एक डरावना सवाल अब पूरे South Asia को परेशान कर रहा है—क्या चीन का साथ विनाश का संकेत बन चुका है? आज पाकिस्तान तो पहले ही दिवालियेपन की कगार पर है, लेकिन अब तो बांग्लादेश जैसे देश भी टूटते नजर आ रहे हैं। एक बिजनेस लीडर ने जब ये दावा किया कि चीन के चक्कर में पड़कर 5 देश आर्थिक और राजनीतिक रूप से तबाही के मुहाने पर हैं, तो सब चौंक उठे।
क्या वाकई श्रीलंका, मालदीव, अफगानिस्तान, नेपाल और अब बांग्लादेश—सब एक-एक कर डूब रहे हैं? और इस सबकी जड़ में है—चीन की कर्ज-जाल वाली रणनीति। आज हम आपको बताएंगे कि कैसे चीन की ‘ड्रैगन डिप्लोमेसी’ ने इन देशों को पहले सपने दिखाए, फिर उन्हीं सपनों को तोड़कर उन्हें कर्ज और अस्थिरता की गर्त में धकेल दिया।
राजेश साहनी नाम के एक जाने-माने सीरियल उद्यमी ने जब एक्स पर लिखा कि अब तो बांग्लादेश भी डूब रहा है, तो हड़कंप मच गया। उन्होंने लिखा कि South Asia के 8 में से 5 देश—पाकिस्तान, श्रीलंका, अफगानिस्तान, मालदीव और नेपाल—आर्थिक रूप से टूट चुके हैं। बांग्लादेश पर भी खतरा मंडरा रहा है। उन्होंने यह भी जोड़ा कि भले ही सरकारी आंकड़े इसे सपोर्ट न करें, लेकिन इन देशों के भीतर असली हालत किसी टाइम बम से कम नहीं।
बांग्लादेश की तस्वीर पहले बहुत मजबूत मानी जाती थी। गारमेंट सेक्टर, Export और Human Resources पर टिके इस देश ने पिछले एक दशक में अच्छी ग्रोथ दिखाई। लेकिन अब 2025 के लिए विकास दर 3.3 से 3.9 प्रतिशत तक गिर चुकी है। देश में महंगाई चरम पर है, Investors का भरोसा हिल चुका है और राजनीतिक स्थिति अराजक होती जा रही है। विरोध प्रदर्शन हिंसक हो चुके हैं, सरकार कमजोर नजर आ रही है और सेना ने भी संकट की चेतावनी दी है। यह सब अचानक नहीं हुआ — इसका एक बड़ा कारण है चीन से लिया गया भारी-भरकम कर्ज, और उस कर्ज से बनीं वे परियोजनाएं जिनका वास्तविक लाभ सीमित रहा।
अब बात करते हैं श्रीलंका की — वो देश जिसने 2022 में दुनिया के सामने खुद को दिवालिया घोषित कर दिया था। श्रीलंका ने जब अपने सारे विदेशी कर्जों का भुगतान रोक दिया, तो दुनिया चौंक गई। इसकी मुद्रा बुरी तरह गिर गई, महंगाई दहलीज पार कर गई और सड़कों पर लोग चाय-पत्ती और गैस के लिए जूझने लगे। चीन ने श्रीलंका को भारी कर्ज दिया — खासकर बड़े इंफ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट्स के लिए, जैसे कि हंबनटोटा पोर्ट। लेकिन इन प्रोजेक्ट्स से फायदा कम और कर्ज का बोझ ज़्यादा हुआ। आज श्रीलंका का आधे से ज़्यादा कर्ज चीन से लिया गया है — और यही उसे बुरी तरह दबा रहा है।
अब आते हैं मालदीव पर — एक छोटा-सा देश, लेकिन कर्ज की चक्की में यह भी पिस रहा है। मालदीव की जीडीपी ग्रोथ अनुमानतः 6.4% बताई जा रही है, लेकिन इसका 20% से ज़्यादा कर्ज केवल चीन का है। पर्यटन पर आधारित इस देश की अर्थव्यवस्था बेहद संवेदनशील है — कोई भी वैश्विक झटका इसे अस्थिर कर सकता है। इसके अलावा चीन के साथ हुआ FTA यानी फ्री ट्रेड एग्रीमेंट अब व्यापार घाटे को और बढ़ा रहा है। घरेलू उद्योग पीछे छूट रहे हैं, और चीनी Import ने लोकल इकॉनमी को दबा दिया है।
हालांकि पाकिस्तान की स्थिति तो अब किसी से छुपी नहीं है। यहां हर रोज़ एक नया संकट पैदा होता है — कभी पेट्रोल की कीमतें आसमान छूती हैं, कभी बिजली गुल होती है, और कभी सेना और जनता आमने-सामने हो जाती है। CPEC — यानी चीन-पाकिस्तान इकनॉमिक कॉरिडोर — कभी उम्मीद की किरण था, लेकिन आज यह एक बोझ बन गया है। पाकिस्तान को चीन से मिला इंफ्रास्ट्रक्चर तो है, लेकिन इसके पीछे जो कर्ज है, उसने पाकिस्तान की रीढ़ तोड़ दी है। देश की प्रति व्यक्ति आय नेपाल और बांग्लादेश से भी नीचे पहुंच चुकी है। बेरोजगारी बढ़ रही है, महंगाई बेलगाम है और अंतरराष्ट्रीय Investors का भरोसा टूट चुका है।
अफगानिस्तान की बात करें तो वहां की अर्थव्यवस्था पहले से ही अलग-थलग है। पश्चिमी देशों की सहायता पर निर्भर यह देश तालिबानी शासन के बाद और भी मुश्किलों में घिर गया है। गरीबी चरम पर है, foreign investment शून्य है और घरेलू उत्पादन बहुत सीमित है। चीन यहां भी मौजूद है, लेकिन उसकी भागीदारी सीमित है। हालांकि बीजिंग धीरे-धीरे यहां अपने पांव फैलाने की कोशिश कर रहा है — विशेष रूप से खनिज संसाधनों के लिए। लेकिन यह भी एक बड़ा खतरा बन सकता है।
नेपाल, जो एक शांत और स्थिर देश माना जाता था, अब चीन के साथ बढ़ते व्यापार घाटे से जूझ रहा है। नेपाल की आर्थिक व्यवस्था पहले ही Import पर अधिक निर्भर रही है, और अब चीनी उत्पादों के बड़े स्तर पर Import ने घरेलू उद्योगों को संकट में डाल दिया है। इसके साथ ही, चीन द्वारा बनाए जा रहे रोड नेटवर्क और इंफ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट्स नेपाल को कर्ज की ओर भी धकेल रहे हैं। और अगर यही ट्रेंड जारी रहा, तो नेपाल की आर्थिक संप्रभुता भी खतरे में पड़ सकती है।
इन सब देशों की एक साझा कहानी है — पहले चीन का Investment आता है, बड़ी-बड़ी घोषणाएं होती हैं, चमकते-चमकते इन्फ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट्स शुरू होते हैं, लेकिन जब लोन की किस्तें चुकानी होती हैं, तब समझ आता है कि कर्ज की शर्तें कितनी कठोर थीं। और तब शुरू होता है कटौती, गिरती अर्थव्यवस्था और टूटता राजनीतिक संतुलन। यह वही पैटर्न है जिसे दुनिया अब ‘डेब्ट ट्रैप डिप्लोमेसी’ यानी कर्ज-जाल रणनीति कहती है।
चीन इन देशों को पहले जरूरत के वक्त सस्ता कर्ज देने का लालच देता है, लेकिन यह कर्ज होता है हाई इंटरेस्ट रेट पर। और फिर जब भुगतान की घड़ी आती है, तो ये देश मजबूरी में चीन को रणनीतिक जमीन, बंदरगाह या प्राकृतिक संसाधनों तक की इजाजत दे देते हैं। श्रीलंका का हंबनटोटा पोर्ट इसका जीता-जागता उदाहरण है, जिसे चीन ने 99 साल के लीज पर ले लिया।
अब सवाल है कि क्या इन देशों के पास कोई विकल्प नहीं था? क्या उन्होंने खुद अपनी संप्रभुता को बेच दिया? इसका जवाब भी जटिल है। कई बार देशों को तत्काल विकास की जरूरत होती है, लेकिन लंबी रणनीति के बिना लिए गए फैसले, खासकर चीन जैसे कर्जदाताओं के साथ, भारी पड़ जाते हैं। इन देशों के लिए यह समय आत्मचिंतन का है।
भारत ने भी चीन से संबंध बनाए हैं, लेकिन हर कदम पर सतर्कता बरती है। भारत ने कभी कर्ज की आड़ में अपनी नीति नहीं बदली। बल्कि ‘मेक इन इंडिया’, ‘वोकल फॉर लोकल’ और ‘आत्मनिर्भर भारत’ जैसी योजनाओं के जरिए भारत ने विदेशी निर्भरता को कम करने की दिशा में काम किया है। और यही वजह है कि भारत आज स्थिर, आत्मनिर्भर और वैश्विक मंच पर सम्मानित अर्थव्यवस्था बना हुआ है।
इस पूरे प्रकरण से एक गहरा सबक मिलता है — कोई भी चमकती सड़क या टावर तभी तक फायदे का सौदा है, जब तक वह देश की जनता और अर्थव्यवस्था को मजबूती दे। अगर वह सड़क किसी और के नियंत्रण में जाती है, तो वह संपत्ति नहीं, जंजीर बन जाती है।
चीन की कर्ज नीति पर अब वैश्विक मंचों पर भी सवाल उठ रहे हैं। IMF और विश्व बैंक जैसे संस्थान भी चेतावनी दे चुके हैं कि यह ‘सस्टेनेबल डेवलपमेंट’ नहीं बल्कि ‘स्ट्रेटजिक ट्रैप’ है। ऐसे में South Asian देशों को चाहिए कि वे साझेदारी के नाम पर अपनी संप्रभुता न खोएं, और आर्थिक फैसलों को तात्कालिक नहीं, दीर्घकालिक दृष्टिकोण से लें।
क्या इन 5 देशों के पास वापसी का कोई रास्ता है? हां, लेकिन उसके लिए उन्हें पारदर्शी प्रशासन, राजनीतिक स्थिरता, लोकल इंडस्ट्री को प्राथमिकता, और विदेशी कर्ज से दूर रहकर आत्मनिर्भर मॉडल अपनाना होगा। नहीं तो यह गिरावट केवल आर्थिक नहीं होगी, यह उनकी आज़ादी और अस्तित्व तक को खतरे में डाल देगी। क्या आपको लगता है कि चीन की ये रणनीति जानबूझकर बनाई गई है? क्या ये देश अब जागेंगे या फिर चीन की गिरफ्त में और फंसते चले जाएंगे? अपनी राय हमें कमेंट में बताएं।
Conclusion
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