Breakthrough: Tariff संकट में छुपा है मौका! ट्रंप की नीतियों से भारत को मिल सकता है बड़ा फायदा I 2025

जब पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्था एक स्थिर लय में चल रही थी, जब Global व्यापार को मानवीय विकास का सबसे बड़ा इंजन माना जा रहा था—तभी एक झटका आया। एक ऐसा झटका, जिसने अमेरिका से लेकर एशिया तक, और यूरोप से लेकर अफ्रीका तक, हर शेयर बाजार को हिलाकर रख दिया। नाम है—”ट्रंप का Tariff वॉर”। अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने जैसे ही चीनी और अन्य विदेशी Products पर भारी टैरिफ लगाने की घोषणा की, मानो ग्लोबलाइजेशन की चमकती तस्वीर पर एक बड़ा धब्बा पड़ गया हो। पर सवाल ये है—क्या ये सिर्फ धब्बा है या भारत के लिए एक नया रास्ता? आज हम इसी विषय पर गहराई में चर्चा करेंगे।

ग्लोबलाइजेशन को जब पहली बार अपनाया गया, तो इसे विकास की कुंजी माना गया। विचार था कि जो देश जिस उत्पाद को सस्ते और बेहतर तरीके से बना सके, वह पूरी दुनिया को सप्लाई करेगा और सभी को फायदा होगा। चीन ने इस विचारधारा को सबसे पहले और सबसे अच्छी तरह अपनाया। उसने अपनी उत्पादन क्षमता को इस कदर बढ़ाया कि पूरी दुनिया उसके सस्ते Products की ग्राहक बन गई। लेकिन क्या ये सच में हर देश के लिए फायदेमंद था?

समय के साथ कई देशों को अहसास हुआ कि सस्ते Import के चक्कर में उनकी खुद की फैक्ट्रियां बंद हो रही हैं, उनके उद्योग-धंधे खत्म हो रहे हैं, और बेरोजगारी लगातार बढ़ती जा रही है। अमेरिका जैसे विकसित देशों को भी ये बात कचोटने लगी, और यहीं से ट्रंप का टैरिफ वॉर शुरू हुआ। अब सवाल ये है कि जब अमेरिका जैसे देश को भी आत्मनिर्भर बनने की जरूरत महसूस हुई, तो क्या गांधीजी की सोच आज प्रासंगिक नहीं हो गई है?

महात्मा गांधी ने आज़ादी के संघर्ष के दौरान जिस आत्मनिर्भरता की बात की थी, वो सिर्फ राजनीतिक स्वतंत्रता तक सीमित नहीं थी। वे आर्थिक आज़ादी को भी उतना ही जरूरी मानते थे। जब उन्होंने विदेशी कपड़ों के बहिष्कार की बात कही, तो उनका मकसद यही था कि भारत के लोग खुद अपने हाथ से बनी चीजों को अपनाएं और गांव-गांव में उद्योग खड़े हों। ये कोई भावनात्मक निर्णय नहीं था, बल्कि दूरदर्शिता का परिणाम था। यही कारण है कि इंग्लैंड की कपड़ा मिलों को नुकसान पहुंचने के बावजूद वहां के मजदूरों ने गांधीजी का विरोध नहीं किया, बल्कि उनका सम्मान किया।

गांधीजी ने दुनिया को ये समझाने की कोशिश की थी कि जब तक हर व्यक्ति, हर गांव, अपनी बुनियादी जरूरतों को पूरा करने में सक्षम नहीं होगा, तब तक आर्थिक आज़ादी का कोई मतलब नहीं होगा। आज जब चीन के सस्ते उत्पाद पूरी दुनिया में बाढ़ की तरह फैल गए हैं, तब भी वहां के मजदूरों की स्थिति कोई बहुत अच्छी नहीं है। फायदा सिर्फ कंपनियों और पूंजीपतियों को होता है, और दूसरी तरफ, बाकी देशों के लोग अपनी नौकरियों से हाथ धो बैठते हैं।

भारत जैसे देश के लिए, जहां विशाल जनसंख्या है और एक बड़ा युवा वर्ग बेरोजगारी से जूझ रहा है, ट्रंप के टैरिफ को एक अवसर की तरह देखा जा सकता है। जब अमेरिका चीन से दूरी बना रहा है, तो भारत के लिए एक बड़ा Export बाज़ार खुल सकता है। लेकिन ये तभी संभव होगा जब भारत अपनी उत्पादन क्षमता, गुणवत्ता और आत्मनिर्भरता पर फोकस करे। क्या हम इस मौके को पहचानने और इसका फायदा उठाने के लिए तैयार हैं?

आइए ज़रा गांव की तरफ लौटते हैं। किसान, जो देश की रीढ़ होते हैं, उन्हें आज भी अपनी मेहनत की पूरी कीमत नहीं मिलती। चाहे बारिश कम हो या फसल बंपर हो, नुकसान तो आखिर किसान का ही होता है। उत्पादन ज्यादा हो जाए तो मंडियों में भाव गिर जाते हैं, और मजबूरी में किसान टनों के हिसाब से टमाटर और प्याज जैसे उत्पाद खेत में ही सड़ने को छोड़ देते हैं। वहीं, व्यापारी उसी उपज को प्रोसेस करके और आकर्षक पैकेजिंग के साथ महंगे दामों पर बाजार में बेचते हैं।

इसी असमानता से पैदा होता है ‘वैल्थ गैप’—वो अंतर जो किसानों और व्यापारियों के बीच है। यही असमानता अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी देखी जा सकती है। कुछ बड़े देश, बड़ी कंपनियां और बड़े व्यापारी ही लाभ में रहते हैं। छोटे उत्पादक, चाहे वो किसान हो या कारीगर, सिर्फ मेहनत करता है लेकिन मुनाफा नहीं देखता। इस चक्र को तोड़ना होगा, और वो तभी संभव है जब हम आत्मनिर्भर बनें।

कल्पना कीजिए अगर किसानों के पास छोटी-छोटी प्रोसेसिंग मशीनें हों, जो उनके बजट में आती हों। अगर टमाटर को वहीं सॉस में बदल दिया जाए, प्याज को सुखाकर स्टोर किया जाए, या आम का रस वहीं पैकिंग करके अमावट में बदल दिया जाए—तो किसानों को अपनी ही उपज का सच्चा मुनाफा मिल सकता है। यही है आत्मनिर्भरता का सही रास्ता।

यह सोच कोई नई नहीं है। पहले के जमाने में घरों में महिलाएं सीजनल सब्जियों और फलों को सुखा कर साल भर के लिए सुरक्षित रखती थीं। घर-घर में वड़ी बनाई जाती थी, चूरन तैयार किया जाता था, अमावट रखी जाती थी। ये सिर्फ परंपरा नहीं थी, बल्कि आत्मनिर्भरता की मिसाल थी। आज हमें इन्हीं परंपराओं को तकनीक के साथ मिलाकर दोबारा जीवित करना होगा।

ग्लोबलाइजेशन ने भले ही दुनिया को एक साथ जोड़ दिया हो, लेकिन इसने हमें अपने गांव, अपनी मिट्टी और अपनी जड़ों से दूर भी कर दिया है। ट्रंप के टैरिफ से पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्था हिल गई है, लेकिन हमें ये देखना होगा कि ये झटका कहीं हमारे लिए एक चेतावनी तो नहीं है? शायद ये मौका है कि हम फिर से अपनी नीतियों, अपने उत्पादन और अपने व्यापार को स्थानीय स्तर पर खड़ा करें।

भारत के पास इस मौके को अवसर में बदलने की ताकत है। हमारे पास विशाल बाजार है, कुशल मानव संसाधन है, प्राकृतिक संसाधनों की भरमार है, और सबसे बड़ी बात—अब एक जागरूक युवा वर्ग है जो देश के लिए कुछ करना चाहता है। अगर सरकार, उद्योग और जनता एकजुट होकर आत्मनिर्भर भारत के विजन पर काम करें, तो हम न सिर्फ इस Global झटके से उबर सकते हैं, बल्कि एक नई आर्थिक शक्ति बन सकते हैं।

याद रखिए, हर संकट अपने साथ एक अवसर लेकर आता है। ट्रंप के टैरिफ से दुनिया परेशान हो सकती है, लेकिन भारत को इससे डरने की नहीं, सोचने की जरूरत है। ये सोच कि हम भी चीन की तरह एक विश्वसनीय उत्पादन केंद्र बन सकते हैं, और वो भी बिना शोषण के, बिना प्रदूषण के, और अपने लोगों के हितों को प्राथमिकता देते हुए।

आत्मनिर्भरता सिर्फ एक नारा नहीं है, ये भविष्य का रास्ता है। ये वो विचार है जो न केवल आर्थिक रूप से मजबूत करता है, बल्कि आत्मसम्मान भी देता है। ट्रंप के टैरिफ से पैदा हुई इस ‘आपदा’ को अगर भारत अवसर में बदल पाए, तो ये हमारे लिए एक ऐतिहासिक मोड़ साबित हो सकता है।

और आखिर में, गांधीजी की बात को फिर से याद करते हैं—”हमारा असली विकास तब होगा, जब हर गांव अपने जरूरी संसाधनों के लिए किसी और पर निर्भर नहीं रहेगा।” आज जब Global supply chains चरमरा रही हैं, तब ये विचार एक नई ऊर्जा के साथ सामने आ रहा है।

ट्रंप का टैरिफ एक चेतावनी है, लेकिन साथ ही एक चुनौती भी। ये हम पर है कि हम इसे संकट मानें या अवसर। अगर हमने इस बार सही कदम उठाया, तो शायद आने वाले दशकों में भारत न केवल आत्मनिर्भर होगा, बल्कि दुनिया को दिशा दिखाने वाला भी बनेगा।

Conclusion

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