कल्पना कीजिए, आप एक अच्छी नौकरी कर रहे हैं, बड़ी कंपनी में काम करते हैं, समय पर टैक्स भरते हैं, और अपने दम पर जीवन जी रहे हैं। लेकिन जैसे ही आप एक नए शहर में किराए पर घर ढूंढ़ने निकलते हैं, आपको एक-एक दरवाज़ा खटखटाना पड़ता है, और हर बार एक ही जवाब मिलता है—”माफ कीजिए, बैचलर्स को घर नहीं देते।” क्यों? क्योंकि आप अविवाहित हैं। न अपराधी, न चोर, न बुरे इरादों वाले—सिर्फ एक Single रहने वाले इंसान। ये कहानी किसी एक की नहीं है, ये उस हर युवा की है जो आत्मनिर्भर बनना चाहता है… लेकिन समाज उसे शक की नज़रों से देखता है। आज हम इसी विषय पर गहराई में चर्चा करेंगे।
ग्रेटर नोएडा वेस्ट की चमचमाती सोसायटीज़ की ऊंची इमारतें जितनी खूबसूरत दिखती हैं, अंदर का सिस्टम उतना ही पेचीदा है। गौड़ सौंदर्यम सोसायटी—जहां कुछ दिन पहले ही यह लिखित फैसला हुआ कि अब किसी भी अविवाहित व्यक्ति को किराए पर फ्लैट नहीं दिया जाएगा। कारण? “बैचलर्स शोर मचाते हैं, सोसायटी की शांति भंग करते हैं, और मर्यादा नहीं रखते।” इन बातों के कोई ठोस प्रमाण नहीं होते, लेकिन धारणाएं मजबूत होती हैं—इतनी मजबूत कि कानून तक इन दीवारों को पार नहीं कर पाता।
बैचलर होना आज के भारत में मानो अपराध बनता जा रहा है। कोई शादीशुदा जोड़ा जब घर खोजने निकले, तो उन्हें ‘परिवार’ माना जाता है। लेकिन वही लड़का अगर अकेला हो, या वही लड़की अगर सिंगल हो, तो उसके किरदार पर सवाल उठाए जाते हैं। उसे किराए पर घर नहीं मिल पाता। नोएडा की एक सोसायटी ने तो बाकायदा बोर्ड लगवा दिया—”बैचलर्स को घर किराए पर नहीं मिलेगा।” कारण बताया गया कि पहले हुई किसी आपराधिक गतिविधि में बैचलर्स शामिल थे। लेकिन क्या समाज का हर अपराध किसी एक वर्ग से जुड़ा होता है?
कुछ सोसायटीज़ अब तो किरायेदार से ‘परिवार की सहमति’ का सर्टिफिकेट भी मांगने लगी हैं—खासतौर पर अगर वह अविवाहित लड़की हो और किसी लिव-इन रिलेशनशिप में रह रही हो। सोचिए, एक लड़की जो स्वतंत्र होकर जीना चाहती है, उसे अपने ही परिवार से लिखवाकर लाना पड़ता है कि “हाँ, हमें कोई ऐतराज नहीं है कि वो अकेली रहे।” क्या ये आधुनिक भारत है? या हम उसी पुराने मानसिकता की कैद में हैं, जहां एक महिला की स्वतंत्रता को ‘संशय’ की नज़रों से देखा जाता है?
सुनीता की कहानी कुछ पुरानी ज़रूर है, लेकिन उस ज़माने की सच्चाई आज भी वैसी ही है। बीस साल पहले प्रयागराज से नोएडा नौकरी करने आईं सुनीता को न सिर्फ अपनी पहली जॉब ढूंढने में मशक्कत करनी पड़ी, बल्कि उससे भी बड़ी चुनौती थी—किराए का घर खोजना। शिफ्ट दोपहर 3 बजे से, घर वापसी रात 12 बजे—लोग कहते थे, “इतनी देर से आने वाली लड़की को घर कैसे दें?” छह महीने तक वो दिल्ली के द्वारका में रिश्तेदार के घर रहीं, रोज़ तीन-चार घंटे का सफर करती रहीं, सिर्फ इसलिए क्योंकि वह एक ‘सिंगल वर्किंग वुमन’ थीं।
और आज? क्या हालात बदल गए हैं? बिल्कुल नहीं। आज भी बैचलर्स के लिए घर ढूंढना उतना ही मुश्किल है जितना दो दशक पहले था। एक लड़की लखनऊ में घर देखने गई, बात लगभग पक्की हो गई थी। लेकिन जैसे ही मकान मालिक को पता चला कि वह अकेली रहेगी और शादीशुदा नहीं है, उसने साफ मना कर दिया—”हमें परेशानियां नहीं चाहिए।”
ये ‘परेशानियां’ आखिर हैं क्या? एक इंसान की स्वतंत्रता? उसकी आज़ादी से जीने की कोशिश? या फिर वो पुरानी सोच जो अब भी दीवारों पर बैठी पहरा दे रही है? सच ये है कि मकान मालिकों का डर सामाजिक धारणाओं से पैदा होता है। उन्हें लगता है कि बैचलर्स शोर करेंगे, दोस्तों को बुलाएंगे, देर रात पार्टी करेंगे। मगर सवाल ये है—क्या हर बैचलर ऐसा होता है? क्या परिवारों में कोई परेशानी नहीं होती? क्या शादीशुदा लोग कभी लड़ाई नहीं करते, नियम नहीं तोड़ते? फिर यह वर्ग विशेष के खिलाफ ऐसा भेदभाव क्यों?
लड़कियों के मामले में तो स्थिति और भी चिंताजनक है। समाज अभी भी उनके चरित्र का मूल्यांकन उनके रहन-सहन से करता है। अगर वो स्वतंत्र हैं, अकेली रहती हैं, अपने फैसले खुद लेती हैं—तो उनके इरादों पर शक किया जाता है। मकान मालिक डरते हैं कि “कहीं सोसायटी की इज्ज़त को नुकसान न पहुंचे।” मगर कोई नहीं पूछता कि उस लड़की की आत्म-सम्मान की कीमत क्या है?
कई बार मकान मालिक खुद तैयार रहते हैं घर देने के लिए, लेकिन सोसायटी के रूल्स-बाय लॉज उन्हें मजबूर कर देते हैं। बिल्डर और एओए के नियमों में लिखा होता है—”बैचलर्स को घर देने से पहले अनुमति लें,” या फिर “बैचलर्स को घर न दिया जाए।” समाज ने एक ही झटके में उन्हें ‘असुरक्षा की वजह’ मान लिया है।
जब सवाल उठता है कि “क्या यह भेदभाव गैरकानूनी है?” तो जवाब संविधान में मिलता है। अनुच्छेद 14 और 15 साफ कहते हैं कि नागरिकों के साथ लिंग, जाति, धर्म या अन्य किसी आधार पर भेदभाव नहीं किया जा सकता। भले ही ‘वैवाहिक स्थिति’ शब्द वहां स्पष्ट न हो, लेकिन ‘अन्य आधार’ में यह जरूर आता है। यानी केवल अविवाहित होने के कारण किसी को किराए पर घर न देना—एक सामाजिक भेदभाव है, जो संविधान के मूल सिद्धांतों का उल्लंघन करता है।
मॉडल टेनेंसी एक्ट 2021 भले ही इस मुद्दे को सीधे तौर पर न छूता हो, लेकिन यह मकान मालिकों को यह अधिकार नहीं देता कि वे अपनी मर्जी से किसी को केवल इस आधार पर नकार दें कि वो सिंगल है। यह एक्ट पारदर्शिता, नियमों की स्पष्टता और किरायेदारों के सम्मान की बात करता है।
कानूनी रूप से किरायेदार सिविल कोर्ट या उपभोक्ता अदालत का दरवाज़ा खटखटा सकते हैं, लेकिन सवाल ये है—कितने लोग ऐसा करते हैं? ज्यादातर युवा कोर्ट-कचहरी के चक्कर में पड़ने की बजाय चुपचाप दूसरा घर खोज लेते हैं, या किसी समझौते में ढल जाते हैं। समाज के डर से वो अपनी आवाज़ नहीं उठाते, और इसी चुप्पी से ये भेदभाव और मजबूत हो जाता है।
ग्रेटर नोएडा वेस्ट जैसे इलाकों में जहां हजारों युवा नौकरी की तलाश में आते हैं, वहां अगर बैचलर्स को फ्लैट न मिले, तो वो कहां जाएंगे? सोसायटीज में 25% तक किरायेदार बैचलर्स हैं—मतलब चौथाई हिस्सा। अगर नए नियमों के तहत इन्हें घर देना बंद कर दिया गया, तो वहां की अर्थव्यवस्था, किराये का बाजार और लोगों की ज़िंदगी—तीनों पर गहरा असर पड़ेगा।
सोचिए, अगर एक पढ़ा-लिखा, आत्मनिर्भर युवा सिर्फ इस वजह से परेशान हो कि वो अकेला है, तो क्या ये समाज की प्रगति है या एक तरह की विफलता? अगर हम अपने ही बच्चों को ये सिखा रहे हैं कि ‘शादी करो तभी समाज तुम्हें स्वीकार करेगा’, तो हम आधुनिकता की बात किस मुंह से कर सकते हैं?
यह सवाल सिर्फ कानूनी नहीं, सामाजिक और नैतिक भी है। क्या हम अपने समाज को इतना परिपक्व बना पाए हैं कि, वो लोगों की निजी जिंदगी में झांकने की बजाय उनके व्यवहार और मूल्यों को देखकर फैसला ले? क्या हम वाकई अपने संविधान की मूल आत्मा को समझ पाए हैं?
इस वीडियो का मकसद सिर्फ समस्या दिखाना नहीं, बल्कि उस बदलाव की शुरुआत करना है जो वर्षों से टलता आया है। अगर आप भी कभी इस भेदभाव का शिकार हुए हैं, तो अपनी कहानी साझा कीजिए—क्योंकि बदलाव तभी होता है जब हर आवाज़ सुनी जाए। और शायद किसी दिन, जब कोई और युवा अकेले शहर में अपना करियर शुरू करने आए, तो उसे दरवाजे बंद न मिलें—बल्कि स्वागत मिलता हुआ समाज मिले।
Conclusion
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