Inspiring: Anil Ambani को सुप्रीम कोर्ट से राहत! एक फैसले से मिली 186 करोड़ की जीत – फिर से चमकेगा सितारा? 2025

क्या एक झगड़ा, जो सालों से कागज़ों में सुलग रहा था, अचानक करोड़ों की बारिश बनकर एक कारोबारी पर टूट सकता है? क्या अदालत का एक फैसला किसी डूबते कारोबारी के लिए संजीवनी बन सकता है? और क्या ऊर्जा की दुनिया में बिजली सिर्फ तारों में नहीं, बल्कि कोर्ट के आदेशों में भी दौड़ती है?

इस बार बिजली की लड़ाई अदालत में थी—पावर प्लांट से नहीं, बल्कि सुप्रीम कोर्ट से निकली एक ऐसी चिंगारी, जिसने Anil Ambani के खाते में सीधे 186 करोड़ रुपये का मोटा चेक डाल दिया। ये कहानी सिर्फ एक अदालती आदेश की नहीं है, ये कहानी है अदानी पॉवर, राजस्थान की बिजली कंपनियों, कोल इंडिया और एक लंबे कानूनी संघर्ष की, जो अब निर्णायक मोड़ पर आ पहुंचा है। आज हम इसी विषय पर गहराई में चर्चा करेंगे।

पूरी कहानी शुरू होती है 2009 से, जब अदानी पावर ने राजस्थान के कवाई पावर प्रोजेक्ट से 1200 मेगावाट बिजली सप्लाई के लिए, राज्य की चार प्रमुख डिस्कॉम कंपनियों के साथ समझौता किया था। ये कंपनियां थीं—जयपुर, जोधपुर, अजमेर विद्युत वितरण निगम और राजस्थान ऊर्जा विकास निगम। बिजली की सप्लाई तय की गई 3.2 रुपये प्रति यूनिट के टैरिफ पर, और यह पूरा सौदा राजस्थान Electricity Regulatory Commission की मंजूरी से हुआ था।

सब कुछ सामान्य चल रहा था, लेकिन 2017 में आई एक अधिसूचना ने सब कुछ बदल दिया। कोल इंडिया लिमिटेड, जो सरकारी स्वामित्व वाली कंपनी है, उसने एक नोटिफिकेशन जारी किया और 50 रुपये प्रति टन का ‘Export Facility charge’’ यानी EFC लगा दिया। यह अतिरिक्त शुल्क सीधे बिजली उत्पादन की लागत को प्रभावित करता था। अदानी पावर ने इसे ‘कानून में बदलाव’ करार देते हुए पीपीए के अनुच्छेद 10 के तहत मुआवजे की मांग की।

लेकिन राजस्थान की डिस्कॉम कंपनियों ने इस मांग को अनदेखा कर दिया। कोई स्पष्ट जवाब नहीं आया। इसके बाद अदानी पावर ने राज्य की विद्युत नियामक संस्था—RERC—से संपर्क किया, जिसने कुछ हद तक अदानी की दलील को सही माना। लेकिन यह मामला यहीं नहीं रुका। दोनों पक्ष—अदानी और राजस्थान की डिस्कॉम कंपनियां—Electricity Appellate Tribunal यानी APTEL के पास गए।

APTEL ने अप्रैल 2024 में अदानी पावर के पक्ष में फैसला सुनाया। उसने स्पष्ट रूप से कहा कि कोल इंडिया जैसी सरकारी संस्था द्वारा लगाया गया नया शुल्क एक वैधानिक परिवर्तन है, जिसे ‘कानून में बदलाव’ माना जाना चाहिए। ऐसे में पीपीए के Contract के अनुसार, बिजली उत्पादक को उसकी आर्थिक स्थिति की भरपाई यानी मुआवजा मिलना चाहिए।

राजस्थान की चारों बिजली वितरण कंपनियों ने इस फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी। उन्होंने कहा कि अदानी ने जानबूझकर इस मामले में देरी की, और इस देरी के लिए वो खुद जिम्मेदार है। उन्होंने APTEL के फैसले को ‘अप्रत्याशित लाभ’ की अनुमति बताते हुए इसे अनुचित ठहराया। उनका तर्क था कि अदानी को इस फैसले से भारी आर्थिक फायदा मिला है, जो Contract की आत्मा के विरुद्ध है।

लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने इन दलीलों को खारिज कर दिया। न्यायमूर्ति एम एम सुंदरेश और न्यायमूर्ति राजेश बिंदल की पीठ ने साफ कहा कि इस अपील में कोई दम नहीं है। उन्होंने APTEL के निर्णय को बरकरार रखा और कहा कि कोल इंडिया द्वारा लगाया गया शुल्क, कानून में बदलाव की श्रेणी में आता है। इस फैसले के तहत अब अदानी पावर राजस्थान लिमिटेड को 186 करोड़ रुपये का मुआवजा मिलेगा।

इस फैसले का महत्व केवल अदानी के फायदे तक सीमित नहीं है। यह फैसला देश की ऊर्जा नीति, कॉर्पोरेट Contracts और पीपीए यानी पावर परचेज एग्रीमेंट्स की वैधानिक व्याख्या के लिए एक मील का पत्थर बन सकता है। कोर्ट ने यह मान्यता दी कि जब कोई सरकारी संस्था नियमों में बदलाव करती है, तो उसका असर कॉन्ट्रैक्ट में तय कीमतों और दायित्वों पर सीधा पड़ता है।

लेकिन यह भी सच है कि अदानी पावर ने अधिसूचना जारी होने के तुरंत बाद ‘कानून में बदलाव’ की सूचना नहीं दी थी। यह बात अदालत ने भी स्वीकार की, पर इसे मुआवजा न देने का आधार नहीं माना। सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि पीपीए में बदलाव का मकसद ही यह है कि अगर कोई ऐसी परिस्थिति आती है जो नियंत्रण से बाहर हो, तो उसकी भरपाई होनी चाहिए।

राजस्थान की डिस्कॉम कंपनियों का दावा था कि यह फैसला अदानी को अनुचित लाभ दे रहा है, जबकि अदानी की ओर से कहा गया कि यह लाभ नहीं, बल्कि लागत की भरपाई है। आखिरकार, कोल इंडिया का नया शुल्क उत्पादन लागत को बढ़ा रहा था, और अगर उस लागत की भरपाई न हो, तो बिजली उत्पादक को नुकसान उठाना पड़ता।

अब इस फैसले से दो बातें साफ हो गई हैं। एक, अदानी पावर को राहत मिली है और वो 186 करोड़ रुपये प्राप्त करने के लिए पूरी तरह अधिकृत है। और दूसरी, राज्य की डिस्कॉम कंपनियों को यह समझने की जरूरत है कि Contract केवल पेपरवर्क नहीं होते—वे कानूनी जिम्मेदारियां और दायित्व होते हैं, जिनका पालन अनिवार्य होता है।

इस पूरी प्रक्रिया में एक बड़ा सवाल ये भी उठा कि क्या अदालतों में ऐसी याचिकाएं, वास्तव में न्याय पाने के लिए दाखिल की जाती हैं या फिर वे केवल वित्तीय दबाव बनाने के लिए होती हैं? अदानी पावर के केस में भी, यह आरोप लगा कि वह खुद देरी के लिए जिम्मेदार रहा, लेकिन अंत में कोर्ट ने कहा कि मूल तथ्य यही है—कानून में बदलाव हुआ और उसके अनुसार मुआवजा मिलना चाहिए।

इस पूरे फैसले का असर अन्य बिजली समझौतों पर भी पड़ेगा। अब कई और कंपनियां इस मिसाल का हवाला देते हुए पुराने शुल्क या अधिसूचना के आधार पर मुआवजे की मांग कर सकती हैं। इससे बिजली उत्पादन कंपनियों को राहत तो मिलेगी, लेकिन डिस्कॉम कंपनियों पर वित्तीय बोझ बढ़ सकता है।

यह भी गौर करने की बात है कि अदानी पावर का यह प्रोजेक्ट कोई छोटा सौदा नहीं है। 1200 मेगावाट की क्षमता का यह प्लांट राजस्थान जैसे राज्य की बिजली जरूरतों को स्थिरता देता है। अगर लागत की भरपाई नहीं होती, तो ऐसे प्रोजेक्ट्स के संचालन में अड़चनें आ सकती थीं, जो सीधे-सीधे उपभोक्ताओं को प्रभावित करतीं।

इसलिए सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला न केवल अदानी के लिए बल्कि आम उपभोक्ताओं के हित में भी है, क्योंकि यह ऊर्जा व्यवस्था की स्थिरता बनाए रखने में मदद करेगा। ऐसे प्रोजेक्ट्स तभी टिकाऊ हो सकते हैं जब कानून और Contracts का सम्मान हो।

और Anil Ambani के लिए? उनके ग्रुप पर आर्थिक संकट के बादल लंबे समय से मंडरा रहे थे। हालांकि यह केस सीधे तौर पर रिलायंस इंफ्रास्ट्रक्चर या Anil Ambani के अन्य उपक्रमों से नहीं जुड़ा, लेकिन यह फैसला उनके कारोबारी साम्राज्य के लिए मनोवैज्ञानिक राहत ज़रूर लाता है। यह उन सभी निवेशकों और कारोबारियों के लिए एक संकेत है कि अगर Contract सही हैं और कानून की व्याख्या सटीक है, तो देरी के बावजूद न्याय संभव है।

जब अगली बार कोई कहे कि अदालतों में सिर्फ देरी मिलती है, तो उन्हें यह केस याद दिलाइएगा—जहां 2017 की अधिसूचना का हिसाब 2025 में चुकता हुआ, वो भी 186 करोड़ रुपये के चेक के साथ। यह जीत एक कारोबारी समझदारी की भी है, और एक सटीक कानूनी रणनीति की भी।

Conclusion

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