America की नई शुरुआत? 180 दिनों में 371 कंपनियों का सफाया और ट्रंप की Great Reset रणनीति!

America की चमचमाती इमारतों के पीछे क्या कभी आपने दरारें देखी हैं? वो दरारें जो बाहर से दिखती नहीं, लेकिन भीतर से दीवारों को खोखला कर देती हैं? आज की कहानी ऐसी ही दरारों की है—जो दुनिया की सबसे ताकतवर अर्थव्यवस्था में धीरे-धीरे गहराती जा रही हैं। सोचिए, जहां कभी कंपनियों के नाम से शेयर मार्केट उछलता था, आज वहीं कंपनियां एक-एक कर के बंद हो रही हैं।

पिछले 180 दिनों में, America की 371 बड़ी कंपनियों ने दिवालिया होने की अर्जी लगा दी है। हां, आपने सही सुना—371! और ये आंकड़ा सिर्फ एक नंबर नहीं, बल्कि उस आर्थिक भूचाल की आहट है, जो ट्रंप के ‘मेक America ग्रेट अगेन’ के नारे को सवालों के घेरे में खड़ा कर देता है। आज हम इसी विषय पर गहराई में चर्चा करेंगे।

सवाल ये नहीं है कि कंपनियां क्यों बंद हो रही हैं, सवाल ये है कि क्या यह वही America है जिसकी अर्थव्यवस्था को दुनिया रोल मॉडल मानती थी? America का राष्ट्रीय कर्ज 37 ट्रिलियन डॉलर तक पहुंच चुका है। ये रकम इतनी बड़ी है कि अगर आप हर सेकंड एक डॉलर चुकाना शुरू करें, तो इस कर्ज को चुकाने में आपको लाखों साल लग जाएंगे। और इसी कर्ज को कम करने के लिए राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने जो रास्ता चुना है, वही अब विवादों में आ गया है—Reciprocal Tariffs।

Reciprocal Tariffs यानी बदले के शुल्क। ट्रंप ने दावा किया कि अगर हम अपने देश में आने वाले विदेशी सामानों पर भारी टैक्स लगाएंगे, तो देश के अंदर बनी चीजों की मांग बढ़ेगी। इससे देश की कंपनियां मजबूत होंगी, नौकरियां बढ़ेंगी और टैक्स कलेक्शन के जरिए सरकारी income में इजाफा होगा। लेकिन जमीनी सच्चाई कुछ और ही कहानी बयां कर रही है। एक तरफ इन टैरिफ्स से विदेशी कंपनियों को झटका लगा है, लेकिन दूसरी तरफ घरेलू कंपनियां भी बुरी तरह से टूट रही हैं।

आपको यह जानकर हैरानी होगी कि साल 2024 की पहली छमाही में 335 कंपनियां दिवालिया हुई थीं। लेकिन 2025 के शुरुआती छह महीनों में ये आंकड़ा बढ़कर 371 हो गया। ये पिछले 15 सालों का सबसे खतरनाक ट्रेंड है। जून महीने में अकेले 63 कंपनियों ने बैंकरप्सी के लिए आवेदन किया, वहीं मई में ये संख्या 64 रही। क्या ये सिर्फ संयोग है? या फिर ट्रंप की आर्थिक रणनीति में कोई बुनियादी खामी है?

इस संकट से सबसे ज़्यादा मार झेली है इंडस्ट्रियल सेक्टर ने—जहां 58 कंपनियों को बंद करना पड़ा। इसके बाद कंज्यूमर डिस्क्रिशनरी सेक्टर यानी वो कंपनियां जो ग्राहकों की पसंद से चलती हैं—यहां 50 कंपनियां दिवालिया हो गईं। और हेल्थकेयर सेक्टर जैसी जरूरी सेवाओं वाली इंडस्ट्री में भी 27 कंपनियों को ताला लगाना पड़ा। ये कोई छोटी-मोटी फर्म नहीं थीं—ये वो दिग्गज कंपनियां थीं जो कभी हज़ारों लोगों को रोजगार देती थीं और अमेरिकी सपने का प्रतीक थीं।

तो क्या ट्रंप की रणनीति पूरी तरह फेल हो रही है? जवाब इतना आसान नहीं है। ट्रंप का कहना है कि ये एक लंबी प्रक्रिया है और इसका असर धीरे-धीरे दिखेगा। उनका दावा है कि विदेशों से आने वाला सस्ता सामान अमेरिकी फैक्ट्रियों को नुकसान पहुंचाता है। लेकिन विशेषज्ञों की मानें तो इन टैरिफ्स की वजह से कंपनियों की लागत बढ़ गई है। जिन मटीरियल्स और टेक्नोलॉजीज़ को पहले सस्ते में इम्पोर्ट किया जाता था, अब उन्हीं पर भारी टैक्स लग रहा है, जिससे प्रोडक्शन कॉस्ट बढ़ रही है।

और जब लागत बढ़ती है, तो प्रॉफिट घटता है। और जब प्रॉफिट घटता है, तो कंपनियों के लिए सैलरी देना, इनोवेशन करना और विस्तार करना मुश्किल हो जाता है। यही वजह है कि कंपनियों की हालत बद से बदतर होती जा रही है। एक तरफ ट्रंप का नारा है—“Make America Great Again”—लेकिन दूसरी तरफ वही America आज कंपनियों के ग्रेच्युटी नोटिस से पटा पड़ा है।

साल 2023 में 324 कंपनियों ने दिवालिया घोषित किया था, 2022 में यह आंकड़ा 176 था, और अब 2025 की शुरुआत में ही हमने सारे रिकॉर्ड तोड़ दिए हैं। यहां तक कि 2010 के बाद से पहली बार ऐसा हो रहा है कि साल के पहले छह महीनों में इतनी बड़ी संख्या में कंपनियां बंद हो चुकी हैं। ये आंकड़े सिर्फ इकोनॉमिक रिपोर्ट्स नहीं हैं—ये उस सिस्टम की असफलता का सबूत हैं, जो सिर्फ नीतियों में उलझ गया है लेकिन ज़मीनी हालात समझने से चूक गया।

हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि जब भी कोई कंपनी बंद होती है, तो उसके पीछे छूट जाती हैं हजारों नौकरियां, सपनों के घर, बच्चों की स्कूल फीस, और परिवारों की ज़िंदगी। हर एक दिवालिया कंपनी के साथ एक पूरा इकोसिस्टम ध्वस्त हो जाता है—वेंडर, सप्लायर, डिस्ट्रीब्यूटर और छोटे व्यापारी भी इसकी चपेट में आते हैं। तो यह सवाल अब केवल कॉरपोरेट बोर्डरूम्स तक सीमित नहीं रहा, ये America की हर गली और घर तक पहुंच चुका है।

विशेषज्ञ मानते हैं कि टैरिफ नीति का असर कुछ क्षेत्रों में जरूर पड़ा है, लेकिन इसका पैमाना सीमित है। छोटे स्तर पर कुछ मैन्युफैक्चरिंग यूनिट्स को बढ़ावा मिला है, लेकिन जो बड़े ब्रांड और कॉरपोरेट स्ट्रक्चर हैं, वे इस नीति के बोझ तले दम तोड़ रहे हैं। खासकर हेल्थकेयर सेक्टर की 27 कंपनियों का दिवालिया होना एक ऐसा अलार्म है जिसे अनदेखा नहीं किया जा सकता। जब अस्पताल, दवा कंपनियां और हेल्थ टेक स्टार्टअप्स खुद को ज़िंदा नहीं रख पा रहे, तो आम आदमी की सेहत पर क्या असर पड़ेगा—सोचिए।

अर्थशास्त्रियों का कहना है कि सरकार को अब नए विकल्पों पर विचार करना चाहिए। सिर्फ टैरिफ लगाकर America को ग्रेट नहीं बनाया जा सकता। अमेरिका की मजबूती उसकी कंपनियों, इनोवेशन, और उद्यमियों की आज़ादी में रही है। लेकिन जब वही कंपनियां दबाव में दम तोड़ने लगें, तो पूरा ढांचा हिल जाता है। और यही आज हो रहा है।

ट्रंप की नीतियों के समर्थक कहते हैं कि यह एक टेम्पररी फेज़ है और जल्द ही America मजबूत होकर उभरेगा। हो सकता है ऐसा हो। लेकिन जब हर दिन कंपनियों के शटर गिरते जाएं, और हर हफ्ते सैकड़ों लोग बेरोजगार होते जाएं—तो जनता का भरोसा भी गिरने लगता है। और जब भरोसा गिरता है, तो केवल अर्थव्यवस्था नहीं, लोकतंत्र भी डगमगाने लगता है।

ऐसे में सवाल यही है—क्या सिर्फ “रेसिप्रोकल टैरिफ” से America का भविष्य सुरक्षित है? क्या इस नीति ने सच में foreign investment रोका है? या फिर अमेरिका खुद अपनी कंपनियों का दम घोंट रहा है? शायद जवाब कहीं बीच में है। लेकिन एक बात तो तय है—अगर 371 कंपनियों के डूबने के बाद भी सरकार अपनी नीति को अडजस्ट नहीं करती, तो नुकसान और बढ़ेगा।

आज दुनिया America को देखकर सीखती है—लेकिन अब वही दुनिया यह भी देख रही है कि America अपने ही आर्थिक वादों पर कितना खरा उतरता है। ‘मेक America ग्रेट अगेन’ सिर्फ एक नारा नहीं, एक जिम्मेदारी है। और अगर कंपनियां हर छह महीने में सैकड़ों की संख्या में बंद होती रहीं, तो यह जिम्मेदारी बहुत भारी पड़ सकती है।

आपका क्या मानना है? क्या ट्रंप की टैरिफ नीति सही दिशा में है या America को किसी नए रास्ते की ज़रूरत है? क्या 37 ट्रिलियन डॉलर का कर्ज सिर्फ टैक्स से कम किया जा सकता है या इसके लिए एक पूरी आर्थिक क्रांति की जरूरत है? ये सवाल अब सिर्फ व्हाइट हाउस तक सीमित नहीं, बल्कि आम अमेरिकी नागरिक के डिनर टेबल तक पहुंच चुके हैं।

अगर आप आज की इस कहानी को सुनकर सोच में पड़ गए हैं, तो समझ लीजिए—यही तो पत्रकारिता का काम है। और यही तो इस वीडियो का मकसद था—आपको वो दिखाना, जो शायद हेडलाइंस में नहीं दिखता, लेकिन आपके भविष्य को गहराई से प्रभावित करता है।

Conclusion

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