Inspiring: H1B visa कब और क्यों H1B वीज़ा की हुई शुरुआत? जानें विवाद और बदलाव की पूरी कहानी।

ज़रा सोचिए… आप एक ऐसे युवा हैं जो किसी छोटे से भारतीय शहर से पढ़ाई करके आईआईटी या किसी बड़े इंजीनियरिंग कॉलेज तक पहुंचते हैं। आपकी मेहनत रंग लाती है और आपको अमेरिका की किसी दिग्गज टेक कंपनी से नौकरी का ऑफर मिलता है। आपके सपनों की उड़ान अब सिर्फ एक दस्तावेज़ पर टिकी है—एक ऐसा दस्तावेज़ जो आपके जीवन का रास्ता बदल सकता है। यही दस्तावेज़ है H1B visa। इस वीज़ा ने लाखों भारतीयों को अमेरिका में नई पहचान दी, लेकिन इसी ने अमेरिकी राजनीति में बार-बार तूफ़ान भी खड़ा किया। यह वीज़ा कभी उम्मीद का प्रतीक बना, तो कभी विवाद और सख्ती का शिकार। आज हम इसी विषय पर गहराई में चर्चा करेंगे।

1990 का दशक अमेरिका के लिए तेज़ी से बदलते समय का दौर था। टेक्नोलॉजी की दुनिया फैल रही थी, कंप्यूटर और इंटरनेट आम हो रहे थे। अमेरिका के पास संसाधन तो थे, लेकिन उसे हर क्षेत्र में कुशल लोग चाहिए थे—वैज्ञानिक, इंजीनियर, डॉक्टर और तकनीकी विशेषज्ञ। तभी अमेरिकी कांग्रेस ने एक कानून पास किया—Immigration Act of 1990। इसी कानून के तहत H1B visa कार्यक्रम की शुरुआत हुई। इसका उद्देश्य साफ था—अमेरिकी कंपनियों को यह अधिकार देना कि वे विदेशी कर्मचारियों को अस्थायी आधार पर नौकरी पर रख सकें, ताकि जहां स्थानीय प्रतिभा कम हो, वहां कमी पूरी की जा सके।

इस कार्यक्रम की शुरुआत के पीछे एक और सोच थी। अमेरिका हमेशा से खुद को अवसरों की धरती मानता आया है। उसका मानना था कि अगर दुनिया के बेहतरीन दिमाग वहां आएंगे, तो अमेरिका Global innovation का केंद्र बना रहेगा। और सच भी यही हुआ। भारत जैसे देशों से हजारों प्रतिभाशाली युवा अमेरिका गए। उनका योगदान इतना गहरा रहा कि आज सिलिकॉन वैली की कई कंपनियों की धड़कन भारतीय इंजीनियरों और वैज्ञानिकों पर टिकी है।

अगर इसे एक उदाहरण से समझें तो मान लीजिए अमन नाम का एक लड़का IIT Bombay से बीटेक करता है। उसे अमेज़न जैसी कंपनी से 1 करोड़ का पैकेज मिलता है, लेकिन यह नौकरी अमेरिका में है। ऐसे में अमन को H1B visa चाहिए होगा। अमेज़न उसकी ओर से आवेदन करेगी और अमन अमेरिका जाकर अपने सपनों को जी सकेगा। यही कहानी हजारों अमन, सीमा, राजेश और नीलम की रही है, जिन्होंने इसी रास्ते अपने परिवारों की किस्मत बदल दी।

लेकिन जहां सपनों की कहानियां लिखी जा रही थीं, वहीं विवाद भी जन्म ले रहे थे। अमेरिकी कामगार संगठनों ने आरोप लगाया कि कंपनियां H1B visa का इस्तेमाल, सस्ते विदेशी कर्मचारियों को लाकर अमेरिकी नौकरियां छीनने के लिए कर रही हैं। खासतौर पर आउटसोर्सिंग कंपनियां, जो भारत जैसी जगहों से युवा इंजीनियरों को लेकर आतीं और उन्हें अमेरिका भेज देतीं। आलोचकों का कहना था कि इससे अमेरिकी कर्मचारियों का वेतन घट रहा है और कंपनियां सिर्फ लागत बचाने के लिए ऐसा कर रही हैं।

दूसरी तरफ समर्थकों का तर्क था कि H-1B धारक अमेरिकी अर्थव्यवस्था के लिए वरदान हैं। उन्होंने Innovation को बढ़ावा दिया, कंपनियों को नई ऊंचाइयों तक पहुंचाया और अमेरिका को तकनीकी शक्ति बनाया। आंकड़े भी इस बात की गवाही देते हैं—गूगल, माइक्रोसॉफ्ट, अमेज़न और मेटा जैसी कंपनियों में हजारों कर्मचारी H-1B पर काम करते हैं और इनमें से बड़ी संख्या भारतीयों की है। अगर ये न हों, तो अमेरिका की टेक इंडस्ट्री वैसी मजबूत नहीं दिखती।

ट्रंप प्रशासन के दौरान यह बहस अपने चरम पर पहुंच गई। 2016 में चुनावी अभियान के दौरान ट्रंप ने बार-बार कहा कि H-1B का दुरुपयोग हो रहा है, और इसे बंद करना चाहिए या फिर बेहद सख्त बनाना चाहिए। उनकी सरकार ने सत्ता में आते ही कदम उठाए। H-1B की परिभाषा को कड़ा किया गया। “स्पेशलिटी ऑक्युपेशन” यानी विशेष व्यवसाय की शर्तें और सख्त कर दी गईं। थर्ड-पार्टी प्लेसमेंट पर रोक लगी। Rejection rate अचानक बढ़कर 15% हो गई। शुरुआती नौकरियों के लिए 24% आवेदन खारिज हो गए, जबकि Renewal के लिए 12% तक रिजेक्शन हुआ। इससे भारतीय परिवारों पर गहरा असर पड़ा, क्योंकि उनकी ज़िंदगियां अमेरिका और भारत के बीच अधर में लटक गईं।

अब ट्रंप प्रशासन ने एक और बड़ा बदलाव किया है। उन्होंने H1B visa की फीस को अचानक 1,500 डॉलर से बढ़ाकर 1,00,000 अमेरिकी डॉलर, यानी करीब 88 लाख रुपये सालाना कर दिया। सोचिए, एक ऐसा शुल्क जिसे वहन करना कंपनियों के लिए भी आसान नहीं है। इस फैसले के बाद अमेज़न, माइक्रोसॉफ्ट, जेपी मॉर्गन जैसी दिग्गज कंपनियों ने तुरंत अपने कर्मचारियों को संदेश भेजा कि वे, अमेरिका छोड़कर न जाएं और अगर बाहर हैं तो तुरंत वापस लौट आएं। अमेज़न ने तो मेल में लिखा कि 21 सितंबर की रात 12 बजे तक सभी H-1B और H-4 वीज़ा धारक अमेरिका लौट आएं, वरना भारी कीमत चुकानी होगी।

इतिहास पर नजर डालें तो H-1B की संख्या साल-दर-साल बदलती रही है। Pew Research के आंकड़ों के मुताबिक, 2,000 में जितने आवेदन स्वीकृत हुए थे, 2,024 तक उनकी संख्या दोगुनी से ज्यादा हो गई। 2,022 में यह 4.42 लाख तक पहुंच गई थी। 2,024 में लगभग 4 लाख आवेदन मंजूर हुए। इनमें से 65% Renewal के थे और सिर्फ 35% नए रोजगार के लिए थे। यह दिखाता है कि एक बार जब कोई H-1B पाता है, तो वह इसे बनाए रखने की कोशिश करता है। Rejection rate भी बदलती रही—2,018 में यह 15% तक पहुंच गई थी, लेकिन 2,022 में घटकर 2% रह गई, जो 2,009 के बाद सबसे कम थी।

अमेरिकी जनता की राय भी दो हिस्सों में बंटी हुई है। Pew Research के सर्वे के मुताबिक, 40% अमेरिकी मानते हैं कि highly-skilled migrants को प्राथमिकता मिलनी चाहिए। वहीं 60% लोग मानते हैं कि Foreign workers उन नौकरियों को भरते हैं, जिन्हें अमेरिकी नागरिक करना ही नहीं चाहते। यानी एक तरफ उन्हें खतरा दिखता है, तो दूसरी तरफ राहत भी। यही विरोधाभास H-1B को राजनीति का अहम मुद्दा बना देता है।

कंपनियों की बात करें तो अमेज़न सबसे ऊपर है। 2,023 में उसे 11,000 से ज्यादा H-1B मंजूरियाँ मिलीं, जो कुल आवेदनों का 3% हैं। गूगल, इंफोसिस, टाटा कंसल्टेंसी सर्विसेज और कॉग्निजेंट भी टॉप नियोक्ताओं में शामिल हैं। दिलचस्प यह है कि 2,016 तक टॉप 10 नियोक्ताओं में छह भारतीय कंपनियां थीं, लेकिन अब यह घटकर तीन रह गई हैं। इसका मतलब यह है कि अमेरिकी दिग्गज कंपनियां अब खुद H-1B पर ज्यादा निर्भर हो चुकी हैं।

लेकिन बड़ा सवाल यह है कि क्या इतनी भारी फीस से अमेरिका में टैलेंट का प्रवाह थम जाएगा? आलोचक कहते हैं कि यह कदम कुशल लोगों को अमेरिका आने से रोक देगा। कंपनियां अब भारत, यूरोप या एशिया में अपने ऑफिस बढ़ाएंगी। इससे अमेरिका की टेक इंडस्ट्री कमजोर हो सकती है। वहीं समर्थकों का कहना है कि इस फीस से सुनिश्चित होगा कि सिर्फ “सच में सर्वश्रेष्ठ” ही अमेरिका आएंगे। यह फिल्टर की तरह काम करेगा।

H-1B सिर्फ एक वीज़ा नहीं है। यह भारतीय मध्यमवर्गीय परिवारों के सपनों की सीढ़ी है। लाखों परिवारों ने अपने बच्चों को आईआईटी और इंजीनियरिंग कॉलेज भेजा, ताकि वे H-1B के सहारे अमेरिका जा सकें। यह सिर्फ नौकरी नहीं, बल्कि पूरे परिवार के लिए नए जीवन का टिकट बन गया। वहीं अमेरिका के लिए यह एक रणनीतिक हथियार था, जिससे उसने पूरी दुनिया से टैलेंट खींचा और सिलिकॉन वैली को धरती का सबसे बड़ा इनोवेशन हब बनाया।

लेकिन आज यह कहानी मोड़ पर खड़ी है। 1,00,000 डॉलर की फीस सवाल खड़े कर रही है। क्या अब भारतीय युवा यूरोप, कनाडा या ऑस्ट्रेलिया की ओर रुख करेंगे? क्या अमेरिका की तकनीकी ताकत का आधार हिल जाएगा? क्या सिलिकॉन वैली की चमक पहले जैसी रहेगी?

H-1B की शुरुआत Innovation को बढ़ावा देने के लिए हुई थी, लेकिन अब यह विवाद और सख्ती के घेरे में है। यह वीज़ा आने वाले सालों में भी दुनिया भर के सपनों, बहसों और राजनीति का सबसे बड़ा केंद्र बना रहेगा। यह एक ऐसी कहानी है, जिसमें उम्मीद भी है, डर भी है, और संघर्ष भी। और शायद यही वजह है कि H-1B सिर्फ एक इमिग्रेशन प्रोग्राम नहीं, बल्कि आधुनिक दौर की सबसे बड़ी मानवीय और आर्थिक गाथाओं में से एक है।

Conclusion

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