल मुनाफा ही सब कुछ नहीं, बल्कि संस्थागत मूल्य और प्रोफेशनल सम्मान भी उतने ही जरूरी हैं।
इस पूरी कहानी का सबसे बड़ा सबक यही है—व्यापारिक रिश्ते भले ही खत्म हो जाएं, लेकिन सही समय पर लिए गए निर्णय और सही दिशा में किया गया Investment अंततः मुनाफा ही देता है। राकेश गंगवाल ने अपने हिस्से का मुनाफा ले लिया, लेकिन उनके शब्द अब भी IndiGo की विरासत में गूंजते हैं। और यही दर्शाता है कि एक ‘पान की दुकान’ भी अरबों की कंपनी बन सकती है—अगर सोच बड़ी हो, रणनीति सटीक हो और ग्राहक का विश्वास साथ हो। आज IndiGo उस मुकाम पर है जहां से वह न केवल अपनी आलोचना को पीछे छोड़ चुकी है, बल्कि भविष्य की ऊँचाइयों की ओर उड़ान भरने के लिए तैयार है।
Conclusion
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