सुबह की हल्की ठंडी हवा में, दिल्ली के एक पॉडकास्ट स्टूडियो का दरवाज़ा धीरे-धीरे खुलता है। बाहर ट्रैफिक की हल्की-हल्की आवाज़, कभी-कभी हॉर्न की तीखी धुन, और चाय के ठेलों पर उठता भाप का धुआं — लेकिन इस कमरे के भीतर एक बिल्कुल अलग माहौल है। एयर-कंडीशनर की ठंडी हवा और माइक्रोफोन के सामने रखे दस्तावेज़ों की खसखसाहट के बीच, बैठा है दुनिया का एक नामी अर्थशास्त्री — जेफ़री सैक्स।
उसके चेहरे पर गंभीरता है, और आंखों में वो अनुभव झलक रहा है जो दशकों के अंतरराष्ट्रीय रिश्तों की समझ से आता है। यह कोई साधारण इंटरव्यू नहीं है। यह एक बातचीत है, जो भारत के भविष्य की दिशा तय कर सकती है। आज हम इसी विषय पर गहराई में चर्चा करेंगे।
सैक्स ने जैसे ही गहरी सांस ली, माहौल में अजीब सी खामोशी छा गई। वो खामोशी, जो किसी तूफ़ान के आने से पहले महसूस होती है। उन्होंने सीधे कैमरे और माइक्रोफोन की तरफ देखते हुए कहा — “अगर भारत यह सोच रहा है कि America उसे एक सच्चा सहयोगी मानता है… तो यह उसकी सबसे बड़ी भूल होगी।”
उनकी आवाज़ में एक अजीब सी गूंज थी, जैसे किसी ने लोहे पर हथौड़ा मारा हो। कमरे में मौजूद प्रोड्यूसर ने अनजाने में अपनी कुर्सी का पेंच घुमाना बंद कर दिया, साउंड इंजीनियर की उंगलियां भी मिक्सर के बटन पर ठिठक गईं। यह बयान सिर्फ एक राय नहीं था, यह चेतावनी थी — वो भी ऐसे व्यक्ति की, जिसने दुनिया के सबसे ताकतवर देशों के असली चेहरे करीब से देखे हैं।
उन्होंने आगे कहा, “अमेरिकी नेताओं को भारत की बिल्कुल भी परवाह नहीं है।” यह वाक्य उन्होंने बहुत धीरे, लेकिन सटीकता से कहा, जैसे एक सर्जन नाज़ुक ऑपरेशन के दौरान चाकू चला रहा हो। उनकी बातों में निराशा थी, लेकिन यह निराशा किसी गुस्से से नहीं, बल्कि अनुभव से पैदा हुई थी। उन्होंने समझाया कि America के पास भारत में सप्लाई चेन बनाने का कोई दीर्घकालिक रणनीतिक इरादा नहीं है। “ये जो भारी-भरकम टैरिफ हैं, ये जो अधूरे व्यापारिक वादे हैं, ये सब इसी सच्चाई की तरफ इशारा करते हैं,” उन्होंने कहा। उनकी उंगलियां टेबल पर हल्के-हल्के बज रही थीं, जैसे वो हर शब्द को समय दे रहे हों, ताकि उसका असर सुनने वालों के दिल में उतर सके।
सैक्स ने बातचीत को एक और दिशा दी और क्वाड एलायंस का ज़िक्र किया। उन्होंने अपने चश्मे को हल्के से ऊपर खिसकाते हुए कहा, “भारत का वाशिंगटन के साथ चीन के खिलाफ खड़ा होना उसकी सुरक्षा के लिए अच्छा नहीं है।” उनके चेहरे पर चिंता साफ दिख रही थी। उन्होंने बताया कि क्वाड कोई मासूम साझेदारी नहीं है, बल्कि America का एक राजनीतिक उपकरण है, जिसके ज़रिए वह चीन के खिलाफ एक सामरिक मोर्चा बनाना चाहता है। “अगर भारत सोचता है कि क्वाड में शामिल होकर उसे रणनीतिक ताकत मिलेगी, तो यह महज़ एक भ्रम है,” उन्होंने कहा। उनकी आवाज़ में दृढ़ता थी, लेकिन शब्दों के बीच छुपी थी एक चेतावनी की तीखी धार।
एक पल के लिए उन्होंने कॉफ़ी कप उठाया, लेकिन पीने से पहले ही कप को वापस टेबल पर रख दिया। उनकी आंखों में लगा जैसे वो कुछ पुरानी घटनाओं को याद कर रहे हों। फिर उन्होंने कहा, “America की विदेश नीति में कोई बड़ा बदलाव नहीं आता, चाहे राष्ट्रपति बाइडेन हों, ट्रंप हों, या ओबामा… लेकिन ट्रंप के साथ यह सच्चाई और भी कठोर है। उनके कोई सहयोगी नहीं, कोई रणनीतिक साझेदार नहीं… बस तात्कालिक लाभ की सोच।” उन्होंने यह शब्द ऐसे कहे, जैसे किसी जटिल पहेली का जवाब दे रहे हों, जिसमें समाधान की जगह सिर्फ और सवाल छुपे हों।
सैक्स के लहजे में अब थोड़ी कड़वाहट आ गई। उन्होंने हंसते हुए, लेकिन एक हल्की निराशा के साथ कहा, “जब मैं इस वसंत भारत में था, तब ही मैंने कहा था — किसी बड़े व्यापारिक रिश्ते पर भरोसा मत करो।” यह वाक्य सुनते ही स्टूडियो में बैठे कुछ लोग एक-दूसरे की ओर देखने लगे। यह भविष्यवाणी जैसा लग रहा था, जो अब सच होती दिखाई दे रही थी। America के नए टैरिफ ने यह साफ कर दिया था कि दोस्ती और साझेदारी के दावों के पीछे हमेशा एक स्वार्थी खेल छुपा होता है।
उन्होंने टेबल पर रखी कुछ फाइलों को उठाया और उनमें से एक ग्राफ दिखाते हुए कहा, “भारत को यह उम्मीद है कि वह चीन पर अपनी निर्भरता कम करने में America का अच्छा पार्टनर बनेगा… लेकिन सच्चाई यह है कि America को भारतीय सप्लाई चेन में कोई दिलचस्पी नहीं है।” उनकी आवाज़ में ठंडा विश्लेषण था, लेकिन हर शब्द एक गर्म चुभन की तरह लग रहा था। “ट्रंप लंबे समय तक चलने वाली योजनाओं में विश्वास ही नहीं करते,” उन्होंने जोड़ा। “वो हमेशा अल्पकालिक लाभ देखते हैं।”
बात करते-करते उन्होंने अचानक विषय बदलते हुए कहा, “क्वाड का मैं कभी प्रशंसक नहीं रहा… यह America का खेल है। और चीन के खिलाफ America का साथ देना भारत के हित में नहीं है।” इस बार उनकी आवाज़ पहले से अधिक ठोस थी। जैसे वो यह बात किसी कमरे में बैठे नेताओं को समझा रहे हों, जो अभी फैसला लेने वाले हों। उनके हर शब्द में वो गहराई थी, जो सिर्फ लंबे अनुभव से आती है।
उन्होंने वाशिंगटन के नेताओं पर एक और सख्त टिप्पणी की — “वे भ्रमों से भरे हुए हैं। वे भारत के साथ बड़ी साझेदारी के बारे में नहीं सोचते, बल्कि सिर्फ America के प्रभुत्व के बारे में सोचते हैं।” यह कहते समय उनकी आंखों में एक अजीब सा ठंडा आत्मविश्वास था, जैसे वो जानते हों कि उनकी यह बात कई लोगों को चुभेगी, लेकिन सच को छुपाना उनके स्वभाव में नहीं है।
उन्होंने रुककर एक लंबी सांस ली और कहा, “जो मैं कह रहा हूं, वो चाहे आपको अच्छा लगे या बुरा… यह सच है।” और इस सच के पीछे सिर्फ उनका व्यक्तिगत दृष्टिकोण नहीं, बल्कि अंतरराष्ट्रीय राजनीति की गहराई से देखी और समझी हुई परतें थीं। उन्होंने यह भी साफ किया कि वो न America विरोधी हैं, न चीन समर्थक — वो सिर्फ चेतावनी दे रहे हैं कि एकतरफा भरोसा किसी भी देश को मुश्किल में डाल सकता है।
बातचीत के आखिर में उन्होंने भारत के लिए एक रास्ता सुझाया। “भारत को मल्टीपोलर वर्ल्ड पर ध्यान देना चाहिए। उसे America, चीन, रूस, अफ्रीकी संघ… सभी के साथ संतुलित रिश्ते बनाने चाहिए। किसी एक का पक्ष लेने से तनाव बढ़ेगा और भारत अपने असली सामर्थ्य का इस्तेमाल नहीं कर पाएगा।” उनकी आवाज़ धीमी थी, लेकिन उसमें एक गंभीरता थी, जो सीधे दिल में उतरती है। “अगर भारत संतुलन बनाए रखता है, तो उसे न सिर्फ आर्थिक, बल्कि कूटनीतिक ताकत भी मिलेगी,” उन्होंने जोड़ा।
जब रिकॉर्डिंग खत्म हुई, स्टूडियो में फिर वही हल्की खामोशी लौट आई, लेकिन इस बार यह खामोशी भारी थी — जैसे सभी को पता हो कि उन्होंने कुछ ऐसा सुना है, जिसे नज़रअंदाज़ करना अब संभव नहीं। बाहर निकलते समय सैक्स ने सिर्फ एक वाक्य कहा — “भरोसा… लेकिन सोच-समझकर। दोस्ती… लेकिन आंखें खोलकर।” और शायद यही वो लाइन है, जिसे आने वाले सालों में भारत को बार-बार याद करना होगा। क्योंकि दुनिया की राजनीति में मुस्कानें भी कभी-कभी सबसे खतरनाक हथियार होती हैं।
Conclusion
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