Vatican की चमत्कारी अर्थव्यवस्था: टैक्स नहीं, दान से चलता है दुनिया का सबसे छोटा देश! 2025

एक ऐसा देश, जो दुनिया के सबसे शक्तिशाली राष्ट्राध्यक्षों के सामने भी सम्मान और श्रद्धा का प्रतीक बना हुआ है, लेकिन खुद आर्थिक तंगी की उस हालत से जूझ रहा है, जहां उसे अपनी ऐतिहासिक प्रॉपर्टीज तक बेचनी पड़ सकती हैं। एक ऐसा देश, जिसकी साख तो विश्वभर में है लेकिन खजाना खाली हो चला है। यह कहानी है Vatican सिटी की—दुनिया का सबसे छोटा देश, जिसकी अर्थव्यवस्था पूरी तरह दान पर टिकी है।

और अब, जब दान घट रहा है और खर्च बढ़ता जा रहा है, तो सवाल उठता है—क्या वाकई एक संप्रभु राष्ट्र केवल श्रद्धा के आधार पर खुद को चला सकता है? या फिर Vatican को भी अब दुनिया के बाकी देशों की तरह कठोर आर्थिक फैसले लेने होंगे? अगर Vatican सिटी का बजट ही टिकाऊ न रहा, तो क्या यह धर्म और आस्था का वैश्विक केंद्र अपनी आत्मनिर्भरता बनाए रख पाएगा? आज हम इसी विषय पर गहराई में चर्चा करेंगे।

Vatican सिटी, जो महज 44 हेक्टेयर क्षेत्र में बसी है, यूरोप के दिल में स्थित है और कैथोलिक धर्म का केंद्र मानी जाती है। पोप का निवासस्थान होने के कारण इसकी धार्मिक और सांस्कृतिक प्रतिष्ठा बहुत ऊंची है। लेकिन हालात अब ऐसे बन गए हैं कि Vatican को अपनी अर्थव्यवस्था चलाना एक चुनौती लगने लगा है।

कोई टैक्स नहीं, कोई बॉन्ड नहीं, और अधिकांश आमदनी सिर्फ दान और टिकटों से—इस व्यवस्था ने इसे अब तक संभाले रखा, लेकिन अब यह मॉडल डगमगाने लगा है। अगर यह देश, जो पूरी दुनिया के 1.3 अरब कैथोलिकों का प्रतिनिधित्व करता है, आर्थिक रूप से अस्थिर हो जाए तो इसका असर केवल स्थानीय नहीं बल्कि वैश्विक स्तर पर महसूस किया जाएगा।

2021 में Vatican की कुल आय 87.8 करोड़ डॉलर थी, लेकिन खर्च उससे कहीं अधिक रहा। इसका मतलब है कि साल दर साल घाटा बढ़ता जा रहा है। और यही कारण है कि पोप लियो 14वें के सामने अब सबसे बड़ी चुनौती यही है—इस आध्यात्मिक केंद्र को आर्थिक रूप से कैसे बचाया जाए? यह सवाल केवल वैटिकन के भविष्य का नहीं, बल्कि उस पूरे वैश्विक धार्मिक विश्वास का है जो इस संस्था से जुड़ा हुआ है। अगर Vatican अपनी आर्थिक नींव को नहीं संभाल पाया, तो यह उस नैतिक शक्ति को भी कमजोर कर सकता है जो दशकों से इसे अंतरराष्ट्रीय मंच पर एक विशेष पहचान देती आई है।

Vatican के पास दान पाने के दो प्रमुख स्रोत हैं। पहला है कैनन कानून के तहत बिशपों द्वारा किया जाने वाला वार्षिक भुगतान, और दूसरा है ‘पीटर्स पेंस’ नामक एक विशेष दान अभियान, जो जून के अंतिम रविवार को दुनिया भर के चर्चों में आयोजित होता है।

2.2 करोड़ डॉलर की सालाना आमदनी में से एक तिहाई से अधिक अमेरिका से आता है, वहीं ‘पीटर्स पेंस’ के तहत अमेरिका से ही औसतन 2.7 करोड़ डॉलर का योगदान मिलता है—जो वैश्विक दान का आधा से भी ज्यादा है। लेकिन इन दोनों स्रोतों में पिछले कुछ वर्षों से गिरावट आई है, जो चिंता का विषय है। अगर यही प्रवृत्ति जारी रही, तो Vatican को अपनी आर्थिक संरचना में भारी बदलाव लाना पड़ेगा, जिससे इसकी स्वतंत्रता और परंपरा पर असर पड़ सकता है।

गिरते दान के पीछे कई कारण हैं। अमेरिका और यूरोप में चर्च में जाने वालों की संख्या लगातार घट रही है। धार्मिक विश्वासों में बदलाव और युवाओं का धर्म से दूर होना इसका एक बड़ा कारण है। इसके अलावा, चर्च के भीतर हुई वित्तीय और यौन शोषण जैसी विवादित घटनाओं ने भी लोगों के विश्वास को प्रभावित किया है। नतीजा यह है कि अब लोग Vatican को पहले की तरह खुले मन से दान नहीं देते। इसके साथ ही, कोविड जैसी महामारी के बाद आर्थिक अस्थिरता के चलते भी लोग दान देने में सतर्क हो गए हैं। एक समय में जो योगदान श्रद्धा से आता था, वह अब संदेह और विवेक से जुड़ गया है।

चर्च की अपनी संस्थाएं, जो पहले Vatican को आर्थिक सहयोग देती थीं, अब वे भी अपना योगदान कम कर रही हैं। और यही कारण है कि वैटिकन को अब अपनी संपत्तियों की ओर देखना पड़ रहा है। Vatican के पास इटली में करीब 4,249 संपत्तियां हैं, और लंदन, पेरिस, जिनेवा व स्विट्जरलैंड जैसे शहरों में 1,200 से ज्यादा प्रॉपर्टीज हैं।

लेकिन इनमें से सिर्फ 20% ही मार्केट रेट पर किराए पर दी गई हैं। 70% से ज्यादा प्रॉपर्टीज से कोई आमदनी नहीं होती क्योंकि उनमें वैटिकन या चर्च के अन्य कार्यालय हैं, और 10% संपत्तियां कम किराए पर वैटिकन कर्मचारियों को दी गई हैं। इन संपत्तियों की सही तरीके से मॉनिटाइजेशन न होना, एक ऐसी समस्या है जो वैटिकन की आर्थिक कमजोरी को और बढ़ा रही है।

इन संपत्तियों से 2023 में केवल 4 करोड़ डॉलर की income हुई—जो Vatican जैसे संस्थान के लिए बहुत ही कम है। अमेरिका स्थित पापल फाउंडेशन के अध्यक्ष वार्ड फिट्जगेराल्ड ने भी यह बात मानी है कि Vatican को अब कुछ ऐसी प्रॉपर्टीज बेचनी पड़ सकती हैं, जिनका रखरखाव बहुत महंगा है और जो कोई income नहीं दे रहीं।

लेकिन सवाल उठता है—क्या Vatican, जो धर्म और परंपरा का गढ़ माना जाता है, इतनी बड़ी आर्थिक मजबूरी में आकर अपनी सांस्कृतिक और ऐतिहासिक विरासत को बेचने को तैयार हो जाएगा? अगर यह होता है, तो यह केवल एक आर्थिक निर्णय नहीं होगा, बल्कि यह पूरी दुनिया को यह भी दिखाएगा कि श्रद्धा के स्तंभ भी आर्थिक तानों-बानों पर निर्भर हैं।

रॉबर्ट गहल, जो अमेरिका की कैथोलिक यूनिवर्सिटी में चर्च मैनेजमेंट प्रोग्राम के निदेशक हैं, उन्होंने स्पष्ट कहा है कि अब लियो को अमेरिका के बाहर से भी दान जुटाने की कोशिश करनी होगी। लेकिन यह काम आसान नहीं है। यूरोप और बाकी देशों में व्यक्तिगत परोपकार की संस्कृति और टैक्स इंसेंटिव्स उतने प्रभावी नहीं हैं जितने अमेरिका में हैं। और यही वजह है कि Vatican के लिए फंडरेजिंग एक चुनौतीपूर्ण कार्य बन गया है। उसे एक ऐसी वैश्विक रणनीति बनानी होगी, जो नई पीढ़ियों को जोड़ सके, डिजिटल प्लेटफॉर्म्स का उपयोग कर सके और पारदर्शिता बनाए रखते हुए विश्वास फिर से कायम कर सके।

इस पूरी स्थिति को समझने के लिए हमें वैटिकन की अर्थव्यवस्था की जड़ों में जाना होगा। वैटिकन का पूरा प्रशासन ‘होली सी’ नाम की संस्था के तहत चलता है, जो रोमन कैथोलिक चर्च का केंद्रीय प्रशासन है। इसकी income का बड़ा हिस्सा अब म्यूजियम टिकट्स, Investments से होने वाली income और प्रॉपर्टी रेंट से आता है। लेकिन पर्यटन पर निर्भर यह income कोविड जैसी वैश्विक आपदाओं के चलते गड़बड़ा गई थी, और अब भी पूरी तरह पटरी पर नहीं आई है। इसके अलावा वैश्विक वित्तीय बाजारों में उतार-चढ़ाव ने Investment income को भी अस्थिर कर दिया है, जिससे वैटिकन के पास स्थायी आमदनी के स्त्रोत सीमित होते जा रहे हैं।

तो फिर आगे क्या? क्या वैटिकन को एक मॉडर्न इकोनॉमिक सिस्टम अपनाना चाहिए? क्या उसे टैक्स प्रणाली शुरू करनी चाहिए? क्या उसे प्रॉपर्टी बेचकर लॉन्ग टर्म इनवेस्टमेंट की ओर बढ़ना चाहिए? या फिर क्या धार्मिक श्रद्धा के नाम पर दुनिया के कैथोलिक समुदाय को एक नई अपील जारी करनी चाहिए? ये सारे सवाल अब पोप लियो के सामने हैं, और हर फैसला वैटिकन के अस्तित्व से जुड़ा है। उसे संतुलन बनाना होगा—आस्था और यथार्थ के बीच, परंपरा और नवाचार के बीच। और यह संतुलन तभी संभव है जब नेतृत्व दूरदृष्टि और साहस के साथ निर्णय ले।

Conclusion

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