कल्पना कीजिए एक माँ या पिता की, जो अपने बच्चे को इंटरनेशनल यूनिवर्सिटी में पढ़ाने का सपना देखते हैं। दिन-रात मेहनत कर के जमा किया गया पैसा, बैंक के काउंटर पर खड़े होकर या मोबाइल ऐप के ज़रिए Abroad भेजा जाता है—इस उम्मीद में कि वह रुपया उनके बच्चे के भविष्य को बेहतर बनाएगा। लेकिन एक सच्चाई है जो कहीं चुपचाप उनकी आँखों से ओझल रहती है—हर भेजे गए रुपयों में से कुछ हिस्सा चुपचाप किसी और की जेब में जा रहा है।
वो कोई चोर नहीं, कोई ठग नहीं, बल्कि वही संस्थाएं हैं जिन पर उन्होंने आंख मूंदकर भरोसा किया—बैंक, फॉरेक्स सर्विस और फाइनेंशियल एजेंसियां। यही वो चुपचाप लगने वाला आर्थिक रिसाव है, जो अब 1700 करोड़ रुपये तक पहुँच चुका है… और इससे भी बुरा यह है कि इसका एहसास हमें तब होता है जब बहुत देर हो चुकी होती है। आज हम इसी विषय पर गहराई में चर्चा करेंगे।
आपको बता दें कि पिछले कुछ सालों में Abroad में पढ़ाई करना सिर्फ एक शौक नहीं, बल्कि एक ट्रेंड और सामाजिक दर्जा बन गया है। यह अब सिर्फ उन अमीर घरों तक सीमित नहीं रहा, बल्कि भारत के छोटे शहरों, कस्बों और मध्यम वर्गीय परिवारों से बच्चे अमेरिका, ब्रिटेन, ऑस्ट्रेलिया, कनाडा और जर्मनी की यूनिवर्सिटियों में दाखिला ले रहे हैं।
हर माता-पिता को लगता है कि अगर उनका बच्चा Abroad डिग्री लेकर लौटेगा, तो न केवल उसकी ज़िंदगी सुधरेगी, बल्कि पूरे परिवार की तक़दीर बदल जाएगी। लेकिन बहुत कम लोग जानते हैं कि इस सपने को पूरा करने की कीमत सिर्फ यूनिवर्सिटी की फीस से नहीं चुकाई जा रही… बल्कि उस अनदेखे ‘कट’ से भी, जो हर ट्रांसफर में चुपचाप होता है।
रेडसीर स्ट्रैटेजी कंसल्टेंट्स और वाइज ग्लोबल की साझा रिपोर्ट ने, जब यह चौंकाने वाला डेटा सार्वजनिक किया कि भारतीय माता-पिता ने 2024 में, Abroad में पढ़ रहे अपने बच्चों को पैसे भेजते हुए 1700 करोड़ रुपये सिर्फ छिपे हुए चार्ज—जैसे कि एक्सचेंज रेट मार्जिन और बैंक फीस—में गंवा दिए, तो ये आंकड़ा किसी निजी दुख से कम नहीं लगा। ये वो पैसे थे जो किसी छात्र की मेडिकल इमरजेंसी, लैपटॉप रिप्लेसमेंट या इंटर्नशिप फीस में काम आ सकते थे। ये सिर्फ एक गणना नहीं थी, ये था सपनों का नुकसान, जो किसी को दिखता नहीं लेकिन हर साल दोहराया जाता है।
बैंकों द्वारा काटा गया एक्सचेंज रेट मार्जिन 33.5% तक जाता है। अब मान लीजिए कि एक डॉलर का बाजार रेट 83 रुपये है, तो बैंक उसे 86 या 87 रुपये में देगा। जब ये फर्क 10 से 20 डॉलर पर हो, तब शायद आप अनदेखा कर दें, लेकिन जब साल भर में 20 से 30 लाख रुपये भेजे जाएं, तो ये फर्क 60,000 से 75,000 रुपये तक का नुकसान बन जाता है। और ये सिर्फ एक छात्र का डेटा है। पूरे भारत के छात्रों को जोड़ दिया जाए, तो तस्वीर भयावह हो जाती है। ये पैसे कोई भी परिवार खुशी से नहीं गंवाता, लेकिन जानकारी के अभाव में मजबूरी बन जाती है।
इन ट्रांसफर में देरी एक और बड़ी समस्या है। बैंकों से भेजे गए पैसे अकसर 20 से 25 दिन में पहुंचते हैं। सोचिए, कोई छात्र किसी ज़रूरी फीस की अंतिम तारीख से दो दिन पहले ट्रांसफर रिक्वेस्ट करता है, और पैसे समय पर नहीं पहुंचते—तो उसकी क्लास छूट सकती है, या परीक्षा फॉर्म रिजेक्ट हो सकता है। ये सिर्फ तकनीकी देरी नहीं, ये भावनात्मक और शैक्षिक नुकसान है। हर दिन, हर मिनट एक Abroad छात्र के लिए मायने रखता है।
हर साल भारत से करीब 85,000 से 93,500 करोड़ रुपये इंटरनेशनल एजुकेशन के नाम पर Abroad भेजे जाते हैं। इनमें से 95% रकम पुराने पारंपरिक बैंकिंग सिस्टम से भेजी जाती है। वही बैंकिंग सिस्टम जो अभी भी प्रोसेसिंग चार्ज, SWIFT फीस, एक्सचेंज मार्जिन, और ट्रांसफर डिले जैसे ज़रियों से लाखों परिवारों की जेब ढीली कर रहा है। और दुखद बात ये है कि ज़्यादातर माता-पिता को इसका अहसास तब होता है जब उनका बजट पहले ही टूट चुका होता है।
अब जब रिपोर्ट कहती है कि 2030 तक भारत का इंटरनेशनल एजुकेशन पर खर्च दोगुना हो जाएगा, तो हमें खुद से सवाल करना चाहिए—क्या हम इसी लीक पर चलते रहेंगे? या फिर अब हमें इन “छोटे लेकिन घातक” खर्चों पर भी ध्यान देना शुरू करना चाहिए? क्योंकि ये खर्च समय के साथ सिर्फ बढ़ेंगे, और उनके बोझ तले माता-पिता का सपना दब जाएगा।
2024 में भारत ने अमेरिका को सबसे ज्यादा इंटरनेशनल स्टूडेंट्स भेजने वाले देशों में नंबर वन बना दिया है। भारत ने चीन को पीछे छोड़ा, जो इस रेस में दशकों से आगे था। यह उपलब्धि गर्व की बात है, लेकिन साथ ही यह नए ज़िम्मेदारियों का आह्वान भी है। जब भारत के छात्र ग्लोबल कैम्पस में सबसे बड़ी आबादी बनने जा रहे हैं, तब उनकी शिक्षा का फाइनेंशियल इकोसिस्टम भी उतना ही कुशल, पारदर्शी और सुरक्षित होना चाहिए।
अब सवाल ये है कि माता-पिता इस वित्तीय जाल से कैसे बच सकते हैं? जवाब साफ है—समझदारी, जानकारी और विकल्पों का चुनाव। जब हम किसी यूनिवर्सिटी को चुनते हैं, तो हम उसकी रैंकिंग, कोर्स स्ट्रक्चर, फीस और स्कॉलरशिप को गहराई से समझते हैं। उसी तरह अब ज़रूरत है कि हम फीस ट्रांसफर सिस्टम को भी उतनी ही गंभीरता से लें। क्योंकि जब पैसा ही बहेगा, तो पढ़ाई टिकेगी।
अब बाज़ार में कई फिनटेक कंपनियां हैं जो पारंपरिक बैंकों से बेहतर रेट, कम फीस और फास्ट ट्रांसफर की सुविधा देती हैं। इनके ज़रिए माता-पिता सालाना हजारों से लाखों तक बचत कर सकते हैं। सिर्फ एक बार इनका तुलनात्मक अध्ययन करना होगा, और जो सबसे सुरक्षित, सस्ता और तेज़ विकल्प हो—उसे चुनना होगा।
यह बदलाव लाना सिर्फ पैसों की बात नहीं है, यह एक माइंडसेट शिफ्ट है। हमें तकनीक को सिर्फ बच्चों की पढ़ाई या मोबाइल एप्स तक सीमित नहीं रखना चाहिए। अब वक्त है कि माता-पिता भी तकनीक का इस्तेमाल अपनी ज़िम्मेदारियों को स्मार्ट तरीके से निभाने के लिए करें।
हर वह रुपया जो बच्चे की पढ़ाई पर लगे, वो सीधा भविष्य में निवेश है। लेकिन हर वो रुपया जो छिपे हुए बैंकिंग चार्ज या देरी की वजह से जाया होता है, वो भविष्य से कटौती है। इसीलिए माता-पिता को अब न सिर्फ “कहाँ भेजना है?” सोचना चाहिए, बल्कि “कैसे भेजना है?” ये भी उतना ही ज़रूरी सवाल बन गया है।
ये कहानी सिर्फ एक वित्तीय व्यवस्था की नहीं है, ये उस हर माँ और पिता की कहानी है, जिनकी आँखों में अपने बच्चे के लिए उम्मीद का सपना है। जिन्होंने अपनी सीमाओं से लड़कर, बच्चों को Abroad की ज़मीन पर भेजा—इस यकीन के साथ कि हर भेजा गया रुपया, एक मजबूत नींव रखेगा। अब ज़रूरत है उस नींव को बिना रिसाव, बिना नुकसान, और पूरे सम्मान के साथ मजबूत करने की।
Conclusion
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