India milk labeling controversy: Non-Vegetarian Milk पर भारत की सख़्ती: थाली की शुद्धता बचाने का साहसिक कदम! 2025

कल्पना कीजिए… आप सुबह-सुबह उठते हैं, हाथ-मुंह धोकर पूजा के लिए तैयार होते हैं। आपने घर के मंदिर में भगवान को भोग लगाने के लिए दूध गर्म किया है। वही दूध जिससे घी, मक्खन, दही सब कुछ बनता है।

लेकिन क्या हो अगर उसी दूध के बारे में अचानक आपको पता चले कि वो गाय, जिससे ये दूध आया है… उसे मांस, खून, मछली और मुर्गी का चारा खिलाया गया था? क्या आप अब भी उस दूध को भगवान को अर्पित करेंगे? क्या आप अपने बच्चों को उसी दूध से बना दही खिलाना चाहेंगे? ये सवाल अब सिर्फ कल्पना नहीं रहे, बल्कि भारत और अमेरिका के बीच चल रही ट्रेड डील के केंद्र में आ चुके हैं। आज हम इसी विषय पर गहराई में चर्चा करेंगे।

भारत और अमेरिका, दो बड़े लोकतांत्रिक देश, जो अपने-अपने आर्थिक हितों को लेकर बातचीत की मेज़ पर बैठे हैं। लक्ष्य है – 2030 तक 500 अरब डॉलर का व्यापार। लेकिन बीच में अटक गई है एक चीज़ – दूध। जी हाँ, वही दूध जिसे भारत में ‘अमृत’ कहा जाता है, वही दूध जिसे पूजा-पाठ, यज्ञ, और धार्मिक संस्कारों में इस्तेमाल किया जाता है। लेकिन इस बार दूध केवल पोषण का नहीं, बल्कि धर्म, आस्था और राष्ट्रीय स्वाभिमान का मुद्दा बन चुका है।

वाशिंगटन का दबाव है कि भारत अपना डेयरी सेक्टर अमेरिकी कंपनियों के लिए खोले। अमेरिका के पास भरपूर डेयरी उत्पादन है, और वे चाहते हैं कि उनके दूध, मक्खन और पनीर को भारत में खुलकर बाजार मिले। लेकिन नई दिल्ली के मन में एक सवाल लगातार घूम रहा है—क्या ये वही दूध है जो भारतीय मान्यताओं के मुताबिक “शुद्ध” है? क्या इस दूध को देने वाली गायों को भी वैसा ही चारा खिलाया गया है जैसा हमारे यहां खिलाया जाता है?

यहां से विवाद की असली शुरुआत होती है। अमेरिका में गायों को सस्ता, पोषण युक्त और तेजी से वजन बढ़ाने वाला चारा दिया जाता है, जिसमें शामिल होते हैं—सुअर का खून, मुर्गी के पंख, मछली का तेल, घोड़े के अंग, यहां तक कि बिल्ली और कुत्ते के शरीर के हिस्से। अमेरिकी अखबार The Seattle Times की रिपोर्ट कहती है कि वहां मवेशियों के लिए बनाया जाने वाला चारा अक्सर जानवरों के अंगों का मिश्रण होता है। इससे मांसाहारी गायों की परंपरा विकसित हो चुकी है—और अब सवाल यह है कि क्या भारत उस परंपरा को स्वीकार करेगा?

भारत में दूध केवल भोजन नहीं है। यह संस्कृति है। यह परंपरा है। यह श्रद्धा है। गांव-गांव में सुबह की शुरुआत ‘दूध वालों’ की आवाज़ से होती है और घर-घर में दूध को छानकर चूल्हे पर चढ़ा दिया जाता है। लेकिन अब सरकार को यह तय करना है कि यह दूध सिर्फ आर्थिक नजरिए से देखे या भावनात्मक भी। यही कारण है कि भारत ने इस विषय पर अमेरिका के सामने एक साफ “रेड लाइन” खींच दी है।

भारत चाहता है कि जो भी डेयरी उत्पाद अमेरिका से आएं, उस पर स्पष्ट तौर पर यह लिखा हो कि वह उस गाय का दूध है जिसे कभी भी मांस या खून आधारित चारा नहीं खिलाया गया। सरकार के अनुसार, यह सिर्फ एक लेबलिंग का मामला नहीं है, बल्कि भारतीय उपभोक्ताओं की आस्था और धार्मिक भावनाओं से जुड़ा सवाल है। भारत का कहना है कि यह हमारी ‘कभी भी समझौता न की जाने वाली’ पंक्ति है—यानी एक लक्ष्मण रेखा।

अमेरिका के लिए यह शर्त एक व्यापारिक अड़चन है। उन्होंने इसे “अनावश्यक व्यापार बाधा” करार दिया है। लेकिन भारत ने साफ कर दिया है कि यह बाधा नहीं, बल्कि आस्था की रक्षा है। भारत के लिए यह केवल व्यापार नहीं, बल्कि 8 करोड़ से अधिक छोटे डेयरी किसानों की आजीविका का सवाल भी है, जिनकी जिंदगी इस दूध और उससे जुड़ी हुई अर्थव्यवस्था पर टिकी हुई है।

इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के अनुसार भारत फिलहाल पनीर पर 30%, मक्खन पर 40%, और दूध पाउडर पर 60% का Import duty लगाता है। इसका मतलब है कि अमेरिका जैसे देशों के लिए भारत का डेयरी बाजार पहले ही बंद है। अब अगर भारत ये टैरिफ हटाता है, तो अमेरिका से भारी मात्रा में सस्ते डेयरी उत्पाद भारत आने लगेंगे, जो भारतीय किसानों के लिए एक गहरी आर्थिक चोट बन सकते हैं।

एसबीआई के विश्लेषण में बताया गया है कि अगर भारत अपने बाजार को अमेरिकी डेयरी के लिए खोलता है तो, सालाना 1 लाख करोड़ का नुकसान उठाना पड़ सकता है। यह नुकसान केवल रुपयों का नहीं होगा, बल्कि भारतीय संस्कृति, रोजगार और उपभोक्ता विश्वास का भी होगा।

ग्लोबल ट्रेड रिसर्च इंस्टीट्यूट (GTRI) के अजय श्रीवास्तव ने एक बहुत ही चौंकाने वाला सवाल उठाया—“कल्पना कीजिए कि आप उस गाय के दूध से बना मक्खन खा रहे हैं जिसे किसी दूसरी गाय का मांस और खून पिलाया गया हो। भारत शायद इसकी कभी अनुमति न दे।” उनका ये बयान केवल अनुमान नहीं, बल्कि भारत सरकार की नीति की स्पष्ट झलक देता है।

भारत में दूध धार्मिक अनुष्ठानों का अभिन्न हिस्सा है। हर दिन मंदिरों में अभिषेक होता है, घरों में तुलसी पूजा से लेकर रक्षाबंधन, जन्माष्टमी, और हर पर्व पर गाय का दूध इस्तेमाल होता है। अब सोचिए कि अगर वो दूध उस गाय का हो जो जानवरों के अंग खाकर बड़ा हुई हो, तो क्या पूजा का अर्थ वही रह जाएगा?

अमेरिका की नीतियों को देखें तो वहां चारा बनाने में कोई परहेज़ नहीं किया जाता। मुर्गी के कूड़े, फीड में गिरे पंख, बीट और अन्य अंग तक को प्रोसेस करके गायों को खिलाया जाता है। मकसद होता है – कम लागत में अधिक प्रोटीन देना। लेकिन भारत में गाय को मां का दर्जा दिया जाता है, उसके आहार में भी सात्विकता और पवित्रता देखी जाती है। ऐसे में अमेरिका की डेयरी संस्कृति और भारत की परंपराएं टकरा रही हैं।

भारत सरकार ने साफ शब्दों में कहा है—डेयरी सेक्टर में कोई भी नरमी स्वीकार नहीं की जाएगी। यह एक ‘लक्ष्मण रेखा’ है। इस क्षेत्र में बदलाव केवल व्यापार के लिए नहीं किया जा सकता क्योंकि यह केवल बाजार नहीं है, यह संस्कार है।

महाराष्ट्र के एक किसान महेश सकुंडे ने रॉयटर्स से बातचीत में कहा कि सरकार को, इस बात की गारंटी लेनी चाहिए कि सस्ता विदेशी दूध हमारे बाजार को बर्बाद न करे। उन्होंने कहा—“अगर ऐसा हुआ तो पूरा दूध उद्योग और हम जैसे किसान खत्म हो जाएंगे।” यह डर केवल एक किसान का नहीं, बल्कि उन लाखों परिवारों का है जो एक गाय से शुरू होकर पूरे घर का खर्च चलाते हैं।

भारत का पशुपालन और डेयरी उद्योग करीब 7 से 9 लाख करोड़ रुपये के बीच का है, और यह देश की ग्रामीण अर्थव्यवस्था की रीढ़ है। इसे केवल अमेरिका की डेयरी लॉबी के दबाव में नहीं छोड़ा जा सकता। अमेरिका भले ही दुनिया का सबसे बड़ा डेयरी Exporter हो, लेकिन भारत दुनिया का सबसे बड़ा दूध उत्पादक और उपभोक्ता है। यहां की सड़कों पर, गांवों में, गलियों में—दूध केवल व्यापार नहीं है, यह जीवन का हिस्सा है।

भारत में आज भी लोग दूध को खरीदते वक्त यह पूछते हैं कि गाय का है या भैंस का। वे उसे छूकर, सूंघकर, देखकर पहचानते हैं। लेकिन अगर वही दूध किसी विदेशी पैकेट में आए और उसमें न लिखा हो कि यह मांसाहारी गाय का दूध नहीं है, तो यह भारतीयों के साथ विश्वासघात होगा।

अमेरिका चाह रहा है कि भारत इन नियमों में ढील दे, लेकिन भारत इस बार झुकने को तैयार नहीं। क्योंकि यह मामला केवल बाजार का नहीं, आत्मा का है। जब पूजा की थाली में दूध चढ़ता है, तो वह केवल आहार नहीं होता, वह भाव होता है—उस गाय के प्रति, उस संस्कृति के प्रति, उस परंपरा के प्रति, जिसे भारत हजारों सालों से जीता आया है।

आज जब भारत और अमेरिका एक बड़े व्यापारिक समझौते की तरफ बढ़ रहे हैं, तो यह जरूरी हो जाता है कि हम अपने मूल्यों और विश्वासों से समझौता न करें। दूध चाहे किसी भी देश से आए, वह केवल सफेद तरल न हो, वह हमारी श्रद्धा, हमारी संस्कृति और हमारी अस्मिता का प्रतीक हो।

और यही वजह है कि भारत ने कहा है—अगर डेयरी डील करनी है, तो शर्तें हमारी होंगी। क्योंकि भारत के लिए दूध सिर्फ पोषण नहीं है… यह विश्वास है। और विश्वास पर कभी भी व्यापार नहीं हो सकता।

Conclusion

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