कभी-कभी इतिहास खुद को दोहराता नहीं, बल्कि पूरी दुनिया को झकझोर देता है। कुछ वैसा ही हुआ जब ब्रिटेन के प्रधानमंत्री स्टार्मर ने वो शब्द कहे, जो दशकों से चली आ रही Global policy पर एक तरह की समाधि की घोषणा बन गए। एक ऐसा विस्फोट जिसने न केवल व्यापार की दीवारें हिला दीं, बल्कि अमेरिका की अगुवाई में चल रही टैरिफ जंग की असलियत भी दुनिया के सामने ला दी। एक ऐसा संकेत, जो इस ओर इशारा करता है कि अब Global liberalization अंतिम सांसें गिन रहा है। सवाल ये है—क्या अब दुनिया फिर से अपनी सरहदें बंद करने वाली है? आज हम इसी विषय पर गहराई में चर्चा करेंगे।
ब्रिटेन, जो लंबे समय से अमेरिका की परछाई में नीतियां बनाता रहा है, अचानक global platform पर विरोध के स्वर में बोलने लगा। प्रधानमंत्री स्टार्मर ने दुनिया को चेता दिया कि डोनाल्ड ट्रम्प की टैरिफ जंग अब केवल अमेरिका-चीन का मुद्दा नहीं रही, बल्कि यह पूरे विश्व के आर्थिक संतुलन को अस्थिर कर चुकी है। और यही नहीं, उन्होंने यह भी कहा कि अब वक्त आ गया है कि देश इस भ्रम से बाहर निकलें कि, Global liberalization सबके लिए फायदेमंद है। जब ब्रिटेन जैसे सहयोगी देश ही अमेरिका की नीतियों पर सवाल उठाने लगें, तो समझ लीजिए कि तस्वीर वाकई गंभीर है।
स्टार्मर की इस बात का समर्थन सिंगापुर के प्रधानमंत्री लॉरेंस वोंग ने भी किया। उन्होंने ट्रम्प की नीतियों को सिर्फ आक्रामक नहीं, बल्कि विनाशकारी कहा। लॉरेंस वोंग ने चेताया कि अमेरिका द्वारा उठाए गए टैरिफ कदमों से Global trade framework में असंतुलन पैदा हो गया है। इन कदमों से केवल वस्त्रों या मशीनों पर असर नहीं पड़ा, बल्कि यह लोकतांत्रिक मूल्यों और मानवीय सिद्धांतों को भी चुनौती दे रहा है। उन्होंने कहा कि इस तरह की आर्थिक लड़ाई अंततः राजनीतिक और सामाजिक टकराव में बदल सकती है।
आज जो हालात दिख रहे हैं, उनकी जड़ें पिछली सदी में पनपी उस सोच में हैं, जिसे हमने Global liberalization कहा। यह विचार सबसे पहले तब पनपा जब चीन ने 1978 में अपनी बंद आर्थिक नीतियों को छोड़, खुले व्यापार की राह अपनाई। उसके बाद अमेरिका और फिर सोवियत संघ के विघटन के साथ कई नए राष्ट्र बने, जिन्हें दुनिया से सहयोग लेना था। मजबूरी और उम्मीद दोनों ने Global व्यापार की इस सोच को जन्म दिया। एक ऐसी सोच जिसने देशों को जोड़ा, लेकिन साथ ही उन्हें अपने मूल्यों से भी दूर कर दिया।
भारत का अनुभव इस Global liberalization का सबसे गहरा उदाहरण है। 1991 में जब भारत को अपना सोना तक गिरवी रखना पड़ा था, तब पहली बार देश ने महसूस किया कि बंद अर्थव्यवस्था की नीति अब नहीं चलेगी। नरसिंह राव की सरकार ने International Monetary Fund, और World Bank की शर्तों को स्वीकार किया और Liberalization की राह पर बढ़ चला। यह निर्णय महज आर्थिक नहीं था, यह भारत की नियति बदलने वाला क्षण था। लेकिन यह राह फूलों से नहीं, शर्तों की कीलों से भरी थी।
भारत को विदेशी मदद के लिए अपनी मुद्रा का अवमूल्यन करना पड़ा। Import duty कम किए गए, सरकारी नियंत्रण खत्म किया गया और निजीकरण की लहर चली। उस दौर में लोगों को यह एक नई सुबह लगती थी, लेकिन आज जब हम पीछे मुड़कर देखते हैं, तो समझ आता है कि उस सुबह के साथ एक लंबी दोपहर की तपन भी आई थी। भारत जैसे देश ने आर्थिक विकास तो किया, लेकिन सामाजिक और सांस्कृतिक मूल्यों की कीमत पर।
सिर्फ भारत ही नहीं, यूरोप के कई देशों ने भी इसी मजबूरी के चलते Global liberalization को अपनाया। लेकिन तब किसी ने यह नहीं सोचा था कि यह नीति भविष्य में ताकतवर देशों के लिए एक राजनीतिक हथियार बन जाएगी। अमेरिका ने एक समय इस विचारधारा को बढ़ावा दिया, लेकिन अब ट्रम्प की अगुवाई में वही अमेरिका इस नीति के खिलाफ खड़ा है। और यह विरोध सिर्फ टैरिफ तक सीमित नहीं है, यह एक नई किस्म की आर्थिक राष्ट्रवाद की तरफ इशारा करता है।
डोनाल्ड ट्रम्प की टैरिफ नीति ने दुनिया में ऐसा तूफान खड़ा कर दिया है, जो न सिर्फ व्यापारिक संतुलन को बिगाड़ रहा है, बल्कि आर्थिक स्थिरता के स्तंभ भी हिला रहा है। उन्होंने चीन, भारत, यूरोप—किसी को नहीं छोड़ा। हर देश को यह एहसास हुआ कि अब Global बाजार में भरोसा नहीं, बल दिखाना होगा। और जब भरोसे की जगह डर लेने लगे, तो Global व्यापार की नींव खुद-ब-खुद दरकने लगती है।
ब्रिटेन का बयान इसीलिए महत्वपूर्ण है, क्योंकि यह उस सहयोगी की आवाज़ है जिसने दशकों तक अमेरिका की हां में हां मिलाई है। और अब जब वही देश कह रहा है कि Global liberalization अंतिम सांसें गिन रहा है, तो सवाल उठता है—क्या यह सिर्फ राजनीतिक बयान है या आने वाले तूफान का पूर्वाभास?
इन तमाम घटनाओं के बीच सबसे दिलचस्प पहलू यह है कि जिन देशों ने Global liberalization को सबसे ज्यादा बढ़ावा दिया था, वही अब इसकी सीमाएं तय करने लगे हैं। अमेरिका अब कहता है कि उसे अपने उद्योगों को बचाना है। वह चाहता है कि आयातित वस्तुओं पर भारी-भरकम टैरिफ लगाए जाएं ताकि घरेलू उत्पादक मजबूती से खड़े हो सकें। लेकिन क्या यह नीति दुनिया के बाकी देशों को भी मजबूर नहीं करेगी कि वे भी टैरिफ लगाएं? अगर हर कोई दीवारें खड़ी करने लगे, तो Global व्यापार का मतलब ही खत्म हो जाएगा।
टैरिफ युद्ध केवल व्यापारिक हथियार नहीं, बल्कि कूटनीतिक हथियार भी बन चुके हैं। और जब किसी देश की कूटनीति केवल व्यापार आधारित हो जाए, तो वहां लोकतंत्र, स्वतंत्रता, और मानवाधिकार पीछे छूट जाते हैं। यही कारण है कि लॉरेंस वोंग जैसे नेताओं ने इसे लोकतांत्रिक मूल्यों के लिए घातक कहा। आर्थिक युद्धों की यह नई शैली, धीरे-धीरे दुनिया को उस दौर की ओर ले जा रही है जहां एकाधिकार, नियंत्रण और डर ही नीति का आधार होंगे।
इस पूरे घटनाक्रम को देखें, तो साफ हो जाता है कि अमेरिका अब किसी साझा Global हित की बात नहीं कर रहा। अब उसकी सोच “अमेरिका फर्स्ट” तक सिमट गई है। और जब एक महाशक्ति खुद को बाकी दुनिया से ऊपर समझने लगे, तो यह बाकी राष्ट्रों के लिए खतरे की घंटी होती है। ब्रिटेन और सिंगापुर जैसे देशों ने इस खतरे को समय रहते पहचाना है, लेकिन क्या बाकी देश तैयार हैं?
दुनिया के सामने अब दो ही रास्ते हैं—या तो वे अमेरिका की इस एकतरफा टैरिफ नीति को स्वीकार कर लें और Global असंतुलन का हिस्सा बन जाएं, या फिर अपने-अपने स्तर पर आर्थिक आत्मनिर्भरता की ओर कदम बढ़ाएं। भारत जैसे देश के लिए यह दूसरा रास्ता ही उचित है। और यहीं महात्मा गांधी का विचार सबसे प्रासंगिक हो जाता है—स्वराज। गांधी जी ने जिस स्वराज की कल्पना की थी, वह सिर्फ राजनीतिक नहीं, बल्कि आर्थिक स्वराज भी था। एक ऐसा ढांचा जिसमें गांवों से लेकर शहरों तक, हर व्यक्ति आर्थिक रूप से सक्षम हो।
ट्रम्प की टैरिफ नीति एक मौका है, संकट में छुपा एक संकेत। यह हमें यह सोचने पर मजबूर करता है कि क्या हम वाकई किसी और देश की नीतियों पर निर्भर रहकर विकसित हो सकते हैं? या फिर हमें अपने संसाधनों, अपने उद्यमियों, और अपनी सोच पर भरोसा करना होगा? भारत के लिए यह अवसर है कि वह अपने आर्थिक ढांचे को मज़बूत करे, अपने उत्पादों को Global quality तक पहुंचाए और साथ ही आत्मनिर्भरता की दिशा में एक ठोस कदम उठाए।
इस पूरे घटनाक्रम को देखकर एक और बात स्पष्ट होती है—विश्व बैंक, IMF जैसी संस्थाएं जो कभी आर्थिक संकट से जूझते देशों की रक्षक मानी जाती थीं, वे भी अब बड़ी शक्तियों की नीति का हिस्सा बन चुकी हैं। जब तक इनका संचालन निष्पक्ष और समावेशी नहीं होगा, तब तक Global economic balance एक छलावा ही रहेगा।
अमेरिका की इस नीति का दूसरा सबसे बड़ा असर सामाजिक और सांस्कृतिक स्तर पर भी दिखाई देगा। जब कोई देश टैरिफ लगाकर बाहरी चीजों को रोकता है, तो वह न केवल वस्तुओं को, बल्कि विचारों और संस्कृति को भी सीमित करता है। ऐसा होने पर समाज एक प्रकार के संकीर्णता में घिरने लगता है। भारत जैसे देश, जहां विविधता उसकी पहचान है, वहां ऐसे मॉडल को अपनाना विनाशकारी हो सकता है।
इसलिए भारत को चाहिए कि वह एक संतुलन बनाए। Global व्यापार का हिस्सा भी बने और आत्मनिर्भरता की ओर भी बढ़े। न तो पूरी तरह से अमेरिका पर निर्भर हो और न ही चीन जैसे आर्थिक विस्तारवाद के सामने झुके। आज के दौर में असली ताकत उसी देश के पास है जो अपने लोगों को रोज़गार दे सके, अपने उद्यमियों को प्रोत्साहन दे सके और global crises का जवाब अपने तरीके से दे सके।
तो अब जब ब्रिटेन और सिंगापुर जैसे देश खुलकर बोलने लगे हैं, तो बाकी दुनिया को भी चुप्पी तोड़नी होगी। यह वक्त है जब देशों को सिर्फ बयान नहीं, बल्कि दिशा तय करनी होगी। अगर हम चाहते हैं कि भविष्य सुरक्षित हो, तो हमें आज से ही ऐसी नीतियां बनानी होंगी जो सिर्फ लाभ के नहीं, बल्कि स्थिरता और समावेशिता के आधार पर हों।
कहानी का सार यही है कि Global liberalization अब वैसा नहीं रहा जैसा वह कभी था। अब यह सिर्फ एक आर्थिक मॉडल नहीं, बल्कि एक राजनीतिक औजार बन गया है, जिसे ताकतवर देश अपनी सहूलियत के लिए इस्तेमाल कर रहे हैं। ऐसे में हर देश को सोचना होगा—क्या वह दूसरों की नीतियों का शिकार बनेगा या अपने सिद्धांतों पर टिके रहकर नया रास्ता बनाएगा? आख़िर में, एक सवाल हम सबको खुद से पूछना चाहिए—क्या Global व्यापार और सहयोग का सपना अब बिखर रहा है? या फिर हम सब मिलकर उसे एक नई दिशा दे सकते हैं? जवाब हमारे पास है, और शायद यह समय ही सबसे बड़ा अवसर बन जाए।
Conclusion
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