Inspiring: BIS Certification से बढ़ेगा स्टील सेक्टर का भरोसा: सुप्रीम कोर्ट में बड़ा कदम, MSME को मिल सकता है राहत रास्ता I 2025

सोचिए, एक छोटा उद्यमी… जिसकी फैक्ट्री पिछले 15 साल से चल रही है। हर सुबह वो मजदूरों को बायोमेट्रिक मशीन पर आते हुए देखता है, दिनभर मशीनें गरजती हैं, और शाम को तैयार माल ट्रक में भरकर निकल जाता है। लेकिन एक दिन अचानक सब रुक जाता है। कच्चा माल नहीं आया। विदेश से जो शिपमेंट आना था, वह बंदरगाह पर ही रोक दी गई।

कारण? BIS Certification नहीं है। अगले ही दिन उसका ग्राहक कॉन्ट्रैक्ट रद्द कर देता है। और वो खड़ा है—हैरान, परेशान, बेबस।  यही है भारत के MSME सेक्टर की आज की सबसे बड़ी कहानी, जिसका केंद्र है स्टील मंत्रालय का एक आदेश और उसके खिलाफ उठी आवाज़ें जो अब सुप्रीम कोर्ट तक पहुंच चुकी हैं। आज हम इसी विषय पर गहराई में चर्चा करेंगे।

13 जून 2025 को स्टील मंत्रालय ने एक ऐसा आदेश निकाला, जिसने पूरी इंडस्ट्री की सांसें रोक दीं। आदेश यह था कि अब से स्टील प्रोडक्ट्स की मैन्युफैक्चरिंग में इस्तेमाल होने वाले सभी कच्चे माल—जैसे हॉट रोल्ड कॉइल, स्लैब, बिलेट और ब्लूम—के लिए भी BIS Certification अनिवार्य होगा।

इस फैसले से सबसे ज्यादा प्रभावित हुआ देश का वह सेक्टर जो रोज़गार देता है, Export बढ़ाता है, लेकिन खुद को कभी VIP नहीं मानता—MSME। ऑटो पार्ट्स, प्रिसीजन ट्यूबिंग, फास्टनर्स जैसी छोटी इकाइयों को सिर्फ एक कार्यदिवस में उस आदेश का पालन करना था। न कोई नोटिस, न कोई मियाद। यह बिल्कुल वैसा था जैसे किसी किसान को बारिश से ठीक पहले कह दिया जाए कि अब तुम्हारे बीजों के लिए भी नई टेस्टिंग जरूरी है—वरना खेत मत बोना।

इसके बाद मद्रास हाई कोर्ट में श्री रामदेव मेटलैक्स एलएलपी और अन्य फर्मों ने याचिका दाखिल की। 18 जुलाई को हाई कोर्ट ने मंत्रालय के आदेश पर अंतरिम रोक लगाई। कोर्ट ने कहा कि यह नीति अनुच्छेद 14 और 19(1)(जी) का उल्लंघन करती है—यानी समानता और व्यापार की स्वतंत्रता के मौलिक अधिकारों का हनन। लेकिन कहानी यहीं नहीं रुकी। मंत्रालय इस आदेश को लेकर सुप्रीम कोर्ट पहुंच गया। यानी अब फैसला देश की सबसे बड़ी अदालत तय करेगी—कि क्या BIS सर्टिफिकेशन का यह विस्तार न्यायोचित है या MSME के ताबूत की आखिरी कील?

मंत्रालय का तर्क है कि यह कदम इसलिए जरूरी है ताकि घरेलू और विदेशी उत्पादकों के बीच समानता बनी रहे। उनका कहना है कि अगर भारतीय निर्माताओं को BIS प्रमाणित इनपुट सामग्री इस्तेमाल करनी होती है, तो विदेश से आने वाले माल पर भी यही नियम लागू होने चाहिए। साथ ही मंत्रालय ने यह भी कहा कि इससे बाजार में घटिया स्टील की डंपिंग रुकेगी। लेकिन क्या सच में ऐसा है?

उद्योग विशेषज्ञों का कहना है कि यह तर्क सुनने में जितना अच्छा लगता है, जमीन पर उतना ही भ्रामक है। GTRI (Global Trade Research Initiative) के अजय श्रीवास्तव का मानना है कि, FMCS स्कीम के तहत पहले से ही विदेशी फैक्ट्रियों की BIS ऑडिटिंग होती है। हर कच्चा माल भारत में प्रवेश से पहले टेस्ट होता है—PMI टेस्टिंग, मिल सर्टिफिकेट, पोर्ट पर निरीक्षण—हर चीज़ मौजूद है। फिर यह नई बाधा क्यों?

असल में, विदेशों में खासतौर पर यूरोप, अमेरिका और जापान में इनपुट पर इस तरह का सर्टिफिकेशन नहीं होता। वहां फोकस होता है अंतिम उत्पाद की गुणवत्ता पर। भारत इस व्यवस्था को उल्टा कर रहा है—वो हर स्टेज पर सर्टिफिकेशन चाहता है। और इस बदलाव की सूचना भी सिर्फ एक दिन पहले दी गई।

यह आदेश कितना गहरा असर डाल सकता है, इसका अंदाज़ा इसी से लगाया जा सकता है कि बीआईएस प्रमाणन की प्रक्रिया पूरी करने में 6 से 18 महीने तक का वक्त लगता है। और इस बीच सैकड़ों फैक्ट्रियों की सप्लाई चेन टूट जाती है। कई विदेशी स्टील सप्लायर्स जो छोटी मिलें हैं, उन्हें BIS सर्टिफिकेशन लेने का कोई प्रोत्साहन नहीं है। न उनके पास संसाधन हैं, न समय।

MSME जो उन पर निर्भर करते हैं, उनका हाल यह हो गया है कि न तो वे नया ऑर्डर ले पा रहे हैं, और न ही पुराना पूरा कर पा रहे हैं। शिपमेंट में देरी हो रही है, ग्राहकों ने जुर्माना ठोक दिया है, और कई मामलों में कॉन्ट्रैक्ट ही रद्द हो गए हैं। यानी एक झटके में करोड़ों का नुकसान।

FISME के महासचिव अनिल भारद्वाज कहते हैं कि स्टील मंत्रालय ने इंडस्ट्री से न तो कोई चर्चा की, न ही समय दिया। यह आदेश ऐसे समय में लाया गया जब बाजार वैश्विक मंदी से उबरने की कोशिश कर रहा है, और MSME को सरकार से सहयोग की उम्मीद थी। उन्हें समर्थन मिला, तो बस एक झटका। अब सवाल उठता है—क्या यह कदम वाकई देश के फायदे के लिए है?

अगर मंत्रालय की मंशा अच्छी है—तो सवाल है प्रक्रिया का। बदलाव लाना गलत नहीं, लेकिन बिना संवाद और बिना तैयारी के लाना? क्या MSME सेक्टर जो पहले ही GST, श्रम सुधार, महंगे इनपुट और एक्सपोर्ट में गिरावट जैसी चुनौतियों से जूझ रहा है—क्या उसे और तोड़ा जाना चाहिए?

इस पूरे विवाद की गहराई समझने के लिए एक उदाहरण समझिए। मान लीजिए आप एक SME हैं जो जापान से स्टील का बिलेट Import करता है। अब उस बिलेट को भेजने वाली जापानी कंपनी को BIS लाइसेंस लेना पड़ेगा। वो कंपनी कहती है—हम भारत के लिए ये नहीं करेंगे, हम चीन को भेज देंगे। अब आप क्या करेंगे? न विकल्प है, न समय। रिलायंस, टाटा जैसे बड़े खिलाड़ी तो अपने लिए विकल्प खोज लेंगे, लेकिन वह छोटा उद्यमी जो दो शिफ्ट में मजदूरों से काम करवा रहा है—वो कहां जाएगा?

अब विशेषज्ञों का सुझाव है कि इस आदेश को तुरंत स्थगित किया जाए, और एक अंतर-मंत्रालयी समिति इसकी समीक्षा करे। साथ ही उन्होंने यह भी मांग की है कि भविष्य में ऐसे किसी भी नियम को लागू करने से पहले कम से कम 90 दिनों का समय दिया जाए। ताकि इंडस्ट्री को अनुकूलन का अवसर मिले।

अजय श्रीवास्तव ने एक और गंभीर आरोप लगाया है—उन्होंने सुझाव दिया है कि इस आदेश के पीछे कहीं कोई कार्टेलाइजेशन तो नहीं है? कहीं कुछ बड़ी कंपनियों को फायदा पहुंचाने के लिए छोटे व्यवसायों को हाशिए पर तो नहीं डाला जा रहा? उन्होंने इसकी जांच के लिए Competition Commission से अपील करने की बात भी कही है। सवालों की फेहरिस्त लंबी होती जा रही है। और जवाब… बस अदालत से उम्मीद है।

क्या सुप्रीम कोर्ट MSME की इस आवाज़ को सुनेगा? क्या सरकार इस आदेश को वापस लेकर एक नई शुरुआत करेगी? या फिर यह मामला भी उन हजारों अधूरे सुधारों की सूची में शामिल हो जाएगा, जिनका मकसद भला हो सकता है, लेकिन रास्ता गलती से भर गया। यह सिर्फ एक अदालत का मामला नहीं, यह लाखों मजदूरों, कर्मचारियों और उद्यमियों की रोटी-रोज़ी का मामला है। यह उस भारत का मामला है, जो आत्मनिर्भर बनना चाहता है, लेकिन बिना अपनी रीढ़ की हड्डी—MSME सेक्टर—को तोड़े।

अब देखना है, कि आने वाले हफ्तों में सुप्रीम कोर्ट क्या फैसला सुनाता है। और उससे भी बड़ा सवाल यह है कि सरकार क्या यह समझेगी कि नीति तब ही सफल होती है जब वह लोगों को साथ लेकर चले। क्योंकि अगर नीतियों के नीचे फैक्ट्री की चिमनियाँ ही बुझ जाएँ, तो विकास का धुआँ आखिर किस दिशा में जाएगा?

Conclusion

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