UPSC की सच्चाई: 99.9% फेल होते हैं, फिर भी क्यों बेच रहा है युवा अपना सपना? संजीव सान्याल का आंखें खोल देने वाला बयान!

एक पिता अपनी सारी जमा पूंजी लगाकर बेटे को दिल्ली के मुखर्जी नगर भेजता है… उम्मीद होती है कि बेटा ‘कलेक्टर’ बनेगा… गांव लौटेगा तो गर्व से लोग कहेंगे—”ये है हमारा लाल!” लेकिन क्या हो अगर 5 साल, 10 साल बीत जाएं, और एक दिन वो बेटा ही टूटकर कहे—“पापा, शायद मैं ही काबिल नहीं हूं…” सोचिए, उस वक्त उस पिता की आंखों में क्या गुज़रती होगी?

और क्या वह बेटा वाकई नाकाबिल था… या सिस्टम ने उसे ऐसी दौड़ में धकेल दिया था, जिसमें जीतने वाला सिर्फ एक होता है… और हारने वालों की कोई गिनती नहीं? यही सवाल उठाया है भारत के टॉप इकनॉमिस्ट और प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद के सदस्य संजीव सान्याल ने… और उन्होंने जो कहा है, वो सिर्फ एक राय नहीं—बल्कि एक चेतावनी है, एक आइना है देश के उस हिस्से के लिए, जिसे हम ‘कोचिंग कल्चर’ कहते हैं। आज हम इसी विषय पर गहराई में चर्चा करेंगे।

संजीव सान्याल ने UPSC क्रेज को ‘अफीम’ कह दिया है। जी हां, अफीम। उनका कहना है कि यह एक ऐसा नशा है, जिसे कोचिंग माफिया युवाओं को बेच रहा है… और वो भी पूरे होशोहवास में। लाखों युवाओं को एक ऐसा सपना दिखाया जा रहा है, जो हकीकत में 99.9% के लिए कभी पूरा नहीं होता। और चौंकाने वाली बात यह है कि इस नशे में सबसे तेज़, सबसे समझदार, सबसे टैलेंटेड लोग फंसे हुए हैं।

जब कोई गरीब घर का लड़का कहता है कि वह आईएएस बनना चाहता है, तो पूरा मोहल्ला तालियां बजा देता है। लेकिन कोई यह नहीं पूछता कि वह कब तक इस सपने के पीछे भागेगा? कब तक किराये के कमरे में दिन-रात रट्टा मारता रहेगा? और जब वो हार जाता है, तो समाज चुपचाप दूसरी दिशा में मुंह मोड़ लेता है। सान्याल इसी चुप्पी को तोड़ रहे हैं। उन्होंने कहा है कि UPSC की तैयारी कर रहे 99.9% छात्र असफल होते हैं। फिर भी हर साल लाखों छात्र इस ‘असंभव’ सफर पर निकलते हैं।

वो पूछते हैं—क्यों? क्यों भारत के सबसे होशियार युवा अपने जीवन के 5 से 10 साल उस परीक्षा में लगाते हैं, जिसकी सफलता दर Entrepreneurship से भी कम है? जब उनसे पूछा गया कि क्या वो सिविल सेवा की आलोचना कर रहे हैं, तो उनका जवाब बहुत साफ था—”मुझे उन लोगों से कोई दिक्कत नहीं जो सच में सिविल सर्वेंट बनना चाहते हैं। लेकिन मुझे उस कल्चर से दिक्कत है, जो हर होनहार युवा को इसी एक रास्ते पर धकेलता है।”

वो इस पूरी व्यवस्था को ‘कोचिंग क्लास माफिया’ कहते हैं। उनकी नज़र में यह एक ऐसा धंधा बन चुका है, जो केवल उम्मीद बेचता है। हर साल लाखों स्टूडेंट्स मुखर्जी नगर, राजेन्द्र नगर और देश के कोने-कोने में फैले कोचिंग सेंटरों में एडमिशन लेते हैं। हजारों रुपये महीने की फीस, नोट्स, टेस्ट सीरीज़, टॉपर्स की कहानियां, यूट्यूब पर मोटिवेशनल वीडियो—हर चीज़ मिलती है, सिवाय उस ‘सच्चाई’ के, जो बताती है कि इस रेस में 99.9% को मंज़िल नहीं मिलती।

सान्याल इसे सिर्फ शिक्षा या परीक्षा का मुद्दा नहीं मानते। उनके अनुसार, यह ‘मानव संसाधन की बर्बादी’ है। जब देश को वैज्ञानिकों, उद्यमियों, लेखकों, खिलाड़ियों और इनोवेटर्स की ज़रूरत है, तब हमारे सबसे प्रतिभाशाली युवा सालों तक एक ही किताबों के ढेर में उलझे रह जाते हैं—लक्ष्य सिर्फ एक सीट… एक पद… एक पहचान। और जब वो नहीं मिलती, तो आत्मविश्वास, सपने और जुनून सब चकनाचूर हो जाते हैं।

इसलिए सान्याल ने एक साहसिक सलाह दी है—“एलन मस्क बनो।” हां, उन्होंने कहा कि अगर आपके अंदर टैलेंट है, तो उसे किसी सिस्टम में समाने के बजाय, एक सिस्टम बनाने में लगाओ। सोचो, कुछ ऐसा करो जो लाखों ज़िंदगियां बदल सके। उन्होंने तुलना की—“Entrepreneurship में सफलता की दर 0.1% से कहीं ज्यादा है।” लेकिन कोचिंग माफिया इस बात को कभी प्रचारित नहीं करेगा, क्योंकि उसका धंधा तो इसी भ्रम पर टिका है।

वो कहते हैं कि यह ‘आकांक्षा की गरीबी’ है। यानी सपने देखने की गरीबी नहीं, बल्कि सपनों की दिशा की कमी। अगर किसी को कविता में रुचि है, गाने में टैलेंट है, टेक्नोलॉजी में पैशन है—तो उसे क्यों जबरन एक ऐसी दिशा में मोड़ा जाए, जहां से निकलना खुद को खो देने जैसा हो?

सान्याल ने एक पॉडकास्ट में चार्टर्ड अकाउंटेंट कुशल लोढ़ा से बात करते हुए इस मुद्दे को विस्तार से रखा। उन्होंने कहा कि औसत छात्र नहीं, बल्कि सबसे टैलेंटेड छात्र इस जाल में फंसते हैं। क्योंकि परिवार, समाज, शिक्षक—सबको लगता है कि होशियार बच्चा तो ‘आईएएस’ ही बनेगा। और इसी सोच में हम सबसे बेहतरीन लोगों को एक ऐसी जगह फिक्स कर देते हैं जहां नतीजा मिलने की संभावना सिर्फ 0.1% है।

वो कहते हैं कि कुछ लोग तो कैबिनेट सचिव तक पहुंचते हैं, जो देश की सबसे ऊंची नौकरशाही की पोस्ट होती है। लेकिन उनमें से भी अधिकतर लोग ऐसे काम करते हैं, जो रोमांचक या परिवर्तनकारी नहीं होते। सिर्फ पद बड़ा होता है, काम नहीं। सवाल ये है कि क्या हम अपने देश के सबसे होनहार लोगों को सिर्फ फाइलों के ढेर में उलझाने के लिए तैयार कर रहे हैं?

कोचिंग माफिया का मॉडल भी बेहद खतरनाक है। वो लोगों को ‘सपना’ बेचते हैं—एक ऐसा सपना जो कभी पूरा नहीं होता। वो जानते हैं कि हर साल 10 लाख छात्र आएंगे, उनमें से 9.99 लाख फेल होंगे, लेकिन अगली खेप फिर तैयार खड़ी होगी। और यह सिलसिला चलता रहता है… बिना कोई सवाल किए, बिना कोई विकल्प सुझाए।

कोचिंग माफिया का मॉडल

यह कोई इमोशनल बहस नहीं है। यह एक इकोनॉमिक, सोशल और साइकोलॉजिकल रियलिटी है। देश की अर्थव्यवस्था के लिए यह गंभीर खतरा है। जब इतने सारे युवा, जो वैज्ञानिक हो सकते थे, एंटरप्रेन्योर बन सकते थे, सिर्फ एक परीक्षा में फेल होकर खुद को फेल मान लेते हैं—तो यह पूरे देश के लिए नुकसान है।

सान्याल का इशारा सिर्फ यूपीएससी तक सीमित नहीं था। जब उनसे पूछा गया कि क्या CAT जैसी परीक्षाएं, जहां लाखों लोग कुछ सौ IIM सीटों के लिए मुकाबला करते हैं, भी इसी श्रेणी में आती हैं—तो उन्होंने कहा कि वहां एक फर्क है। CAT देने वाले अक्सर उस चक्र में 5 से 6 साल तक नहीं फंसे रहते। वो आगे बढ़ जाते हैं, कोई दूसरी राह पकड़ लेते हैं। लेकिन यूपीएससी का कल्चर ‘लाइफ स्टाइल’ बन चुका है—जहां तैयारी ही ज़िंदगी बन जाती है, और असफलता को ‘किस्मत’ कहकर सह लिया जाता है।

इस कल्चर की सबसे बड़ी विडंबना यह है कि जो लोग इससे निकल नहीं पाते, वो खुद को दोष देने लगते हैं। उन्हें लगता है कि वो ही कमज़ोर हैं, नाकाबिल हैं, जबकि हकीकत यह है कि उन्हें एक ऐसी दौड़ में धकेला गया, जो उनके लिए बनी ही नहीं थी। और जो निकल जाते हैं, उनमें से कई लोग अपने काम से खुश नहीं होते… उन्हें कभी यह एहसास होता है कि उन्होंने अपने सपनों की कीमत पर यह पद पाया है।

सान्याल का ये कहना कि “यूपीएससी अफीम है”—सिर्फ एक वाक्य नहीं है। यह एक पूरा दर्शन है, एक पूरी व्यवस्था पर कटाक्ष है, जो आज के युवाओं को ‘आसान दिखने वाले मुश्किल रास्तों’ पर चलने को मजबूर करती है। वो चाहते हैं कि युवा अपनी ऊर्जा, समय और टैलेंट को उन जगहों पर लगाएं जहां समाज, देश और खुद उनकी ज़िंदगी बेहतर हो सके।

क्या इसका मतलब ये है कि सिविल सर्विस बेकार है? नहीं। सान्याल खुद कहते हैं कि अगर किसी की सच्ची रुचि है, पैशन है तो वो ज़रूर जाए। लेकिन इसे इकलौता रास्ता मान लेना, और समाज का उस पर दबाव बनाना—यही सबसे बड़ा खतरा है।

यह कहानी सिर्फ एक चेतावनी नहीं… बल्कि एक आंख खोलने वाली अपील है। एक ऐसा देश जो युवा जनसंख्या की ताकत पर गर्व करता है, उसे यह भी सोचना होगा कि क्या वह उन युवाओं की ऊर्जा को सही दिशा दे रहा है? या फिर उन्हें एक ‘प्रमुख पद’ के नाम पर सपनों का व्यापारी बना दिया गया है?

इसलिए अगली बार जब आप किसी बच्चे को कहते सुनें कि “मैं यूपीएससी की तैयारी कर रहा हूं…” तो उससे ये भी पूछें—“तुम्हारा सपना क्या है?” क्योंकि हो सकता है, वो सपना कहीं और हो… और जो रास्ता वो चुन रहा है, वो सिर्फ समाज की उम्मीदों की गूंज हो, उसकी अपनी नहीं।

और अगर आप खुद इस दौड़ में हैं—तो रुकिए, सोचिए… क्या आप ये रास्ता अपने दिल से चुन रहे हैं? या फिर ये रास्ता आपको दिया गया है? क्या आप अफीम के नशे में हैं… या किसी असली सपने की तलाश में? क्योंकि ज़िंदगी सिर्फ एक एग्ज़ाम नहीं होती… वो एक मिशन होती है—जो आपके पैशन से शुरू होती है, न कि एक कोचिंग सेंटर की टेस्ट सीरीज़ से।

Conclusion

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