Resilient: Tariff अटैक बना गेमचेंजर! ट्रंप की 245% ड्यूटी से चीन पर दबाव, भारत को मिलेगा बड़ा मौका?

क्या आपने कभी किसी ऐसे ट्रेड वॉर के बारे में सुना है, जहां टैक्स की मार हथियारों से भी ज्यादा खतरनाक हो? क्या आपने कभी सोचा है कि एक विमान की डिलीवरी रुकने से दो महाशक्तियों की अर्थव्यवस्था थर्रा सकती है? और क्या हो अगर सिर्फ एक झटके में किसी देश के हजारों उद्योग बंदी के कगार पर पहुंच जाएं? आज हम आपको एक ऐसी कहानी सुनाने जा रहे हैं, जिसमें नायक भी सुपरपावर है और खलनायक भी।अमेरिका और चीन के बीच यह सिर्फ व्यापार की लड़ाई नहीं है, यह दो वर्ल्ड पावर की Global वर्चस्व की जंग है—जिसका अगला अध्याय लिखा जा चुका है, 245% Tariff के ऐलान के साथ।

इस बार ट्रंप ने जो किया है, वह अब तक के सबसे बड़े और कड़े व्यापारिक हमलों में गिना जा रहा है। अमेरिका ने चीन के सामानों पर 245 प्रतिशत रेसिप्रोकल ड्यूटी लगाने का फैसला किया है, जो किसी भी हालिया टैरिफ नीति से कई गुना अधिक है। इसका मतलब है कि अगर कोई प्रोडक्ट अमेरिका में 100 डॉलर का आता है, तो उस पर अब 245 डॉलर का टैक्स लगेगा। सोचिए, कैसे चीन की कंपनियों को अमेरिकी बाजार से बाहर धकेलने की तैयारी की गई है। व्हाइट हाउस के मुताबिक, यह कदम चीन की उस जवाबी कार्रवाई के खिलाफ उठाया गया है, जिसमें उसने अमेरिका से आने वाले Products—खासकर बोइंग विमानों—की डिलीवरी पर रोक लगा दी।

बोइंग डील का टूटना कोई सामान्य घटना नहीं है। ये डील न सिर्फ अमेरिका की एयरोस्पेस इंडस्ट्री के लिए अरबों डॉलर की उम्मीद थी, बल्कि चीन और अमेरिका के रिश्तों की एक नाजुक डोर भी। लेकिन जैसे ही चीन ने अपनी विमानन कंपनियों को बोइंग से डिलीवरी लेने से मना किया, अमेरिका की प्रतिक्रिया तुरंत और तीखी हो गई। ट्रंप ने अपने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म ‘ट्रुथ’ पर साफ लिखा—चीन अब अमेरिका के साथ व्यापार करने लायक भरोसेमंद पार्टनर नहीं रहा।

इसके साथ ही ट्रंप ने एक और बड़ा कदम उठाया—एक कार्यकारी आदेश पर हस्ताक्षर करके उन्होंने अमेरिका में Import होने वाले, Strategic minerals की जांच का आदेश दे दिया। ये खनिज सिर्फ औद्योगिक उपयोग के नहीं हैं, बल्कि जेट इंजन, मिसाइल, रडार और सुपरकंप्यूटिंग में भी इनका अहम रोल है। अमेरिका का कहना है कि चीन पर इन खनिजों की निर्भरता अब राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा बन चुकी है। यानी मामला अब व्यापार से ऊपर उठ चुका है—यह अब देश की सुरक्षा और आत्मनिर्भरता का मुद्दा बन चुका है।

चीन ने भी इस पर पलटवार किया। उसने अपने टैरिफ 125% तक बढ़ा दिए और सीधे WTO—World Trade Organization—का दरवाजा खटखटाया। चीन का कहना है कि अमेरिका बार-बार टैरिफ बढ़ाकर ग्लोबल ट्रेड रूल्स का उल्लंघन कर रहा है। साथ ही, उसने अमेरिका पर गैलियम, जर्मेनियम और एन्टिमनी जैसे रणनीतिक खनिजों के Export को प्रतिबंधित करने का आरोप लगाया है। चीन का इशारा साफ है—अगर अमेरिका उसे दबाने की कोशिश करेगा, तो वह भी अपने हथियार दिखाने में पीछे नहीं रहेगा।

इस टैरिफ वॉर के बीच चीन ने एक अहम नियुक्ति की है—ली चेंगगांग को वाणिज्य मंत्रालय में अंतरराष्ट्रीय व्यापार प्रतिनिधि नियुक्त किया गया है। ली को WTO में चीन के प्रतिनिधित्व का अनुभव है और उन्हें एक बेहद सख्त लेकिन चतुर रणनीतिकार माना जाता है। ये साफ संकेत है कि चीन अब टेबल पर बातचीत के लिए ऐसे खिलाड़ी को भेजना चाहता है, जो अमेरिका की चालों को समझ सके और जवाब देने में सक्षम हो।

व्हाइट हाउस की प्रेस सचिव कैरोलिन लेविट ने बयान दिया कि राष्ट्रपति ट्रंप अब भी चीन के साथ व्यापार समझौते के लिए तैयार हैं, लेकिन शर्त यह है कि पहल बीजिंग को करनी होगी। अमेरिका चाहता है कि चीन सीधे ट्रंप से बात करे और साफ करे कि, वह टैरिफ वॉर खत्म करना चाहता है या और बढ़ाना। लेकिन चीन की ओर से संकेत ठीक उल्टे हैं।

चीन के पूर्व उप वित्त मंत्री झू गुआंगयाओ ने मीडिया से बातचीत में कहा कि, अगर अमेरिका चाहता है कि चीन उसके सभी प्रस्ताव बिना सवाल के मान ले, तो फिर कोई बातचीत नहीं हो सकती। उन्होंने यह भी बताया कि दोनों देशों की टीमें लगातार संपर्क में हैं, लेकिन यह संपर्क तब तक व्यर्थ है जब तक दोनों पक्षों के हितों को बराबरी से नहीं समझा जाता। चीन अब दबाव में आकर बातचीत करने के मूड में नहीं है, बल्कि वह टेबल पर बराबरी के साथ बैठना चाहता है।

चीन के विदेश मंत्रालय ने भी अमेरिका की रणनीति की कड़ी आलोचना की है। प्रवक्ता झांग शिशियाओगांग ने साफ कहा, “अगर अमेरिका वास्तव में इस विवाद को बातचीत से सुलझाना चाहता है, तो उसे अपनी दबाव बनाने की नीति छोड़नी होगी। व्यापार धमकियों से नहीं, आपसी विश्वास से चलता है।” यह बयान बताता है कि चीन अब न झुकने की नीति पर चलने वाला है।

यह टैरिफ वॉर अब सिर्फ आंकड़ों की लड़ाई नहीं रह गई है। यह एक इकोनॉमिक कोल्ड वॉर बन चुकी है, जिसमें दोनों देश अपने-अपने औद्योगिक हितों, रणनीतिक खनिजों और टेक्नोलॉजी डॉमिनेंस को लेकर आमने-सामने हैं। यह लड़ाई इसलिए भी खतरनाक है क्योंकि यह केवल दो देशों के बीच नहीं, बल्कि पूरी Global सप्लाई चेन को प्रभावित करने वाली है।

अगर अमेरिका में चीन के उत्पाद महंगे हो जाते हैं, तो अमेरिकी कंपनियों को या तो नए सप्लायर्स खोजने होंगे, या फिर प्रोडक्शन खुद अमेरिका में लाना होगा। इसका असर अमेरिका में महंगाई पर पड़ सकता है, लेकिन ट्रंप का फोकस फिलहाल इस बात पर नहीं है। उनका उद्देश्य है—चीन को उसकी जगह दिखाना। वो मानते हैं कि यह दबाव ही चीन को झुकने पर मजबूर करेगा।

दूसरी ओर, चीन भी बैठा नहीं है। उसने गैलियम और जर्मेनियम जैसे खनिजों के Export पर पहले ही नियंत्रण लगा दिया है। ये वे खनिज हैं जिनकी जरूरत दुनिया भर की इलेक्ट्रॉनिक्स, डिफेंस और ग्रीन एनर्जी इंडस्ट्री को है। चीन इस वक्त इन खनिजों का सबसे बड़ा Exporter है, और अगर वह इस Supply को रोकता है तो अमेरिका के तकनीकी क्षेत्र में संकट आ सकता है।

इस जंग में भारत की भूमिका भी अहम हो सकती है। अमेरिका अब वैकल्पिक सप्लायर की तलाश में है और भारत इसमें एक विश्वसनीय पार्टनर बन सकता है। खासकर इलेक्ट्रॉनिक्स, फार्मा और टेक्नोलॉजी में भारत अपनी पैठ मजबूत कर सकता है। लेकिन भारत को संतुलन बनाए रखना होगा, क्योंकि चीन भी उसका बड़ा व्यापारिक पार्टनर है।

अब देखना ये है कि क्या ये टैरिफ वॉर किसी समझौते की ओर बढ़ेगा या फिर ये तनाव किसी बड़े आर्थिक संकट में तब्दील होगा। फिलहाल दोनों देशों की टीमें बात कर रही हैं, लेकिन वास्तविक समाधान तभी निकलेगा जब राजनीतिक इच्छाशक्ति और आपसी समझदारी साथ-साथ चलेगी।

अमेरिका की 245% ड्यूटी एक साफ संदेश है—अब रियायत नहीं, अब दबाव होगा। और चीन का जवाब भी उतना ही तीखा है—अब झुकना नहीं, अब टकराना है। इस लड़ाई में कौन जीतेगा, कौन थमेगा, और किसे नुकसान होगा—ये तो समय बताएगा। लेकिन एक बात तय है—दुनिया की सांसें अब इन दोनों के हर अगले कदम पर अटकी रहेंगी।

Conclusion

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