Inspiring: Foreign Currency Reserves में रिकॉर्ड तोड़ बढ़त भारत ने पाकिस्तान को 45 गुना से हराया, जानिए ये सफलता कैसे मिली!

एक ही दिन आज़ादी मिली, एक जैसी विरासत, लेकिन आज एक देश दुनिया की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है… और दूसरा देश Foreign currency दिखाने के लिए भीख मांग रहा है। एक के पास है 688 अरब डॉलर का भंडार… और दूसरे के पास मुश्किल से 15 अरब डॉलर। ये फर्क किसी एक फैसले का नहीं है, बल्कि दशकों की सोच, नीति और नीयत का है। पाकिस्तान आज भारत से 45 गुना पीछे क्यों है? इसका जवाब जानकर आप हैरान रह जाएंगे। आज हम इसी विषय पर गहराई में चर्चा करेंगे।

1947 में भारत और पाकिस्तान अलग हुए। दोनों देशों ने अपने-अपने तरीके से विकास की कोशिशें शुरू कीं। दोनों को अंग्रेजों से एक जैसी टूटी-फूटी अर्थव्यवस्था मिली थी। सीमित संसाधन, टूटी-बिखरी व्यवस्थाएं और समाजिक-राजनीतिक अस्थिरता — यही थी आज़ादी की शुरुआती पूंजी। लेकिन आगे का रास्ता दोनों ने अलग चुना। भारत ने लोकतंत्र को अपनाया, तो पाकिस्तान ने बार-बार Military rule को गले लगाया। यही फर्क आगे चलकर दोनों देशों की आर्थिक सेहत में झलकने लगा।

भारत के लिए 1991 एक टर्निंग पॉइंट था। उस समय देश का foreign currency reserves केवल 2 अरब डॉलर रह गया था — इतना भी नहीं था कि तीन हफ्तों तक Import चल सके। लेकिन इस संकट ने एक बड़े सुधार की नींव रखी। भारत ने Liberalization, privatization और Globalization का रास्ता अपनाया। व्यापार बाधाओं को हटाया गया, foreign investment के द्वार खोले गए, और रुपए का मूल्य यथार्थवादी किया गया। ये कदम आसान नहीं थे, लेकिन उन्होंने भारत को एक नई दिशा दी।

इसके बाद भारत की अर्थव्यवस्था ने रफ्तार पकड़ी। आईटी और सेवा क्षेत्र में तेजी से वृद्धि हुई। भारतीय कंपनियां वैश्विक बाजार में पहचान बनाने लगीं। 2008 तक भारत का foreign currency reserves 300 अरब डॉलर से ऊपर पहुंच चुका था। इसके बाद चाहे 2008 का Global Financial Crisis हो या 2020 की कोरोना महामारी — भारत की अर्थव्यवस्था ने लचीलापन दिखाया और वापसी की। 2025 तक यह भंडार 688 अरब डॉलर के रिकॉर्ड स्तर पर पहुंच गया है — यानी लगभग 58 लाख करोड़ रुपए।

अब अगर पाकिस्तान की बात करें, तो तस्वीर बिल्कुल उलटी है। शुरुआत में 1960 के दशक में पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था बेहतर मानी जाती थी। लेकिन इसके बाद बार-बार सरकारों का गिरना, सैन्य तख्तापलट, आतंकवाद, आंतरिक अस्थिरता और असंगत आर्थिक नीतियों ने देश की आर्थिक नींव को खोखला कर दिया। पाकिस्तान का ध्यान आर्थिक विकास की जगह सुरक्षा रणनीतियों पर रहा। उसने अमेरिका और फिर चीन पर जरूरत से ज़्यादा निर्भरता बना ली। नतीजा ये हुआ कि आत्मनिर्भर बनने की प्रक्रिया शुरू ही नहीं हो सकी।

पाकिस्तान का foreign currency reserves फिलहाल सिर्फ 15 अरब डॉलर है। और इसमें से भी बड़ा हिस्सा तो कर्ज है — या किसी न किसी शर्त के साथ मिला हुआ धन। ये रकम भारत के भंडार का मात्र 2.1% है। इतना ही नहीं, पाकिस्तान का भंडार कभी-कभी 4 अरब डॉलर से भी नीचे चला गया है — यानी देश दिवालिया होने के मुहाने पर खड़ा रहा है। IMF, चीन और सऊदी अरब से कर्ज लेकर पाकिस्तान अपनी सांसें चलाता रहा है, लेकिन कभी स्थायी समाधान की तरफ नहीं बढ़ा।

अब ज़रा देखें कि ये फर्क कैसे बना। भारत ने अपने आर्थिक फैसलों में दीर्घकालिक सोच को तरजीह दी। Service sector, manufacturing, startups, agriculture, technology — हर क्षेत्र में सुधार किए गए। भारत की आर्थिक नीतियां व्यवसायियों और Investors को भरोसा देती रहीं। वहीं पाकिस्तान ने बार-बार अंतरराष्ट्रीय कर्ज को शॉर्टकट की तरह इस्तेमाल किया, लेकिन उसका कोई टिकाऊ लाभ नहीं उठा सका।

पाकिस्तान का Export भी बेहद सीमित रहा है। ज्यादातर कम कीमत वाले कपड़े, चावल और कुछ फलों तक सीमित। जबकि भारत टेक्सटाइल से लेकर टेक्नोलॉजी, फार्मा, जेम्स एंड ज्वेलरी, स्टील, पेट्रोलियम और यहां तक कि सैटेलाइट तक का Export करता है। यही नहीं, भारत आज दुनिया के बड़े स्टार्टअप हब में से एक है, जबकि पाकिस्तान आज भी प्राथमिक Investment के लिए भी अंतरराष्ट्रीय मंचों पर गिड़गिड़ा रहा है।

भारत ने जिन आर्थिक सुधारों की शुरुआत 1991 में की, पाकिस्तान ने कभी वैसे कदम उठाए ही नहीं। IMF से मिलने वाले राहत पैकेज के भरोसे देश की नीतियां तय होती रहीं। जैसे ही कर्ज खत्म हुआ, संकट फिर से गहराने लगता है। यह सिलसिला 1980 से लगातार चलता आ रहा है — पाकिस्तान अब तक 20 से ज्यादा बार IMF के पास जा चुका है।

पाकिस्तान की विदेश नीति ने भी उसे अलग-थलग कर दिया। भारत जहां आज अमेरिका, जापान, यूरोपीय यूनियन और खाड़ी देशों के साथ बहुआयामी व्यापारिक साझेदार बना चुका है, वहीं पाकिस्तान की रणनीति केवल चीन पर निर्भर रहने तक सिमटी रही। CPEC यानी चीन-पाकिस्तान आर्थिक कॉरिडोर को विकास की राह बताया गया, लेकिन अब वह भी भारी कर्ज और विवादों के घेरे में है।

भारत ने जहां घरेलू मांग को मजबूत किया, वहीं पाकिस्तान ने अपने घरेलू उद्योगों को कभी सक्षम नहीं बनाया। आज भी पाकिस्तान अपने जरूरी सामानों — तेल, दवाएं, मशीनें — के लिए Import पर निर्भर है, लेकिन उसके पास उन्हें खरीदने के लिए पर्याप्त डॉलर नहीं हैं। इससे महंगाई बढ़ती है, रुपया गिरता है, और Foreign investors दूर हो जाते हैं।

इसके अलावा, Geopolitical फैसलों ने भी इस खाई को और चौड़ा किया है। भारत ने अंतरराष्ट्रीय मंचों पर अपनी स्थिति मज़बूत की — चाहे G20 की अध्यक्षता हो, BRICS, SCO या क्वाड की सदस्यता — भारत हर मंच पर सक्रिय रहा। वहीं पाकिस्तान आतंकवाद के मुद्दे, FATF की ग्रे लिस्ट, और कर्ज के दुष्चक्र में उलझा रहा।

अब स्थिति यह है कि भारत वैश्विक मंदी के दौर में भी अपनी विकास दर बनाए रखने में सक्षम है, जबकि पाकिस्तान को अपने खर्च चलाने के लिए भी कर्ज की दरकार है। IMF की शर्तों को मानने के बाद भी पाकिस्तान को राहत कम और महंगाई ज़्यादा मिलती है। वहां की जनता हर रोज़ महंगी रोटी, पेट्रोल और दवाओं से जूझ रही है, और सरकार के पास कोई दीर्घकालिक समाधान नहीं।

सवाल उठता है — क्या अब पाकिस्तान इस आर्थिक खाई को भर सकता है? जवाब आसान नहीं है। इसके लिए केवल आर्थिक नहीं, बल्कि राजनीतिक, सामाजिक और रणनीतिक सोच में भी क्रांतिकारी बदलाव चाहिए। पाकिस्तान को लोकतंत्र की स्थिरता, आतंकवाद से दूरी, और Global investors का विश्वास जीतना होगा। वरना foreign currency reserves तो कागज पर 15 अरब दिखेगा, लेकिन असल में उसके पास कोई दम नहीं बचेगा।

दूसरी ओर भारत अब 5 ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था बनने की राह पर है। डिजिटल इंडिया, मेक इन इंडिया, PLI स्कीम, EV मिशन, और अंतरिक्ष कार्यक्रम — ये सब दर्शाते हैं कि भारत सिर्फ आंकड़ों से नहीं, योजनाओं और नीतियों से आगे बढ़ रहा है।

कहा जाता है कि देशों की अर्थव्यवस्था उनकी नियत और नीति दोनों से बनती है। भारत ने इस कहावत को सच साबित किया है — और पाकिस्तान आज इस असफलता की जीती-जागती मिसाल बन गया है कि बिना नीति और स्थिरता के कोई भी देश भटक सकता है।

तो अगली बार जब कोई पूछे कि एक जैसे हालात में जन्मे भारत और पाकिस्तान की आज इतनी दूरी क्यों है, तो जवाब साफ है — भारत ने रास्ता चुना, और पाकिस्तान ने शॉर्टकट। क्या आप मानते हैं कि पाकिस्तान इस आर्थिक दलदल से निकल पाएगा? या फिर अब बहुत देर हो चुकी है? कमेंट में अपनी राय बताइए।

Conclusion

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