कल्पना कीजिए एक ऐसे कर्मचारी की जिसने 30 साल तक देश की सेवा की हो, हर सुबह तय समय पर दफ्तर पहुँचा हो, छुट्टियों को त्याग कर नीतियों की फाइलों में सिर झुकाए रखा हो, और अब जब वो रिटायरमेंट के नज़दीक है—तो अचानक एक अनुशासनात्मक कार्रवाई में उसे बर्खास्त कर दिया जाए। न केवल नौकरी गई, बल्कि वो Pension भी चली गई, जो उसके बुढ़ापे की सबसे बड़ी आस थी।
यही नहीं, वो कर्मचारी अब जीवन भर के लिए आर्थिक अनिश्चितता के अंधकार में झोंक दिया जाता है। 22 मई 2025 को केंद्र सरकार द्वारा लागू किए गए नए Pension नियमों ने यही कहानी हजारों कर्मचारियों के सामने लाकर खड़ी कर दी है, और इस बदलाव ने न केवल सरकारी दफ्तरों के गलियारों में बल्कि हर उस घर में बेचैनी फैला दी है जहाँ कोई सदस्य इस सेवा से जुड़ा हुआ है। आज हम इसी विषय पर गहराई में चर्चा करेंगे।
केंद्र सरकार ने सिविल सर्विस Pension नियमों में जो बदलाव किया है, वो पहले कभी इतने स्पष्ट और कठोर नहीं थे। पहले जिन कर्मचारियों को किसी Public undertaking (PSU) से बर्खास्त किया जाता था, उन्हें नौकरी जाने के बाद भी कम से कम Pension या रिटायरमेंट लाभ की उम्मीद रहती थी।
लेकिन अब सरकार ने यह स्पष्ट कर दिया है कि ऐसे कर्मचारियों को अब यह राहत नहीं मिलेगी। यानी अगर किसी को PSU में अनुशासनात्मक कार्रवाई के तहत हटाया गया है, तो वह Pension के लाभ से भी पूरी तरह वंचित किया जा सकता है। इससे यह साफ हो गया है कि अब सेवा के अंत में मिलने वाली सामाजिक सुरक्षा भी पूरी तरह से एक परफॉर्मेंस इंडिकेटर से जुड़ चुकी है।
यह बदलाव केंद्रीय सिविल सर्विस (पेंशन) संशोधन नियम, 2025 के जरिए लागू किया गया है, जो कि CCS (पेंशन) नियम 2021 के नियम 37(29C) में जोड़ा गया एक विशेष खंड है। यह केवल नियम नहीं, बल्कि एक मानसिक दबाव है जो अब हर सरकारी कर्मचारी के सिर पर मंडराएगा—कि अगर नौकरी के अंतिम पड़ाव पर भी कोई चूक हो गई, तो न केवल साख, बल्कि जीवनभर की जमा पूंजी और सम्मान भी छिन सकता है। यह संशोधन यह संकेत भी देता है कि सरकार अब कर्मचारी की सेवा अवधि को नहीं, बल्कि उसके अंतिम वर्षों की कार्यशैली को ध्यान में रखकर लाभ तय करना चाहती है।
नए नियमों की खास बात यह है कि अब अनुशासनात्मक मामलों में सज़ा सिर्फ नौकरी से निकालने तक सीमित नहीं रहेगी। अगर कोई पूर्व सरकारी कर्मचारी, जो अब किसी PSU में कार्यरत है, और उसे अनुशासनात्मक आधार पर हटा दिया जाता है, तो अब वो अपनी Pension भी खो सकता है। यह बदलाव उस सुरक्षा कवच को हटा देता है जो पहले उन कर्मचारियों को मिलता था जिन्होंने सरकारी सेवा में रहते हुए लंबा योगदान दिया हो। यह मान्यता कि एक बार नौकरी पूरी हो गई तो पेंशन सुनिश्चित है, अब इतिहास बनने जा रही है। यह नियम अब यह भी दर्शाता है कि नौकरी केवल एक Service contract नहीं, बल्कि निरंतर अनुशासित रहने का एक दीर्घकालिक परीक्षण है।
इस बदलाव के बावजूद अंतिम निर्णय संबंधित Public undertaking की देखरेख करने वाले मंत्रालय के पास रहेगा। यानी अगर किसी कर्मचारी को बर्खास्त किया जाता है, तो उसके मामले की समीक्षा मंत्रालय द्वारा की जाएगी और उसके बाद तय किया जाएगा कि उसे Pension मिलेगी या नहीं।
लेकिन इसका मतलब यह भी है कि अब Pension अधिकार नहीं, बल्कि एक विवेकाधीन निर्णय बन गई है। यह बदलाव सरकारी सेवा की प्रकृति को ही एक नई दिशा देता है, जहाँ कर्मचारी को अपने भविष्य के लिए हर समय आशंकाओं के बीच जीना होगा। यह बात भी सामने आती है कि अब Pension केवल एक सेवा लाभ नहीं, बल्कि सरकार के भरोसे पर आधारित एक स्वीकृति बन चुकी है।
यह संशोधन उन कर्मचारियों पर लागू होगा जिनकी नियुक्ति 31 दिसंबर 2003 या उससे पहले हुई थी। यानी यह Old Pension Scheme (OPS) के अंतर्गत आने वाले कर्मचारियों को प्रभावित करता है, जिन्हें पहले यह गारंटी दी जाती थी कि वे रिटायर होने के बाद एक निश्चित Pension के हकदार होंगे। इस नियम से रेलवे कर्मचारियों, Daily wage earners और IAS, IPS, IFoS अधिकारियों को फिलहाल छूट दी गई है। इस अपवाद ने एक नई बहस को जन्म दिया है कि क्या नियम सबके लिए एक जैसे नहीं होने चाहिए? और क्या ऊपरी पदों पर बैठे लोग इन नियमों से अछूते रहेंगे, जबकि निचले और मध्यम स्तर के कर्मचारी हर नए नियम के बोझ तले दबते चले जाएंगे?
बदलाव का असर व्यापक है। यह सिर्फ कानून की भाषा में एक संशोधन नहीं है, बल्कि उन लाखों कर्मचारियों के मन में अनिश्चितता और भय भरने वाला बदलाव है, जिन्होंने अपना पूरा जीवन सरकारी सेवा को समर्पित किया है। यह बात अब साफ हो चुकी है कि Pension केवल एक सेवा लाभ नहीं रही—बल्कि अब यह एक ऐसा लाभ बन चुका है जो सरकार की शर्तों और संतोषजनक आचरण से जुड़ा हुआ है। यह भी एक बदलाव है जहाँ कर्मचारी की निष्ठा का मूल्यांकन रिटायरमेंट के समय के हिसाब से नहीं, बल्कि हर दिन के आचरण से किया जाएगा।
संशोधित नियम में यह भी प्रावधान है कि कुछ विशेष मामलों में Pension पर पुनर्विचार किया जा सकता है। उदाहरण के तौर पर, अगर भविष्य में कर्मचारी का आचरण बेहतर होता है या मानवीय आधार पर कोई परिस्थिति बनती है, तो सरकार उसे कुछ राहत दे सकती है—जैसे कि आंशिक Pension, फैमिली पेंशन या भत्ता। लेकिन यह सब ‘अगर’ और ‘मगर’ पर निर्भर करेगा, और इसीलिए कर्मचारी अब निश्चित भविष्य की बजाय अनुमानों में जीने को मजबूर होंगे। यह नया यथार्थ है जो सरकारी सेवा की तस्वीर को पूरी तरह बदल सकता है।
वित्तीय और सामाजिक दृष्टिकोण से देखें तो इस बदलाव के दूरगामी परिणाम हो सकते हैं। एक तो इससे सरकारी सेवा में भरोसे की भावना पर असर पड़ेगा। दूसरा, कर्मचारी संगठन और यूनियन इसे लेकर संघर्ष कर सकते हैं। तीसरा, युवा पीढ़ी जो अभी सरकारी सेवा में आने की सोच रही है, वो इस अनिश्चितता से डगमगा सकती है। और चौथा, यह पूरी सोच कि ‘सरकारी नौकरी मतलब जीवनभर की सुरक्षा’, अब शायद अतीत बन जाए। इसके साथ ही यह नियम यह भी दर्शाता है कि सरकार अब सेवा के हर पहलू को व्यावसायिक दृष्टिकोण से देख रही है, जहाँ प्रदर्शन ही सब कुछ है।
इस बदलाव का सबसे बड़ा असर उन कर्मचारियों पर होगा जो PSU में डेप्युटेशन पर या फिर ट्रांसफर के माध्यम से कार्यरत हैं। पहले वे यह मानकर चलते थे कि अगर कभी नौकरी चली भी गई, तो Pension बनी रहेगी। अब यह धारणा बदल चुकी है। अब उन्हें हर निर्णय के पीछे कानूनी समीक्षा और मंत्रालय की स्वीकृति की ओर देखना होगा, जिससे उनके भविष्य की योजना पर गहरा असर पड़ेगा। यह परिवर्तन न केवल आर्थिक स्तर पर बल्कि मानसिक स्तर पर भी बड़ा दबाव बन सकता है।
यह निर्णय नीति निर्माताओं की उस सोच को भी दर्शाता है जिसमें वे सरकारी प्रणाली को ‘परफॉर्मेंस आधारित’ बनाना चाहते हैं। लेकिन सवाल यह है कि क्या ‘परफॉर्मेंस’ का आकलन निष्पक्ष ढंग से होगा? क्या यह नियम उन अधिकारियों के लिए भी उतना ही सख्त होगा जो ऊँचे पदों पर बैठे हैं? या फिर यह एक ऐसा हथियार बन जाएगा जिसका उपयोग निचले स्तर के कर्मचारियों को नियंत्रित करने के लिए किया जाएगा? यह आशंका कई कर्मचारियों के दिल में घर कर चुकी है कि आने वाला कल अब पहले जितना सुरक्षित नहीं रहेगा।
सरकार की मंशा यदि अनुशासन और कार्य संस्कृति को सुधारने की है, तो यह सराहनीय है। लेकिन इसके साथ ही Pension जैसे अधिकार को छीनना, वो भी उन कर्मचारियों से जिन्होंने दशकों तक सेवा दी है, न केवल कठोर बल्कि अमानवीय भी प्रतीत होता है। अगर अनुशासनहीनता साबित हो जाती है, तो पेंशन में कटौती एक उपाय हो सकता है, लेकिन पूरी पेंशन समाप्त कर देना एक अत्यधिक दंडात्मक कदम है। यह व्यवस्था का एक ऐसा रूप बन सकता है जिसमें न्याय की जगह डर और असुरक्षा छा जाए।
Conclusion
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