सोचिए, एक देश जहां जनता रोटी के लिए लाइन में है, दवा के लिए दर-दर भटकती है, डॉलर के लिए सरकार हाथ फैलाती है… लेकिन उसी देश का आर्मी चीफ करोड़ों का मालिक है! पाकिस्तान की आर्थिक हालत दुनिया के सामने है—विदेशी मुद्रा खत्म, IMF के दरवाज़े पर खड़ा मुल्क, और महंगाई की आग में जलती आवाम। लेकिन उस तस्वीर से बिल्कुल अलग है पाकिस्तानी सेना के सबसे बड़े अफसर की रईसी। जनरल Asim Munir… जिनकी घोषित संपत्ति ही 6 करोड़ 77 लाख रुपये से ज़्यादा है। और जो दिखाई दे रहा है, वो तो सिर्फ “घोषित” है। असल संपत्ति क्या है? इसका कोई अंदाज़ा नहीं लगा सकता। आज हम इसी विषय पर गहराई में चर्चा करेंगे।
पाकिस्तान की सेना पर लंबे समय से यह आरोप लगता रहा है कि वह केवल एक रक्षा संस्था नहीं, बल्कि एक विशाल कॉरपोरेट साम्राज्य भी है। और इस साम्राज्य के राजा होते हैं—वहीं आर्मी चीफ, जो सरकार से ऊपर और संविधान से परे माने जाते हैं। जनरल Asim Munir का मामला भी कुछ ऐसा ही है। 8 लाख डॉलर की नेटवर्थ दिखाने वाले मुनीर को लेकर सोशल मीडिया पर चर्चाओं का बाजार गर्म है। लोग सवाल पूछ रहे हैं—क्या एक फौजी अफसर इतनी दौलत केवल तनख्वाह से जोड़ सकता है?
असल में, पाकिस्तान की सेना केवल सुरक्षा नहीं देखती, वो देश की अर्थव्यवस्था भी चलाती है। फौजी फाउंडेशन, आर्मी वेलफेयर ट्रस्ट, शाहीन फाउंडेशन और बहरिया फाउंडेशन—ये नाम सुनने में भले कल्याणकारी लगें, लेकिन ये असल में अरबों डॉलर का कॉरपोरेट जाल है। इन फाउंडेशन के तहत चल रहे बिजनेस में बैंक, बीमा कंपनियां, ट्रांसपोर्ट, सीमेंट, खाद, टेक्सटाइल, डेयरी और खासतौर से—रियल एस्टेट शामिल है। पाकिस्तान के बड़े शहरों—इस्लामाबाद, कराची, लाहौर—में सबसे महंगे इलाकों में जो डिफेंस हाउसिंग अथॉरिटी (DHA) के प्रोजेक्ट्स हैं, वे सेना के ही हैं।
लेखिका अयेशा सिद्दिका ने अपनी चर्चित किताब Military Inc.: Inside Pakistan’s Military Economy में साफ लिखा है—पाकिस्तानी सेना का व्यापार किसी कॉर्पोरेट घराने से कम नहीं है। साल 2007 में ही इसकी वैल्यू 20 अरब डॉलर थी। अब यह आंकड़ा बढ़कर 40 से 100 अरब डॉलर के बीच बताया जाता है—यानि कि लगभग 85 खरब रुपये। और यह सिर्फ अनुमानों पर आधारित है, क्योंकि इनकम, खर्च, और संपत्ति का कोई स्वतंत्र ऑडिट कभी नहीं होता। सेना इसे “राष्ट्रीय सुरक्षा” के नाम पर छुपा लेती है।
तो अब समझिए—जब पाकिस्तान की आवाम महंगाई से कराह रही है, IMF की शर्तों पर सब्सिडी खत्म की जा रही है, बिजली-पानी तक के लिए कर्ज लेना पड़ रहा है, तब सेना मुनाफे में चल रही कंपनियों से करोड़ों का Revenue कमा रही है। और यही वजह है कि जनरल Asim Munir जैसे अफसर, जिन्हें देश की रक्षा करनी चाहिए, वो अघोषित रूप से एक बिजनेसमैन की तरह अमीर बनते जा रहे हैं।
रियल एस्टेट का खेल तो अलग ही है। सेना “राष्ट्रीय सुरक्षा” के नाम पर शहरों के बाहरी इलाकों में ज़मीन अधिग्रहित करती है। फिर उसे हाउसिंग सोसायटी में बदल देती है। DHA के नाम से बेचे जाने वाले ये फ्लैट्स और प्लॉट्स इतने महंगे होते हैं कि आम आदमी तो उनकी तरफ देख भी नहीं सकता। लेकिन इनसे सेना को हर साल करोड़ों डॉलर की कमाई होती है।
और ये बात सिर्फ Asim Munir तक नहीं है। उनके पहले जो सेना प्रमुख थे—जनरल कमर जावेद बाजवा, जब 2018 में आर्मी चीफ बने, तो उनके पास घोषित तौर पर कोई संपत्ति नहीं थी। लेकिन जब 2022 में रिटायर हुए, तब उनके परिवार की संपत्ति 13 अरब पाकिस्तानी रुपये से ज़्यादा हो चुकी थी। ये अचानक से हुए कमाल की तरह लगता है। लेकिन सवाल है—ये कमाल कैसे हुआ?
सेना के आंतरिक नियम, बजट नियंत्रण और बिजनेस प्रैक्टिस को लेकर पाकिस्तान में पारदर्शिता की कोई प्रणाली नहीं है। वहां सेना सरकार से ज़्यादा ताकतवर मानी जाती है। ऐसे में अगर सेना कोई व्यापार करती है, ज़मीन खरीदती-बेचती है, या Investment करती है, तो कोई उसे सवाल नहीं कर सकता। यहां तक कि पाकिस्तान की संसद भी सेना की Income और Expenses पर सवाल नहीं उठा सकती।
अब सोचिए, ऐसे में अगर सेना प्रमुख की संपत्ति कुछ करोड़ों में दिखती है, तो क्या वो पूरी सच्चाई है? या सिर्फ उतनी जो दिखाई गई है? सोशल मीडिया पर लोग पूछ रहे हैं—क्या Asim Munir की संपत्ति सिर्फ 8 लाख डॉलर है? क्या वाकई इतने बड़े सैन्य साम्राज्य का मालिक सिर्फ इतने में संतुष्ट होगा?
इतना ही नहीं, इस बिजनेस मॉडल में पारदर्शिता की कमी के कारण भ्रष्टाचार भी गहराई से जुड़ा हुआ है। मीडिया रिपोर्ट्स और खोजी पत्रकारिता की कहानियां बताती हैं कि कैसे रिटायर्ड आर्मी अफसरों को प्लॉट्स मिलते हैं, कैसे सैन्य अधिकारी DHA प्रोजेक्ट्स में डायरेक्टर बनते हैं, और कैसे सेना से रिटायर होते ही अफसर किसी न किसी बिजनेस कंसोर्टियम में टॉप पदों पर पहुंच जाते हैं।
अब सवाल है—क्या पाकिस्तान की आर्थिक बर्बादी का एक बड़ा कारण यही सैन्य आर्थिक नियंत्रण है? क्या जब देश का सबसे ताकतवर संस्थान खुद बिजनेस में शामिल हो, तब बाकी उद्योगों को बढ़ने का मौका मिलेगा? क्या आम नागरिक के टैक्स का पैसा सिर्फ रक्षा बजट तक सीमित रहेगा, या उस पैसे से बनी सड़कों पर रियल एस्टेट बेचकर अधिकारी अमीर बनते रहेंगे?
पाकिस्तान का आम नागरिक इस ढांचे से परेशान है। वहां की जनता आए दिन महंगाई, बेरोजगारी और भ्रष्टाचार के खिलाफ सड़कों पर उतरती है। लेकिन जब तक सेना आर्थिक और राजनीतिक रूप से सर्वोपरि बनी रहेगी, तब तक इन आवाज़ों का दबा रहना तय है।
दूसरी ओर, भारत में भी इस पूरे प्रकरण को लेकर सवाल उठाए जा रहे हैं। जब पाकिस्तान खुद को ‘पीड़ित’ देश बताकर IMF और वर्ल्ड बैंक से मदद मांगता है, और दूसरी तरफ उसकी सेना अरबों का व्यापार करती है, तो अंतरराष्ट्रीय मंचों को भी इसकी समीक्षा करनी चाहिए। क्या यह फंडिंग वाकई जनता की भलाई में जा रही है? या सेना के आलीशान हेडक्वार्टर और मुनाफे वाले प्रोजेक्ट्स में?
भारत जैसे पड़ोसी देश के लिए यह चिंता इसलिए भी ज़रूरी है क्योंकि पाकिस्तान की सेना न केवल एक आर्थिक ताकत है, बल्कि एक राजनीतिक और सामरिक मशीन भी है, जो बार-बार सीमा पार आतंकवाद को बढ़ावा देने के आरोपों से घिरी रही है। ऐसे में सवाल ये भी उठता है कि अगर सेना को इतने अरबों की कमाई मिल रही है, तो क्या इसका कुछ हिस्सा भारत-विरोधी गतिविधियों में भी लगाया जा सकता है?
आख़िर में, यह कहानी सिर्फ Asim Munir की संपत्ति की नहीं है—यह कहानी है उस सिस्टम की, जिसने पाकिस्तान को कंगाल बना दिया है, लेकिन वहीं सिस्टम के कुछ चेहरे अरबपति बनते जा रहे हैं। यह उस विरोधाभास की कहानी है, जहां देश रो रहा है और सत्ता में बैठे लोग हंस रहे हैं।
क्या आप मानते हैं कि पाकिस्तान की सेना को अपने व्यापारिक साम्राज्य से पीछे हटना चाहिए? क्या सेना को केवल रक्षा तक सीमित रहना चाहिए? और क्या अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं को पाकिस्तान को मिलने वाली आर्थिक मदद से पहले इस सिस्टम पर नज़र डालनी चाहिए? अपनी राय नीचे कमेंट करें।
Conclusion
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