Tariff का सुपर वार! चीन पर 245% ड्यूटी से अमेरिका ने दिखाया असली दम – भारत को मिल सकता है बड़ा फायदा

क्या आपने कभी किसी आर्थिक युद्ध को इतनी तेजी से बढ़ते हुए देखा है कि अगले कदम का अंदाज़ा लगाना नामुमकिन हो जाए? क्या आपने कभी सोचा है कि दो देशों की जिद और जवाबी कार्रवाइयों के बीच पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्था बंधक बन जाए?

और अगर कल सुबह आपके मोबाइल, लैपटॉप या कार के दाम दोगुने हो जाएं तो हैरानी नहीं होनी चाहिए—क्योंकि जिस ट्रेड वॉर की शुरुआत अमेरिका और चीन के बीच हुई थी, अब वह एक ऐसे मुकाम पर पहुंच गया है जहां न पीछे हटने की गुंजाइश है, न समझौते की हवा। अमेरिका ने चीन के 125% tariff के जवाब में अब 245% रेसिप्रोकल ड्यूटी लगाने का ऐलान कर दिया है। और यही है वो निर्णायक मोड़, जहां से Global व्यापार की दिशा बदल सकती है। आज हम इसी विषय पर गहराई में चर्चा करेंगे।

अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने यह ऐलान तब किया जब चीन ने कुछ हफ्तों पहले ही, अमेरिका से Import होने वाले Products पर भारी भरकम 125% शुल्क लगाने का निर्णय लिया था। लेकिन ट्रंप ने अपनी रणनीति सिर्फ जवाबी हमला तक सीमित नहीं रखी। व्हाइट हाउस की ओर से जारी दस्तावेज में स्पष्ट किया गया कि अब चीन के उन Products पर, 245% तक tariff लगाया जाएगा जो अमेरिकी बाजारों में भारी मात्रा में बिकते हैं।

इसका मतलब है कि चीन की कंपनियों को अमेरिका में अब पहले से कहीं ज्यादा मुश्किल होगी, और उनकी Competition क्षमता बुरी तरह प्रभावित होगी। ये फैसला सिर्फ आर्थिक नहीं, बल्कि रणनीतिक दृष्टिकोण से भी लिया गया है। ट्रंप अब चीन पर हर उस जगह दबाव बना रहे हैं जहां से वह तकनीकी या व्यापारिक बढ़त हासिल करता आया है।

इस फैसले के पीछे एक और बड़ा कारण है—राष्ट्रपति ट्रंप ने एक कार्यकारी आदेश पर हस्ताक्षर करते हुए, उन खनिजों और उनसे जुड़े Products की जांच का आदेश दिया है जिन पर अमेरिका का चीन पर अत्यधिक निर्भरता है।

इन खनिजों में शामिल हैं गैलियम, जर्मेनियम, एंटीमनी, और अन्य रेयर अर्थ एलिमेंट्स। ये खनिज न सिर्फ हाईटेक इंडस्ट्री में इस्तेमाल होते हैं, बल्कि रक्षा, एयरोस्पेस और कंप्यूटिंग जैसी स्ट्रैटजिक इंडस्ट्री के लिए अनिवार्य हैं। ट्रंप का कहना है कि इन खनिजों पर चीन की निर्भरता अमेरिका की राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए एक खतरा बन चुकी है। उनके अनुसार अब वक्त आ गया है कि अमेरिका अपने भीतर ही इन Products की मैन्युफैक्चरिंग बढ़ाए, और विदेशी सप्लाई चेन पर अपनी निर्भरता को कम करे।

चीन की प्रतिक्रिया भी कम तीखी नहीं रही। चीनी विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता ने अमेरिका से मांग की कि वह “स्पष्ट करे” कि 245% tariff की गणना कैसे की गई। चीन का आरोप है कि अमेरिका बार-बार tariff की आड़ में ग्लोबल ट्रेड रूल्स की धज्जियां उड़ा रहा है और एकतरफा कार्रवाई कर रहा है।

चीन का यह भी कहना है कि उसने केवल अपने वैध अधिकारों की रक्षा की है, और अमेरिका की तरफ से शुरू की गई इस ट्रेड वॉर में वह न तो पीछे हटेगा, न डरकर समझौता करेगा। बीजिंग अब यह स्पष्ट कर चुका है कि अगर अमेरिका ने और tariff लगाए, तो चीन अपनी तकनीकी संपत्ति और खनिजों के Export पर और कड़े प्रतिबंध लगाने से नहीं हिचकेगा।

चीन के मुताबिक, अमेरिका के पास इस वक्त जो टैक्टिक है वो सिर्फ दबाव बनाने की है—एक के बाद एक tariff बढ़ाकर वो चीन को टेबल पर घुटनों के बल लाना चाहता है। लेकिन चीन ने साफ कर दिया है कि वह बातचीत के लिए तैयार है, लेकिन शर्त ये है कि वह बातचीत सम्मान और बराबरी के आधार पर हो। “हाथ मिलाने की इच्छा है, लेकिन सिर झुकाने की नहीं,”—यह बयान अब चीन के रुख को पूरी तरह बयां करता है। चीन के अधिकारियों ने संकेत दिया है कि वे तभी बातचीत शुरू करेंगे, जब अमेरिका अपने tariff का आकलन निष्पक्ष रूप से करेगा और दबाव की नीति से पीछे हटेगा।

इस बीच अमेरिका ने दुनिया के बाकी देशों को एक अलग संकेत दिया है। व्हाइट हाउस ने बताया कि 75 से ज्यादा देश अमेरिका से नए व्यापार समझौते करने के लिए संपर्क कर चुके हैं। और इसलिए फिलहाल इन देशों पर लगाए जाने वाले 10% या उससे अधिक tariff को टाल दिया गया है—सिर्फ चीन को छोड़कर। यानी अमेरिका ने दुनिया को बांटने की रणनीति अपनाई है—“चीन अलग, बाकी सभी हमारे साथ।” ट्रंप प्रशासन इसे अपनी रणनीतिक जीत मान रहा है क्योंकि इससे अमेरिका की ग्लोबल डिप्लोमैटिक पकड़ और मजबूत हुई है। अब देखना है कि क्या ये समर्थन सिर्फ अस्थायी है या लंबे वक्त तक ट्रंप के पक्ष में रहेगा।

इस tariff वॉर की शुरुआत 2 अप्रैल 2025 को हुई थी जब अमेरिका ने अपने व्यापारिक घाटे को देखते हुए ‘जवाबी शुल्क नीति’ की घोषणा की। तब से अब तक दोनों देश हर सप्ताह एक नया tariff ऐलान कर रहे हैं। पहले अमेरिका ने 145% ड्यूटी लगाई, फिर चीन ने 125%। अब ट्रंप ने 245% की नई चोट मार दी है। ये आंकड़े सिर्फ टैक्स नहीं, बल्कि भविष्य की संभावनाओं और अनिश्चितताओं के प्रतिबिंब हैं। experts का मानना है कि अब यह ट्रेड वॉर केवल एक आर्थिक विवाद नहीं रहा, बल्कि यह तकनीकी प्रभुत्व, सैन्य तैयारी और global leadership की लड़ाई में तब्दील हो चुका है।

हाल ही में अमेरिका ने कुछ इलेक्ट्रॉनिक सामानों को tariff से छूट दी थी—जैसे स्मार्टफोन, लैपटॉप, टैबलेट आदि। ट्रंप का मानना था कि इनकी मांग अमेरिका में बहुत अधिक है और इनका विकल्प फिलहाल अमेरिका में नहीं बन सकता। लेकिन चीन ने इसका जवाब भी पूरी गंभीरता से दिया और WTO में मामला दर्ज कर दिया। अब चीन इस लड़ाई को सिर्फ व्यापार नहीं, बल्कि अंतरराष्ट्रीय कानून की कसौटी पर भी ले जाना चाहता है। वह अमेरिका को WTO के मंच पर Global आलोचना के घेरे में लाना चाहता है ताकि अंतरराष्ट्रीय समर्थन हासिल कर सके।

चीन के विदेश मंत्रालय ने एक और बयान जारी करते हुए कहा कि अगर अमेरिका इसी तरह tariff बढ़ाता रहेगा, तो चीन अब उसे नजरअंदाज करेगा। यानी कोई वार्ता नहीं, कोई जवाब नहीं—सिर्फ नजरअंदाज। ये कूटनीतिक भाषा में सबसे सख्त विरोध का संकेत होता है। और इसका असर सिर्फ दोनों देशों के द्विपक्षीय व्यापार पर नहीं, बल्कि पूरी Global अर्थव्यवस्था पर पड़ेगा। IMF और वर्ल्ड बैंक जैसे संस्थान पहले ही चेतावनी दे चुके हैं कि अमेरिका-चीन tariff वॉर अगर इसी गति से चलता रहा, तो अगले दो साल में Global GDP 1.5% तक गिर सकती है।

मामला यहीं खत्म नहीं होता। ट्रंप के 245% tariff ऐलान के तुरंत बाद अमेरिका के ऑटो सेक्टर, टेक्नोलॉजी कंपनियां और एयरोस्पेस इंडस्ट्री में हलचल शुरू हो गई। कंपनियों को डर है कि अगर चीन पलटवार करता है और अपने रणनीतिक खनिजों का Export रोकता है, तो उत्पादन ठप हो सकता है। इससे रोजगार पर असर पड़ेगा, शेयर बाजारों में अस्थिरता आएगी, और महंगाई बढ़ेगी। हालांकि ट्रंप समर्थक इसे “लघुकालिक दर्द, दीर्घकालिक लाभ” की तरह पेश कर रहे हैं। उनका मानना है कि इससे अमेरिका अंततः आत्मनिर्भर बनेगा।

लेकिन ट्रंप को इन चिंताओं से ज़्यादा चिंता इस बात की है कि अमेरिका अब किसी भी कीमत पर अपने व्यापार घाटे को कम करना चाहता है। वह चाहता है कि “मेड इन अमेरिका” का सपना पूरी तरह साकार हो। और उसके लिए अगर किसी देश से रिश्ते बिगड़ते भी हैं, तो ट्रंप पीछे हटने को तैयार नहीं। उनका एजेंडा स्पष्ट है—अमेरिकी नौकरियां, अमेरिकी उत्पादन, और अमेरिकी प्रभुत्व। इसके लिए वह किसी भी सीमा तक जाने को तैयार हैं।

इस जंग में सबसे बड़ी उलझन यह है कि न तो अमेरिका झुक रहा है, न चीन। दोनों महाशक्तियां आर्थिक हथियारों से एक-दूसरे को मात देने की कोशिश कर रही हैं। लेकिन सवाल यह है—इस टकराव का अंत क्या होगा? क्या कोई समझौता संभव है? या फिर यह ट्रेड वॉर अब एक नए कोल्ड वॉर की शुरुआत है?

experts का मानना है कि इस लड़ाई में छोटे देश सबसे ज्यादा प्रभावित होंगे। उन्हें तय करना होगा कि वे अमेरिका के साथ खड़े रहें या चीन के साथ। और भारत जैसे देश, जो दोनों के बड़े व्यापारिक साझेदार हैं, उनके लिए यह स्थिति और भी संवेदनशील है। भारत को रणनीतिक रूप से सतर्क रहना होगा, और अपने निर्णयों को तटस्थता और लाभ दोनों के आधार पर लेना होगा।

यह लड़ाई अब केवल व्यापार नीति की नहीं रही। यह जियोपॉलिटिक्स, कूटनीति, टेक्नोलॉजी, और भविष्य के ग्लोबल लीडरशिप की है। और इसका हर अध्याय, हर फैसला—दुनिया के हर कोने को प्रभावित करने वाला है। यह एक ऐसा युद्ध है जिसमें गोलियां नहीं चल रही, लेकिन हर देश की अर्थव्यवस्था इसकी चपेट में है।

Conclusion

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