Builder की दिवालियापन में भी सुरक्षित रहेगा आपका सपना! जानिए बायर्स के लिए अच्छी खबर। 2025

एक सपना… जिसमें दीवारें होती हैं, खिड़कियों से रोशनी आती है, और हर कोने में उम्मीदें पलती हैं। लेकिन सोचिए, जब वही सपना—जिसके लिए आपने अपनी पूरी कमाई झोंक दी हो, EMI भरते-भरते बाल सफेद हो गए हों—एक दिन अचानक ‘इनसॉल्वेंसी कोर्ट’ के किसी फैसले में फंस जाए… तो क्या होगा? यही हो रहा है दिल्ली-एनसीआर के हजारों फ्लैट बायर्स के साथ। जिनके लिए घर अब ‘आशियाना’ नहीं, एक ऐसा ख्वाब बन चुका है जो आंखों में तो है, लेकिन ज़िंदगी में नहीं। आज हम इसी विषय पर गहराई में चर्चा करेंगे।

सुपरटेक इकोविलेज 2, आम्रपाली ड्रीम वैली, शिवालिक होम्स 2, ATS Le Grandiose 2—ये सिर्फ प्रोजेक्ट्स के नाम नहीं हैं, ये अधूरे घरों के साथ अधूरे हो चुके भरोसे की कहानियाँ हैं। लोग जो कल तक अपने नए घर की बालकनी में बैठकर चाय पीने के सपने देख रहे थे, आज वही लोग कोर्ट के बाहर अगली तारीख का इंतजार कर रहे हैं। उन्होंने सोचा था, फ्लैट बुक करेंगे, कुछ साल में घर मिल जाएगा। लेकिन वक्त बीतता गया, EMI चलती रही, और दीवारें खड़ी नहीं हुईं।

दिल्ली-एनसीआर के ऐसे ही सैकड़ों प्रोजेक्ट्स हैं जहां काम अधूरा पड़ा है, और खरीदार 10 15 साल से इंतजार कर रहे हैं। ना Builder जवाब देता है, ना बैंक मदद करता है, और ना ही कोई सरकारी अफसर इस इंतजार को छोटा करने के लिए सामने आता है। ATS Le Grandiose 2 के मनीष ने अपने करियर की सारी सेविंग्स झोंक दी थी, सोचा था इस प्रोजेक्ट में Investment करके घर मिल जाएगा। लेकिन 2024 में दो पार्टनर के विवाद के चलते मामला NCLT में चला गया और उसके बाद से काम पूरी तरह ठप है।

अब सवाल उठता है—जब कोई Builder दिवालिया घोषित हो जाता है, तो क्या बायर्स का पैसा डूब जाता है? इसका जवाब है—ज़रूरी नहीं। इस पूरे सिस्टम के पीछे एक कड़ा, लेकिन जटिल कानूनी ढांचा है—जिसे NCLT यानी National Company Law Tribunal कहते हैं। जब कोई Builder या कंपनी खुद को दिवालिया घोषित करती है या किसी केस में उसे ऐसा घोषित किया जाता है, तो सरकार एक अधिकारी नियुक्त करती है जिसे कहते हैं IRP यानी Insolvency Resolution Professional।

अब सवाल है कि IRP का काम क्या होता है? ये अधिकारी उस कंपनी के तमाम लेन-देन, संपत्ति और देनदारियों का आकलन करता है। IRP सबसे पहले सभी बायर्स से कहता है कि वे अपने क्लेम दाखिल करें। जो पैसा आपने Builderको दिया है, जितना भुगतान किया है, उस पर ब्याज जोड़कर एक क्लेम बनता है—उसे दर्ज किया जाता है। इसके बाद IRP उस क्लेम के आधार पर कंपनी की मौजूदा वित्तीय हालत को जांचता है, और तय करता है कि क्या कंपनी को दोबारा खड़ा किया जा सकता है या नहीं।

इस प्रक्रिया में एक कमेटी बनती है—COC यानी Committee of Creditors। इस कमेटी में फ्लैट बायर्स, फाइनेंशियल क्रेडिटर्स, बैंक और बाकी हितधारक शामिल होते हैं। ये COC तय करती है कि आगे क्या करना है—क्या कंपनी को दोबारा खड़ा किया जाए या किसी दूसरे डेवलपर को सौंपा जाए?

अगर किसी दूसरे डेवलपर को प्रोजेक्ट सौंपना है, तो वो डेवलपर एक प्रस्ताव लेकर आता है। इस प्रस्ताव में वो बताता है कि वो अधूरे प्रोजेक्ट को कैसे पूरा करेगा, कितने पैसे खर्च होंगे, और क्या शर्तें होंगी। COC उस डेवलपर की वित्तीय स्थिति, पिछले रिकॉर्ड और वादों की जांच करती है, और अगर सब कुछ ठीक लगता है, तो मंजूरी दे देती है।

यानी एक तरह से घर बायर्स के पास दो रास्ते होते हैं—या तो वो कंपनी को दोबारा खड़ा करने की दिशा में साथ दें, या फिर किसी दूसरे डेवलपर को अपनी मंजूरी दें। लेकिन यहाँ एक बड़ी चुनौती है—वक्त। ये पूरी प्रक्रिया महीनों नहीं, बल्कि सालों खींच सकती है। IRP की नियुक्ति, क्लेम फाइलिंग, एसेसमेंट, COC की मीटिंग्स, प्रस्तावों की समीक्षा, कोर्ट की मंजूरी—हर कदम में वक्त लगता है, और इस दौरान बायर्स का सपना, चिंता और खर्च—all तीनों बढ़ते ही जाते हैं।

IRP का एक बड़ा काम यह भी होता है कि वो संभावनाएं तलाशे कि, क्या कोई नया डेवलपर इस प्रोजेक्ट को टेकओवर करने के लिए तैयार है। कई बार ऐसा होता है कि जिस इलाके में ये प्रोजेक्ट्स हैं, वहाँ रियल एस्टेट की कीमतें बढ़ जाती हैं। ऐसे में नए डेवलपर्स को दिलचस्पी होती है क्योंकि उन्हें लगता है कि थोड़ी लागत लगाकर वे प्रोजेक्ट को पूरा कर सकते हैं और मुनाफा कमा सकते हैं।

लेकिन यहां भी एक पेंच है। नया डेवलपर तभी आएगा जब उसे भरोसा होगा कि उसे फ्लैट बेचने में परेशानी नहीं होगी, पुराने बायर्स सहयोग करेंगे और COC उसकी शर्तें मान लेगी। और ये इतना आसान नहीं है, क्योंकि हर बायर की अपनी स्थिति, उम्मीद और शंका होती है। मनीष जैसे हज़ारों लोग हैं जो सालों से सिर्फ ‘अगली डेट’ सुनते आ रहे हैं, लेकिन न प्रोजेक्ट पूरा होता है, न पैसा वापस मिलता है, और न ही कोई स्पष्ट दिशा मिलती है।

इस स्थिति को और भी जटिल बनाता है बैंक का रोल। अधिकांश खरीदारों ने फ्लैट बुकिंग के लिए लोन लिया होता है। यानी EMI तो चलती रहती है, लेकिन घर नहीं मिलता। बैंक को सिर्फ EMI से मतलब होता है, उसे इस बात से फर्क नहीं पड़ता कि घर मिला या नहीं। तो बायर्स दोहरी मार झेलते हैं—न घर मिला, न पैसा बचा, ऊपर से ब्याज के साथ बैंक की किश्तें।

अब समझिए—RERA क्या करता है? रियल एस्टेट रेगुलेटरी अथॉरिटी (RERA) एक संस्था है, जो होम बायर्स के हितों की रक्षा के लिए बनाई गई थी। लेकिन जब मामला NCLT में चला जाता है, तब RERA की भूमिका सीमित हो जाती है, क्योंकि दिवालिया प्रक्रिया कॉर्पोरेट कानून के तहत चलती है। यानी RERA और NCLT दो अलग-अलग रास्ते हैं, और जब कोई कंपनी NCLT में चली जाती है, तो RERA की सुनवाई भी टल जाती है।

अब बात करते हैं उम्मीद की किरण की। भारत सरकार और सुप्रीम कोर्ट ने कई ऐसे फैसले दिए हैं जिनमें बायर्स के हक में बातें कहीं गई हैं। सुप्रीम कोर्ट ने यहां तक कहा है कि फ्लैट बायर्स को ‘फाइनेंशियल क्रेडिटर’ माना जाए, जिससे उन्हें COC में स्थान मिले। यानी अब बायर्स सिर्फ ‘शिकायतकर्ता’ नहीं, बल्कि निर्णय लेने वाले भी बन सकते हैं।

कुछ राज्यों में सरकारों ने ‘स्टेट कंस्ट्रक्शन कॉर्पोरेशन’ बनाकर अधूरे प्रोजेक्ट्स को पूरा करवाया है। आम्रपाली केस इसका उदाहरण है, जहां NBCC (National Buildings Construction Corporation) को नियुक्त किया गया और उसने अधूरा प्रोजेक्ट पूरा करना शुरू किया। यानी सरकार जब चाहे, तो समाधान निकाल सकती है—जरूरत है राजनीतिक इच्छाशक्ति की।

होम बायर्स के पास अब एक और विकल्प है—‘कलेक्टिव एक्शन’। जब सभी बायर्स एक साथ संगठन बनाकर, लीगल सपोर्ट के साथ केस लड़ते हैं, तो कंपनियों और सरकार पर दबाव बनता है। कोर्ट भी ऐसे मामलों में गंभीरता दिखाता है क्योंकि यहां केवल संपत्ति का नहीं, लोगों के जीवन और भावनाओं का सवाल होता है।

लेकिन इस लड़ाई में सबसे अहम है—सावधानी। कोई भी प्रोजेक्ट बुक करने से पहले उसकी RERA रजिस्ट्रेशन जांचें, डेवलपर का पिछला रिकॉर्ड देखें, जमीन का टाइटल क्लीयर है या नहीं, यह सुनिश्चित करें, और सबसे ज़रूरी—कभी भी एकमुश्त भुगतान न करें।

इस पूरी स्थिति में एक बड़ी सीख छुपी है—घर सिर्फ चार दीवारों से नहीं बनता, यह एक भरोसे की नींव पर खड़ा होता है। और जब वह भरोसा टूटता है, तो सबसे ज़्यादा नुकसान सिर्फ पैसे का नहीं होता, भावनाओं का होता है। अगर सरकार, कोर्ट, बैंक और बायर्स एक साथ आकर इस सिस्टम को पारदर्शी बना दें, तो न कोई मनीष ठगेगा, न कोई सपना टूटेगा। क्योंकि देश की तरक्की का रास्ता वहीं से शुरू होता है, जहां हर परिवार को उसका ‘सपनों का घर’ मिल सके—पूरा, सुरक्षित और वक़्त पर।

Conclusion

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