एक ऐसा देश जो दशकों से सीमा पार आतंकवाद का गढ़ माना जाता है, जिसे दुनिया भर में आतंक की फैक्ट्री कहा गया है—उसे अचानक International Monetary Fund यानी IMF से एक और अरब डॉलर मिल जाता है। वो भी तब, जब भारत खुले मंच पर इसका पुरज़ोर विरोध कर चुका है। सवाल ये उठता है कि क्या आतंक की इस फंडिंग को अब global platform पर भी नज़रअंदाज़ किया जा रहा है? या फिर यह महज़ कूटनीति की एक चाल है, जिसमें आम लोगों की सुरक्षा, आतंक की फंडिंग और सच्चाई—सभी collateral damage बनते जा रहे हैं? आज हम इसी विषय पर गहराई में चर्चा करेंगे।
IMF की कार्यकारी बोर्ड की उस अहम बैठक में भारत ने न सिर्फ पाकिस्तान को दिए जा रहे कर्ज का विरोध किया, बल्कि वोटिंग से भी दूर रहा—एक सशक्त विरोध के तौर पर। भारत ने साफ कहा, पाकिस्तान न सिर्फ एक बेहद बड़ा कर्जदार है, बल्कि उसका ट्रैक रिकॉर्ड इतना खराब है कि उसे दी गई कोई भी आर्थिक सहायता सीधे-सीधे आतंकवादी गतिविधियों में बदल सकती है। और सबसे चिंताजनक बात ये है कि IMF ने भारत के सारे तर्कों को जानते हुए भी, पाकिस्तान को 1 अरब डॉलर की राशि जारी कर दी।
पाकिस्तान के प्रधानमंत्री कार्यालय ने इस डील को ऐसे प्रोजेक्ट किया, जैसे IMF ने उनके देश पर भरोसा जताया हो और भारत सिर्फ उनके विकास को रोकने की कोशिश कर रहा हो। पीएमओ ने दावा किया कि आर्थिक स्थिति सुधर रही है और पाकिस्तान विकास की राह पर आगे बढ़ रहा है। लेकिन क्या वास्तव में ऐसा है? या फिर यह बयान मात्र एक राजनीतिक मुखौटा है, जो अंतरराष्ट्रीय दबाव को भ्रम में डालने की कोशिश कर रहा है?
भारत का विरोध सिर्फ एक देश के रूप में नहीं था—बल्कि एक जिम्मेदार Global partner के रूप में था, जो मानता है कि आतंकवाद को फंडिंग देना, चाहे वह direct हो या indirect, मानवता के खिलाफ अपराध है। भारत ने IMF को याद दिलाया कि पाकिस्तान पिछले 35 वर्षों में 28 बार कर्ज ले चुका है, और हर बार उस पैसे का इस्तेमाल या तो सेना को मजबूत करने, या फिर आतंकवाद को बढ़ावा देने में हुआ है। ऐसे में नया कर्ज देना, एक तरह से आतंकी ढांचे को पुनर्जीवित करना है।
इस मुद्दे पर भारत ने अपनी ओर से हर संभव प्रयास किया। IMF की वोटिंग प्रणाली में सदस्य देश विरोध में वोट नहीं कर सकते—या तो समर्थन देते हैं या अनुपस्थित रहते हैं। भारत ने अनुपस्थित रहकर अपनी असहमति दर्ज कराई। यह तरीका दुनिया को दिखाने के लिए पर्याप्त था कि भारत इस निर्णय से खुद को अलग करता है, और इसके परिणामों की जिम्मेदारी लेने से भी इंकार करता है।
आश्चर्यजनक बात यह है कि IMF खुद भी इस बात को मानता है कि पाकिस्तान का ट्रैक रिकॉर्ड खराब है। IMF की अपनी ही मूल्यांकन रिपोर्ट में यह बात कही गई है कि पाकिस्तान को दी जा रही वित्तीय सहायता में राजनीतिक दखल होता है, जिससे IMF की निष्पक्षता पर सवाल उठते हैं। यहां तक कि रिपोर्ट में यह भी कहा गया कि बार-बार राहत पैकेज देने से पाकिस्तान का कर्ज बोझ इतना बढ़ गया है कि, IMF खुद अब फंसा हुआ महसूस करता है—क्योंकि अगर वह सहायता देना बंद करता है तो पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था पूरी तरह ध्वस्त हो सकती है।
भारत ने इस बहस में एक और अहम पहलू जोड़ा—पाकिस्तान में सेना की भूमिका। भारत ने स्पष्ट किया कि पाकिस्तानी सेना न सिर्फ सुरक्षा मामलों में, बल्कि आर्थिक फैसलों में भी मुख्य भूमिका निभाती है। वहां की कई प्रमुख कंपनियां और निवेश निर्णय सेना द्वारा नियंत्रित होते हैं। ऐसे में सुधार के नाम पर दिया गया कर्ज, अंततः उन्हीं हाथों में जाता है जो सीमा पार भारत के खिलाफ आतंकी गतिविधियों को समर्थन देते हैं।
भारत ने तर्क दिया कि ऐसे में IMF की यह सहायता केवल एक रकम नहीं, बल्कि उस नेटवर्क की फंडिंग बन सकती है जो भारत समेत दुनिया के कई देशों के लिए खतरा बन चुका है। भारत की ओर से दिए गए बयानों को IMF ने संज्ञान में तो लिया, लेकिन अंततः फैसला पाकिस्तान के पक्ष में गया।
अब सवाल ये है कि पाकिस्तान इस एक अरब डॉलर का क्या करेगा? क्या यह रकम स्वास्थ्य, शिक्षा, और रोज़गार के लिए खर्च होगी? या फिर इसकी एक बड़ी मात्रा सैन्य प्रतिष्ठानों, आतंकी नेटवर्क और Global एजेंडे को आगे बढ़ाने में झोंक दी जाएगी? अगर इतिहास पर भरोसा करें, तो जवाब डराने वाला ही मिलेगा।
Financial analysts का मानना है कि IMF का यह कदम ना सिर्फ पाकिस्तान को एक अस्थायी राहत देगा, बल्कि उसे अपने कर्ज जाल से बाहर निकलने के लिए किसी long term योजना की आवश्यकता नहीं होगी। जब भी संकट आता है, पाकिस्तान IMF का दरवाजा खटखटाता है और कुछ समय बाद फिर वही कहानी दोहराई जाती है—कर्ज, गलत उपयोग, आर्थिक गिरावट, फिर कर्ज। यह एक साइकिल बन चुकी है और भारत जैसे देशों के लिए यह चिंता का विषय है।
कांग्रेस पार्टी ने इस पूरे प्रकरण पर नरेंद्र मोदी सरकार की आलोचना की और कहा कि भारत को वोटिंग में “न” कहना चाहिए था। कांग्रेस महासचिव जयराम रमेश ने याद दिलाया कि पार्टी पहले ही केंद्र सरकार से इस कर्ज के खिलाफ वोट देने की मांग कर चुकी थी। उनका कहना था कि अनुपस्थित रहना एक नरम विरोध है, जबकि “ना” कहने से एक मजबूत और स्पष्ट संदेश जाता। लेकिन कूटनीतिक प्रोटोकॉल और अंतरराष्ट्रीय मंचों की सीमाओं के चलते भारत ने, वह रास्ता चुना जो नियमों के भीतर रहकर भी अपनी असहमति दर्ज कर सके।
इस पूरी कहानी में एक और बड़ा पहलू है—IMF जैसी संस्थाओं की साख। अगर बार-बार उन्हीं देशों को बिना जवाबदेही के कर्ज दिया जाता है जो उसे ग़लत हाथों में सौंपते हैं, तो विश्व समुदाय का विश्वास कमजोर पड़ सकता है। भारत ने IMF से यह भी कहा कि आतंकवाद को बढ़ावा देने वाले देशों को फंड देना, उन अंतरराष्ट्रीय संगठनों की भी प्रतिष्ठा को धूमिल करता है जो मानवता की भलाई के लिए बने हैं।
अब सवाल उठता है कि भारत का अगला कदम क्या होगा? क्या भारत अब IMF जैसी संस्थाओं में अपने प्रभाव को और मजबूत करने की रणनीति बनाएगा? या फिर पाकिस्तान को Global forums पर घेरने की दिशा में और कड़े कदम उठाएगा? कूटनीति का खेल सिर्फ शब्दों तक सीमित नहीं होता—यह रणनीतियों, साझेदारियों और समय की नब्ज पहचानने की कला भी है।
भविष्य में अगर पाकिस्तान को आतंकवाद के लिए दी गई फंडिंग से कोई नुकसान होता है, तो भारत पहले से ही दुनिया को आगाह कर चुका होगा। भारत ने आज सिर्फ एक वोटिंग से दूरी नहीं बनाई—बल्कि एक चेतावनी दी है। चेतावनी उस दिन की, जब किसी हमले के बाद सवाल उठेगा कि आखिर इसे फंड किसने किया? और उस वक्त IMF के दस्तावेज़ों में दर्ज होगा—कि भारत ने पहले ही इन बातों की आशंका जताई थी।
आज की कहानी सिर्फ कर्ज की नहीं है—बल्कि उस भरोसे की है जो दुनिया आतंकवाद के खिलाफ एकजुटता में दिखाना चाहती है। और भारत इस लड़ाई में सिर्फ फ्रंटलाइन देश ही नहीं, बल्कि एक ज़िम्मेदार चेतावनी देने वाला भी है।
Conclusion
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