Kolhapuri Sandal की असली पहचान! भारत की वो विरासत जो दुनिया भर में चमक रही है I 2025

कल्पना कीजिए… एक सदी का महानायक, सिल्वर स्क्रीन पर अपने स्टाइल में कहता है—”ये कोल्हापुरी है, जरा संभल के!” दर्शक तालियों से गूंज उठते हैं, और अचानक पूरे देश में एक फैशन ट्रेंड शुरू हो जाता है—Kolhapuri Sandal पहनने का। लेकिन क्या आपने कभी सोचा है कि वो चप्पल जो किसी ज़माने में अमिताभ बच्चन पहनते थे, जिसे बॉलीवुड ने गर्व से अपनाया… वो आखिर बनाता कौन है? जवाब सुनकर आप चौंक जाएंगे, क्योंकि ये कोई बड़ी कंपनी नहीं बनाती… बल्कि इसके पीछे छिपा है सदियों पुराना एक भारतीय हुनर, एक अनकही विरासत, और हज़ारों शिल्पकारों की मेहनत। आज हम इसी विषय पर गहराई में चर्चा करेंगे।

Kolhapuri Sandal—सिर्फ एक फुटवियर नहीं, बल्कि भारत की सांस्कृतिक पहचान का प्रतीक है। ये वो चप्पल है, जिसकी बनावट में न मशीन का योगदान है, न फैक्टरी का शोर। इसकी आत्मा बसी है कारीगरों के हाथों की गर्माहट में, जिनके लिए ये सिर्फ रोज़गार नहीं, बल्कि पीढ़ियों से चलती आ रही परंपरा है। कोल्हापुर के हर गली-कूचे में, चमड़े की वो खुशबू और हथौड़ी की खटखटाहट आज भी इस विरासत को जिंदा रखे हुए है। और यही वजह है कि इस चप्पल को कोई मल्टीनेशनल कंपनी नहीं, बल्कि कोल्हापुर और कर्नाटक के सीमावर्ती क्षेत्रों के छोटे-छोटे गाँवों के लोग बनाते हैं।

अठानी, निपाणी, चिकोड़ी, रायबाग, बेलगावी, बागलकोट और धारवाड़… इन इलाकों के घरों में हर सुबह एक ही रचना शुरू होती है—Kolhapuri Sandal की। यह एक सामूहिक कला है, जिसमें पूरा परिवार—बूढ़े दादा से लेकर बच्चे तक—अपनी भूमिका निभाता है। पुरुष चमड़े को काटते हैं, महिलाएं धागा पिरोती हैं, और बच्चे चप्पल के कोनों को आकार देते हैं। कोई यूनिफॉर्म नहीं, कोई मशीन नहीं… फिर भी हर जोड़ी एक जैसी। यही है असली मास्टरपीस।

आज हम जिस भारत की बात करते हैं, जो ‘मेक इन इंडिया’ को गर्व से पेश करता है, उसकी असली मिसाल ये Kolhapuri Sandal हैं। लेकिन इनके पीछे जो असंगठित उद्योग है, वो उतना ही अनदेखा और संघर्षमय है। ये वो उद्योग है जो न तो सरकारी फंडिंग से चलता है, न ही बड़ी कंपनियों के CSR से। फिर भी इसके पीछे जो जूनून है, वो किसी स्टार्टअप की ताकत से कम नहीं। कोल्हापुर में करीब 4000 दुकानें आज भी इस चप्पल की बिक्री करती हैं। और इनमें से कई दुकानें ऐसी हैं जो तीन-तीन पीढ़ियों से इस परंपरा को निभा रही हैं।

इन दुकानों में से एक है ‘आदर्श चर्म उद्योग केंद्र’। यहां आज भी पुराने तरीके से चप्पलें बनाई जाती हैं—हाथ से सिलकर, हाथ से चमकाकर, और आत्मा से सजाकर। और यही आदर्श है उस भारतीय हस्तकला का, जो बदलते दौर में भी अपनी पहचान बनाए हुए है। इन दुकानों के अलावा, कोल्हापुर, सांगली, सतारा, सोलापुर जैसे क्षेत्रों में भी छोटे-छोटे कारीगर समूह इस चप्पल की आत्मा को बनाए हुए हैं। कई ऐसे कारीगर परिवार हैं, जैसे साहू और चोपड़े, जिनके पूर्वज भी इसी कला से जुड़े थे, और आज भी वही धड़कन उनके घरों में चलती है।

लेकिन इस चप्पल की कहानी यहीं खत्म नहीं होती। इसकी जड़ें इतिहास में और भी गहरी हैं। नवभारत टाइम्स की रिपोर्ट के मुताबिक, Kolhapuri Sandal का इतिहास 12वीं से 13वीं शताब्दी का है, जब कोल्हापुर के राजा बिज्जल और उनके मंत्री बसवन्ना ने मोची समुदाय को प्रोत्साहन देकर इसे विकसित किया। ये चप्पलें उस समय सिर्फ ‘कोल्हापुरी’ नहीं कहलाती थीं, बल्कि जिन गाँवों में ये बनती थीं, उन्हीं के नाम पर जैसे—कापशी, पायटान, कच्छकड़ी, बक्कलनाली और पुकरी—इन्हें जाना जाता था।

फिर समय आया जब इस हस्तकला ने अपने व्यापारिक पंख फैलाने शुरू किए। 20वीं सदी की शुरुआत में जब छत्रपति शाहू महाराज का शासन आया, तब Kolhapuri Sandal को व्यवसाय के रूप में देखा जाने लगा। शाहू महाराज ने इस उद्योग को मजबूत करने के लिए 29 टैनिंग सेंटर खोले, जिससे कारीगरों को बेहतर साधन और समर्थन मिला। ये वही दौर था जब कोल्हापुरी चप्पलें मुंबई और पुणे जैसे शहरों में दिखने लगीं। ब्रिटिश राज के दौरान ये चप्पलें हस्तशिल्प मेलों में प्रदर्शित की जाती थीं और धीरे-धीरे यह एक शहरी फैशन ट्रेंड बन गई।

1960 के दशक तक Kolhapuri Sandal एक ‘फैशन स्टेटमेंट’ बन चुकी थी। बॉलीवुड फिल्मों में इनका इस्तेमाल हुआ, राजनेता इन्हें पहनकर रैलियों में जाते थे, और गांव से शहर तक, हर जगह इनकी मांग बढ़ती गई। लेकिन इस लोकप्रियता के बावजूद, इन चप्पलों की पहचान और उनके निर्माता पीछे छूटते रहे—गुमनाम और उपेक्षित।

और फिर आया एक ऐतिहासिक मोड़—साल 2019। उस साल कोल्हापुरी चप्पलों को मिला (Geographical Indication – G I) टैग। यह सिर्फ एक सरकारी मुहर नहीं थी, यह एक सांस्कृतिक पुनर्जन्म था। इससे यह प्रमाणित हो गया कि असली Kolhapuri Sandal सिर्फ कोल्हापुर और उसके सीमावर्ती क्षेत्र में ही बनती हैं। इससे इस विरासत को कानूनी सुरक्षा मिली, और कारीगरों को एक नई पहचान।

लेकिन आधुनिक बाज़ार के नियम अलग हैं। आज जब सब कुछ ऑनलाइन हो गया है, तो Kolhapuri Sandal भी डिजिटल दुनिया में पहुंच चुकी है। कई स्टार्टअप और ब्रांड इन चप्पलों को ऑनलाइन बेच रहे हैं—जैसे दिव्यम लेदर क्राफ्ट्स प्राइवेट लिमिटेड (कोराकारी), ट्रूयार्न कम्फर्टकार्ट और रॉयल ख्वाब। इनमें से दिव्यम लेदर क्राफ्ट्स ने न केवल भारत में बल्कि विदेशों में भी Kolhapuri Sandal के Export में एक अहम भूमिका निभाई है। हालांकि, असली कारीगर आज भी कोल्हापुर के गलियों में काम कर रहे हैं… बिना किसी ब्रांड नेम के, बस हुनर के बल पर।

Kolhapuri Sandal की एक और विशेषता है—उसकी सादगी और मजबूती। जहां आज के जमाने में जूते-चप्पल महीनों में खराब हो जाते हैं, वहीं एक असली कोल्हापुरी सालों तक साथ देती है। इसमें न कोई नट बोल्ट होता है, न मशीन फिटिंग। इसका हर हिस्सा हाथ से जोड़ा गया होता है, और शायद यही वजह है कि इसे पहनना सिर्फ सुविधा नहीं, एक गर्व की बात होती है।

आज भी एक Kolhapuri Sandal की कीमत 500 से 1000 रुपए के बीच होती है। लेकिन हैरानी की बात तब होती है, जब इसी डिजाइन को विदेशी कंपनियां कॉपी कर लाखों में बेचती हैं। हाल ही में इटली की लग्ज़री फैशन ब्रांड प्राडा ने अपने 2026 के स्प्रिंग/समर कलेक्शन में कोल्हापुरी जैसी ही चप्पल को शामिल किया, जिसकी कीमत 1 लाख रुपए रखी गई। सोशल मीडिया पर इस पर हंगामा मचा और भारत में इसके खिलाफ विरोध भी हुआ।

यह विवाद सिर्फ एक डिजाइन की चोरी नहीं था—यह एक संस्कृति की अनदेखी थी। एक ऐसा उदाहरण जहां विदेशी ब्रांड ने भारत की पारंपरिक कला को ‘फैशन आइटम’ की तरह पेश किया, लेकिन उसके मूल निर्माता, उसके असली कलाकार… गुमनाम ही रह गए। यह सवाल उठा कि क्या हमारी विरासत इतनी कमजोर है कि कोई भी उसे उठा कर अपना ले?

इस घटना ने Kolhapuri Sandal को फिर से वैश्विक सुर्खियों में ला दिया। लेकिन इस बार ज़िम्मेदारी हमारी भी है। हमें समझना होगा कि ये सिर्फ एक चप्पल नहीं, बल्कि एक इतिहास है, एक समुदाय की पहचान है, और हज़ारों लोगों की आजीविका का साधन है।

Kolhapuri Sandal की कहानी भारत की आत्मा से जुड़ी है—एक ऐसी आत्मा जो मिट्टी से जन्म लेती है, हाथों से आकार लेती है, और फिर दुनिया भर के कदमों को सजाती है। आज जब हम ‘लोकल फॉर वोकल’ की बात करते हैं, तो हमें सिर्फ बोलना नहीं, उस पर चलना भी होगा। और Kolhapuri Sandal शायद वो पहला कदम हो सकती है, जिससे हम अपनी जड़ों को फिर से थाम सकें।

Conclusion

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