एक चमचमाती इमारत… ऊंचा कॉन्फ्रेंस हॉल… और बीचों-बीच बैठे वो शख्स, जिसने अपने बलबूते पर देश की मेटल इंडस्ट्री में एक साम्राज्य खड़ा कर दिया। हर आंख उसकी तरफ देख रही थी, हर कैमरा उसकी हर हरकत कैद कर रहा था। लेकिन इस बार वो चर्चा में अपनी किसी नई डील या मुनाफे के लिए नहीं, बल्कि शंकाओं और आरोपों की आंधी में घिरा हुआ था। वो नाम था—अनिल अग्रवाल, बिहार के सबसे अमीर कारोबारी और वेदांता ग्रुप के चेयरमैन। और मामला था—Semiconductor बिज़नेस की आड़ में हुए कथित फाइनेंशियल खेल का। आज हम इसी विषय पर गहराई में चर्चा करेंगे।
कहानी की शुरुआत होती है एक रिपोर्ट से, जो आई अमेरिका से, लेकिन उसकी गूंज भारत के कॉरपोरेट गलियारों में ज़ोरदार थी। अमेरिकी शॉर्ट सेलर ‘वायसराय रिसर्च’ ने एक चौंकाने वाला दावा किया—कि अनिल अग्रवाल का वेदांता ग्रुप, खासतौर पर उसकी Semiconductor यूनिट, “फेक कमोडिटी बिज़नेस” का हिस्सा रही है। इतना ही नहीं, आरोप ये भी लगे कि यह सब एक एनबीएफसी (Non-Banking Financial Company) के क्लासिफिकेशन से बचने के लिए एक सोची-समझी योजना थी।
अब जब एक अरबपति इंडस्ट्रियलिस्ट, जिसकी छवि दशकों से कॉर्पोरेट इकोसिस्टम में मजबूत रही हो, उस पर ऐसा आरोप लगे—तो हंगामा तो होना ही था। लेकिन इस बार मामला सिर्फ बिजनेस तक सीमित नहीं था, ये एक भरोसे की परीक्षा बन चुकी थी। क्या एक कंपनी, जो भारत में Semiconductor निर्माण की उम्मीद जगा रही थी, असल में सिर्फ ‘कागज़ी कारोबार’ कर रही थी?
वेदांता ग्रुप ने तुरंत इन आरोपों को “निराधार और भ्रामक” करार दिया। एक आधिकारिक बयान में कंपनी ने साफ कहा कि वेदांता Semiconductor प्राइवेट लिमिटेड (VSPL) की, सभी गतिविधियां कानूनी रूप से पारदर्शी हैं और Regulatory standards के अनुरूप हैं। लेकिन कहानी यहीं खत्म नहीं होती।
आइए अब उस रिपोर्ट की तह तक चलते हैं, जिसने यह सब बवाल खड़ा किया। वायसराय रिसर्च की रिपोर्ट के अनुसार, अप्रैल 2025 में वेदांता रिसोर्सेज को ब्रांड फीस ट्रांसफर करने के लिए एक पूरा तंत्र खड़ा किया गया। और इसी योजना का हिस्सा थी VSPL। रिपोर्ट का दावा है कि VSPL का असली मकसद Semiconductor बनाना नहीं, बल्कि उस समय वेदांता की मूल कंपनी को नकदी संकट से निकालना था।

यही नहीं, रिपोर्ट में तो यहां तक कहा गया कि VSPL को जानबूझकर “फेक कमोडिटी ऑपरेशनल यूनिट” की तरह पेश किया गया, ताकि उसका क्लासिफिकेशन NBFC के रूप में न हो। कहने को तो ये कंपनी Semiconductor यूनिट के नाम पर थी, लेकिन असल में ये कागज़ों पर कमोडिटी ट्रेडिंग—जैसे तांबा, सोना और चांदी—का खेल खेल रही थी।
आप सोच रहे होंगे—कागज़ों पर कारोबार? हां, बिल्कुल। रिपोर्ट के मुताबिक, इस यूनिट ने शून्य मार्जिन के आधार पर ट्रेडिंग की। मतलब—न कोई मुनाफा, न कोई घाटा, सिर्फ दिखावा। और ये पूरी गतिविधि wash trading जैसी लगती थी—यानि ऐसी ट्रेडिंग जहां असली लेनदेन नहीं होता, सिर्फ दिखाया जाता है ताकि बाजार को गुमराह किया जा सके।
VSPL ने कथित रूप से विदेशी कर्जदाता संस्थानों से NCDs (non-convertible debentures) जुटाने की कोशिश की, वो भी 10% ब्याज दर पर। और इसके लिए वेदांता लिमिटेड की NZDL में हिस्सेदारी को गिरवी रखा गया—एक और स्तर जहां मामला सिर्फ Semiconductor से बहुत दूर जाता दिखा।
अब यहां से कहानी और भी पेचीदा होती है। रिपोर्ट में दावा है कि इस पूरे तंत्र को कम से कम 24 महीनों तक जारी रखना पड़ेगा, ताकि कोई Regulator दखल न दे। क्योंकि अगर किसी भी मोड़ पर भारत का रेग्युलेटरी सिस्टम सक्रिय हो गया, तो इस पूरे स्ट्रक्चर की नींव हिल सकती है। वायसराय ने तो यहां तक कह दिया कि “भारत के रेगुलेटर हल्की नींद में हैं”—एक बड़ा सवाल जो देश के Regulatory ढांचे पर भी उंगली उठाता है। तो क्या यह सब सिर्फ एक ‘Semiconductor सपना’ था, जो असल में एक कंप्लेक्स फाइनेंशियल जाल था?
वेदांता के प्रवक्ता का कहना है कि VSPL और वेदांता लिमिटेड के बीच हुए सभी वित्तीय लेन-देन, पूरी तरह से नियमों और कॉरपोरेट गवर्नेंस के अनुसार हैं। उन्होंने यह भी दावा किया कि हर एक ब्याज दर, लोन शर्त और सिक्योरिटी की जानकारी पारदर्शिता के साथ दी गई है। लेकिन अब जनता का सवाल ये है कि—अगर सब कुछ सही था, तो फिर इतना कुछ छिपाने की ज़रूरत क्यों पड़ी?
यहां एक और बात ध्यान देने लायक है—वेदांता ग्रुप हाल के सालों में लगातार नकदी संकट से जूझता नजर आया है। अप्रैल 2024 में भी वेदांता लिमिटेड को cash crunch का सामना करना पड़ा था। ऐसे में यह आरोप और मजबूत होते हैं कि क्या VSPL को एक “डमी यूनिट” की तरह खड़ा किया गया था, ताकि ग्रुप को short-term फंडिंग मिल सके?
अब हम यहां खड़े हैं—जहां एक तरफ एक अरबों की कंपनी कह रही है कि सब कुछ नियमानुसार है, और दूसरी तरफ एक इंटरनेशनल रिसर्च फर्म तमाम कागज़ात, एनालिटिक्स और आकड़ों के साथ कह रही है कि यह सब एक जाल है—एक ‘कॉरपोरेट माया’।
आप सोचिए—अगर ऐसा मॉडल भारत में कामयाब हो जाता है, तो क्या होगा? कोई भी कंपनी कागज़ पर एक यूनिट बनाएगी, मार्केट को दिखाएगी कि हम भविष्य की टेक्नोलॉजी पर काम कर रहे हैं, और अंदरखाने उससे फाइनेंसिंग का खेल खेला जाएगा? ये तो देश के इनोवेशन इकोसिस्टम के साथ धोखा होगा।
Semiconductor जैसे क्षेत्रों में जहां सरकारें भी भारी Investment कर रही हैं, वहां अगर कोई बड़ी कंपनी ऐसा ‘रोल मॉडल’ बन जाए, तो छोटे स्टार्टअप्स और असली इनोवेटर्स का भरोसा टूट जाएगा। और ऐसे समय में जब भारत, चीन और अमेरिका के बीच Semiconductor सुपरमैसी की होड़ लगी है, तब इस तरह का विवाद सिर्फ एक कंपनी को नहीं, बल्कि पूरे देश के मिशन को चोट पहुंचा सकता है।
कहानी का सबसे कड़वा हिस्सा यह है कि इस पूरी साज़िश—अगर साज़िश है तो—में आम Investors का भी नुकसान हो सकता है। वेदांता जैसी कंपनी में लाखों छोटे Investors ने भरोसा किया है—अपने जीवन की कमाई लगाई है। ऐसे में अगर यह सब सच निकला, तो सबसे बड़ा झटका उन्हीं को लगेगा।
लेकिन… हो सकता है यह सब गलतफहमी हो। हो सकता है वायसराय रिसर्च ने कुछ ज़्यादा ही खींच दिया हो। हो सकता है वेदांता ने सचमुच सब कुछ नियमानुसार किया हो। लेकिन जब तक कोई जांच, कोई पारदर्शी ऑडिट नहीं होता, तब तक सवाल बने रहेंगे। अब देखना ये है कि क्या भारत के रेगुलेटर्स जागते हैं, या फिर ये कहानी भी बाकी कॉरपोरेट स्कैंडलों की तरह धूल में दफन हो जाती है।
एक तरफ़ अनिल अग्रवाल हैं—एक ऐसा नाम, जिसने जीरो से शुरुआत कर के एक इंटरनेशनल माइनिंग एंड मेटल्स एम्पायर खड़ा किया। दूसरी तरफ़ वो रिपोर्ट, जो कह रही है कि इस बार सपना नहीं, सिर्फ ‘धुंआ’ है। अब फैसला आपको करना है—क्या ये Semiconductor का सपना है, या कागज़ों का कारोबार?
Conclusion
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