Pakistan के 5 असली दुश्मन: भारत नहीं, अंदर से कैसे बर्बाद हो रहा है पाकिस्तान?

सोचिए, एक देश जो दुनिया के सामने एक युद्ध का ऐलान कर रहा हो, अपनी ताकत के बखान कर रहा हो, लेकिन अंदर ही अंदर उसकी नींव इतनी खोखली हो चुकी हो कि एक हलकी सी ठोकर भी उसे जड़ से उखाड़ सकती है। गुरुवार को Pakistan के प्रधानमंत्री शहबाज शरीफ की अध्यक्षता में हुई, एक आपातकालीन बैठक के बाद जब भारत के खिलाफ कड़े कदम उठाने की घोषणाएं हुईं — सिंधु जल संधि का निलंबन, शिमला समझौते को सस्पेंड करना, भारत से सभी व्यापार बंद करना, भारतीय राजनयिकों को निष्कासित करना और भारतीय एयरलाइनों के लिए हवाई क्षेत्र बंद करना — तो एक पल के लिए लगा कि पाकिस्तान कोई बड़ा खेल खेलने जा रहा है।

लेकिन जो तस्वीर सामने आ रही है, वह कहीं ज्यादा खौफनाक है। पाकिस्तान का सबसे बड़ा दुश्मन भारत नहीं है। असल दुश्मन तो वो ज़हरीले नाग हैं जो उसके अपने ही घर में फुफकार रहे हैं — चरमराती अर्थव्यवस्था, डूबता foreign currency reserves, आसमान छूता कर्ज, आईएमएफ पर निर्भरता, अमेरिकी सहायता का संकट और राजनीतिक अस्थिरता।  आज हम इसी विषय पर गहराई में चर्चा करेंगे।

सबसे पहले बात करते हैं पाकिस्तान के foreign currency reserves की, जो अब एक बेहद खतरनाक स्तर पर पहुंच चुका है। स्टेट बैंक ऑफ पाकिस्तान के आंकड़े बताते हैं कि मार्च के पहले सप्ताह में, पाकिस्तान के फॉरेक्स रिजर्व में 150 मिलियन डॉलर से ज्यादा की गिरावट आई और इसका कारण है? भारी रीपेमेंट — यानी जितना कर्ज लिया था, अब उसे चुकाने का समय आ चुका है, लेकिन नए कर्ज का कोई इंतजाम नहीं।

इस गिरावट ने न केवल पाकिस्तान की आर्थिक हड्डियों को तोड़ दिया है, बल्कि उसकी अंतरराष्ट्रीय बाजारों में साख को भी ध्वस्त कर दिया है। अब सवाल ये उठता है कि ऐसे में पाकिस्तान युद्ध छेड़कर अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी क्यों मारना चाहता है?

लेकिन कहानी यहीं खत्म नहीं होती। पाकिस्तान के सिर पर जो सबसे बड़ा आर्थिक हथौड़ा लटक रहा है, वो है उसका बाहरी कर्ज। सीईआईसी के ताजे आंकड़े बताते हैं कि दिसंबर 2024 तक पाकिस्तान का एक्सटरनल लोन 131 बिलियन डॉलर के रिकॉर्ड स्तर पर पहुंच चुका था।

सोचिए, एक ऐसा देश जिसकी जीडीपी लड़खड़ा रही है, उसके ऊपर 100 अरब डॉलर से ज्यादा का कर्ज चुकाने का बोझ चार साल में पूरा करना है। वित्त राज्य मंत्री अली परवेज मलिक ने खुद नेशनल असेंबली की बैठक में इस डरावनी सच्चाई को स्वीकार किया था। अब अगर पाकिस्तान की सरकारें बदलती भी हैं, तो इस विशाल कर्ज के बोझ से निजात पाना किसी चमत्कार से कम नहीं होगा। और युद्ध? युद्ध तो इस हालत में खुदकुशी के बराबर है।

आईएमएफ बेलआउट पर नजर डालें तो वह भी Pakistan की हालत बयां करने के लिए काफी है। पिछले साल सितंबर में आईएमएफ ने पाकिस्तान को 7 बिलियन डॉलर का नया लोन दिया था। लेकिन यह लोन भी आसान शर्तों पर नहीं आया। इसके लिए Pakistan को 37 किस्तों में पैसे मिलेंगे और हर किस्त के साथ कठोर आर्थिक सुधारों की शर्तें जुड़ी हुई हैं।

और सबसे बड़ी बात — आईएमएफ ने साफ चेतावनी दी थी कि Pakistan की आर्थिक कमजोरियां, उसकी नीतिगत अस्थिरता और ढांचागत समस्याएं इतने गहरे हैं कि बिना व्यापक सुधार के यह देश खुद को संभाल नहीं पाएगा। यानी पाकिस्तान को बार-बार कर्ज के सहारे ऑक्सीजन दी जा रही है, लेकिन उसकी आर्थिक सेहत लगातार वेंटिलेटर पर जा रही है।

अगर आपको लगता है कि आईएमएफ के सहारे Pakistan की नैया पार लग सकती है, तो जरा अमेरिकी सहायता के अध्याय पर भी नजर डालिए। डोनाल्ड ट्रंप के कार्यकाल में अमेरिका ने पाकिस्तान को दी जाने वाली बड़ी विदेशी सहायता को निलंबित कर दिया था। विदेश विभाग और यूएसएआईडी के माध्यम से चलने वाली अधिकांश फंडिंग रोक दी गई थी।

और यह केवल एक अस्थायी रोक नहीं थी — बल्कि उसके पीछे एक बड़ी रणनीतिक सोच थी: आतंकवाद पर Pakistan की ढीली पकड़ को खत्म करना। 90 दिनों की समीक्षा अवधि के बाद भी कोई स्पष्ट ग्रीन सिग्नल नहीं मिला। परिणामस्वरूप, Pakistan अपनी जीवनरेखा खो बैठा — वो डॉलर सप्लाई जो हर संकट के वक्त उसके जख्मों पर मरहम बनती थी। और आज भी, वह उसी दरार को पाटने के लिए हर दरवाजे पर भटक रहा है।

Pakistan की समस्या केवल आर्थिक या कूटनीतिक नहीं है। असली जड़ तो उसके अपने राजनीतिक तंत्र में सड़ चुकी है। अपने 75 साल के इतिहास में पाकिस्तान ने कभी भी एक भी प्रधानमंत्री को पूरे कार्यकाल तक कुर्सी पर नहीं टिकने दिया। हर कुछ सालों में भ्रष्टाचार के आरोप, सैन्य तख्तापलट या आपसी राजनीतिक झगड़ों के चलते प्रधानमंत्री को बाहर का रास्ता दिखा दिया जाता है। इमरान खान का उदाहरण तो सबके सामने है — जिनका कार्यकाल सिर्फ तीन साल सात महीने में ही खत्म कर दिया गया। इस अस्थिरता ने एक ऐसा चक्रव्यूह बना दिया है जिसमें Pakistan खुद ही फंसा हुआ है और बाहर निकलने का कोई रास्ता नहीं दिख रहा।

अब जब एक देश की अर्थव्यवस्था कमज़ोर हो, कर्ज का बोझ लद रहा हो, अंतरराष्ट्रीय सहायता बंद हो रही हो और राजनीतिक अस्थिरता सिर चढ़कर बोल रही हो — तो क्या ऐसा देश युद्ध कर सकता है? जवाब है — कर तो सकता है, लेकिन जीत नहीं सकता। युद्ध के मैदान में बंदूक से ज्यादा जरूरी होता है मनोबल, अर्थव्यवस्था और स्थिर नेतृत्व — और दुर्भाग्य से पाकिस्तान के पास आज इन तीनों चीजों की भारी कमी है।

Pakistan में जो भी बची-खुची उम्मीद थी, वह भी देश के अंदरूनी संघर्षों और आतंकवाद के पनपते अड्डों ने निगल ली है। अफगानिस्तान से जुड़े हालात, बलूचिस्तान में जारी विद्रोह, सिंध और कराची में आपराधिक गिरोहों का बोलबाला — सब मिलकर Pakistan के लिए एक घातक cocktail तैयार कर चुके हैं। और जब घर के अंदर ही इतने दुश्मन हों, तो बाहर के दुश्मन से लड़ाई लड़ना नामुमकिन हो जाता है।

भारत के खिलाफ जो कदम Pakistan ने उठाए हैं — सिंधु जल संधि को सस्पेंड करना, शिमला समझौते को खत्म करना, व्यापार और कूटनीतिक संबंधों पर रोक लगाना — ये सभी कदम एक बड़े संकट को जन्म दे सकते हैं। भारत के लिए तो ये कदम उतने नुकसानदेह नहीं हैं, जितने खुद Pakistan के लिए हैं। सिंधु नदी के पानी का बड़ा हिस्सा भारत में ही है और पाकिस्तान का कृषि आधार इसी पर टिका है। अगर पानी की आपूर्ति प्रभावित होती है, तो खाद्य संकट का खतरा मंडरा सकता है — और एक भूख से जूझता देश युद्ध नहीं जीत सकता।

अंतरराष्ट्रीय समुदाय भी Pakistan की हालत को लेकर गंभीर है। हाल ही में आई रिपोर्ट्स बताती हैं कि वर्ल्ड बैंक, एशियन डेवलपमेंट बैंक जैसी संस्थाओं ने भी पाकिस्तान की आर्थिक नीतियों पर सवाल उठाए हैं और नई फंडिंग को सशर्त कर दिया है। मतलब, कर्ज का दरवाजा भी अब धीरे-धीरे बंद होता जा रहा है। और जिन देशों से पाकिस्तान पारंपरिक रूप से मदद लेता आया है — जैसे चीन या खाड़ी देश — वे भी अब अपने Investments पर रिटर्न चाहते हैं, दान नहीं।

आखिर में सबसे बड़ा सवाल उठता है: क्या पाकिस्तान को उसके असली दुश्मनों का एहसास है? या वह आज भी भारत को अपना मुख्य दुश्मन मानकर एक भ्रम में जी रहा है? क्योंकि सच्चाई तो ये है कि अगर Pakistan को कोई खतरा है, तो वो भारत की सेनाओं या नीतियों से नहीं — बल्कि अपनी ही जर्जर अर्थव्यवस्था, अस्थिर राजनीति, ढहते विदेशी संबंधों और खोखली कूटनीति से है।

इस पूरी कहानी में एक कड़वी सच्चाई भी छुपी है — जब कोई देश अपनी आंतरिक समस्याओं को हल नहीं कर पाता, तो वह बाहरी दुश्मनों की कहानियां गढ़ता है ताकि जनता का ध्यान भटकाया जा सके। पाकिस्तान भी शायद इसी रणनीति पर चल रहा है — अपने असली दुश्मनों से ध्यान हटाकर, एक काल्पनिक युद्ध के नायक बनने की कोशिश कर रहा है।

लेकिन इतिहास गवाह है — जो देश अपने भीतर के घावों को नहीं भरते, वे बाहरी हमलों से नहीं, बल्कि खुद अपने ही बोझ तले दबकर खत्म हो जाते हैं। पाकिस्तान भी अगर जल्द अपने भीतर के पांच दुश्मनों से नहीं निपटा — Foreign exchange crisis, कर्ज का पहाड़, आईएमएफ की गुलामी, अमेरिकी मदद का संकट और राजनीतिक अस्थिरता — तो वो दिन दूर नहीं जब इतिहास उसे एक चेतावनी के उदाहरण के रूप में याद करेगा, न कि एक विजेता के रूप में।

Conclusion

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