Federal Reserve पर ट्रंप की नजर! पॉवेल की कुर्सी डगमगाई, लेकिन इससे मिल सकता है बाजार को बूस्ट! 2025

एक ऐसा हमला जो सिर्फ एक व्यक्ति पर नहीं, बल्कि पूरी आर्थिक व्यवस्था की आत्मा पर किया गया हो—क्या आपने कभी सोचा है कि अगर किसी देश का राष्ट्रपति खुद उस संस्था को खत्म करने की कोशिश करे, जो अर्थव्यवस्था की धड़कन संभालती है, तो क्या होगा? आज अमेरिका में ठीक यही हो रहा है।

डोनाल्ड ट्रंप ने एक बार फिर वो कर दिखाया है, जो अब तक सिर्फ कल्पनाओं में होता था—उन्होंने देश की सबसे शक्तिशाली संस्था Federal Reserve के प्रमुख जेरोम पॉवेल पर सीधा हमला बोल दिया है। और ये हमला सिर्फ शब्दों का नहीं, बल्कि बर्खास्तगी तक की धमकी का है। अब सवाल ये है—क्या ट्रंप वाकई पॉवेल को हटा सकते हैं? और अगर हटा दिया, तो इसके बाद अमेरिका की अर्थव्यवस्था का क्या होगा? आज हम इसी विषय पर गहराई में चर्चा करेंगे।

डोनाल्ड ट्रंप का ये गुस्सा अचानक नहीं फूटा। इसकी शुरुआत उस समय हुई जब Federal Reserve ने ट्रंप की उम्मीदों के उलट, ब्याज दरों में कटौती करने से इनकार कर दिया। ट्रंप को उम्मीद थी कि पॉवेल अर्थव्यवस्था को तेजी देने के लिए ब्याज दरों को कम करेंगे, ताकि बाजारों में नकदी की रफ्तार बढ़े और कर्ज लेना सस्ता हो। लेकिन जब ऐसा नहीं हुआ, तो ट्रंप का पारा चढ़ गया। उन्होंने खुलेआम पॉवेल की आलोचना करते हुए कहा कि वो उनसे ‘खुश नहीं हैं’ और अगर चाहें तो उन्हें फौरन बाहर का रास्ता दिखा सकते हैं।

इस धमकी ने न केवल अमेरिका की राजनीति में भूचाल ला दिया, बल्कि पूरी दुनिया की नजरें इस टकराव पर टिक गईं। क्योंकि Federal Reserve कोई आम संस्था नहीं है—ये वो संस्था है जो न केवल अमेरिका, बल्कि Global financial markets की दिशा तय करती है। इसके फैसले से डॉलर की कीमत, शेयर बाजार की चाल और यहां तक कि भारत जैसे देशों की मुद्रा पर भी असर पड़ता है।

अब अगर फेड के चेयरमैन को केवल इसलिए हटाने की बात हो रही हो क्योंकि उन्होंने राष्ट्रपति की बात नहीं मानी, तो ये बात केवल पॉवेल की नौकरी का मसला नहीं रह जाता—ये एक गंभीर संवैधानिक और संस्थागत संकट बन जाता है। क्योंकि फेड की स्वतंत्रता को अमेरिकी लोकतंत्र की नींव माना जाता है। लेकिन इस पूरे घटनाक्रम में सबसे अहम सवाल है—क्या ट्रंप सच में पॉवेल को हटा सकते हैं? और अगर हटा दिया गया, तो इसके क्या कानूनी और आर्थिक परिणाम होंगे?

कानून की किताबें साफ कहती हैं कि Federal Reserve के चेयरमैन को सिर्फ ‘कारण’ के आधार पर हटाया जा सकता है—कोई खास अनुशासनात्मक कारण, जैसे भ्रष्टाचार, कर्तव्यों में घोर लापरवाही, या नैतिक आचरण में गिरावट। लेकिन ‘मैं खुश नहीं हूं’—ये तो कोई कारण नहीं हुआ। खुद जेरोम पॉवेल ने भी स्पष्ट कर दिया है कि राष्ट्रपति उन्हें हटाने के लिए अधिकृत नहीं हैं, जब तक कोई ठोस कारण ना हो।

हालांकि कुछ कानूनी जानकारों की राय अलग है। उनका मानना है कि राष्ट्रपति पॉवेल को फेड के चेयरमैन पद से तो हटा सकते हैं, लेकिन फेडरल बोर्ड ऑफ गवर्नर्स से नहीं। यानी पॉवेल पद बदल सकते हैं, लेकिन संस्था से नहीं हटाए जा सकते। लेकिन इस विषय पर अमेरिका का सुप्रीम कोर्ट अब विचार कर रहा है, और अगर कोर्ट ने ट्रंप के पक्ष में फैसला दे दिया, तो यह फेड की स्वतंत्रता पर सबसे बड़ा हमला माना जाएगा।

यह सारा विवाद उस समय सामने आया है जब अमेरिका पहले ही टैरिफ वॉर से जूझ रहा है। भारत, चीन और यूरोप के देशों पर ट्रंप ने रेसिप्रोकल टैरिफ यानी बदले की दरें लागू कर दी हैं। इससे Global व्यापार में भारी उथल-पुथल मची है और अमेरिकी बाजार अस्थिर हो चुके हैं। ऐसे में अगर फेड की स्वतंत्रता पर भी खतरा मंडराने लगे, तो Investors का भरोसा डगमगाना तय है।

बाजार का भरोसा सिर्फ नीतियों पर नहीं, संस्थाओं की स्थिरता पर भी होता है। अगर बाजार को लगे कि अमेरिका की नीति सिर्फ एक व्यक्ति की मर्जी से चल रही है, तो पूंजी पलायन शुरू हो सकता है। शेयर बाजारों में गिरावट, बॉन्ड यील्ड में उतार-चढ़ाव और डॉलर में कमजोरी की आशंका से इनकार नहीं किया जा सकता।

दूसरी तरफ, जेरोम पॉवेल की छवि एक शांत और संतुलित सेंट्रल बैंकर की है। उन्होंने कई बार कहा है कि Federal Reserve अपने निर्णय राष्ट्रपति की मर्जी से नहीं, बल्कि आर्थिक संकेतकों के आधार पर लेता है। फेड की भूमिका है अर्थव्यवस्था को स्थिर बनाना—not politics, just data.

ट्रंप की आलोचना के बावजूद पॉवेल ने हमेशा एक पेशेवर रुख अपनाया है। उन्होंने न तो ट्रंप के हमलों का जवाब व्यक्तिगत तौर पर दिया और न ही फेड की नीति में कोई ‘राजनीतिक झुकाव’ दिखाया। यही कारण है कि ज्यादातर Investor पॉवेल के नेतृत्व को भरोसेमंद मानते हैं।

लेकिन ट्रंप की राजनीति सिर्फ आंकड़ों पर नहीं चलती—वो जनभावनाओं पर खेलते हैं। और जब चुनाव नजदीक हों, तो उन्हें एक बलि का बकरा चाहिए होता है। ऐसे में अगर अर्थव्यवस्था कमजोर हो रही हो, शेयर बाजार गिर रहा हो, तो ट्रंप जनता को यह दिखाना चाहेंगे कि इसकी वजह पॉवेल हैं, न कि उनकी खुद की टैरिफ पॉलिसी।

यह रणनीति ट्रंप पहले भी अपना चुके हैं। चाहे 2018 की मंदी का डर हो या कोविड के दौरान गिरते बाजार, ट्रंप ने हर बार फेड को जिम्मेदार ठहराया। उन्होंने कई बार ट्वीट कर कहा कि फेड की नीति अमेरिका की ग्रोथ को रोक रही है। लेकिन अब उन्होंने एक कदम और आगे बढ़ाते हुए पॉवेल की कुर्सी को ही हिला दिया है।

इसका असर न केवल अमेरिका, बल्कि पूरी दुनिया पर होगा। भारत जैसे उभरते हुए देशों की अर्थव्यवस्था पहले ही Global uncertainty से जूझ रही है। अगर फेड में राजनीतिक हस्तक्षेप बढ़ता है, तो डॉलर का अस्थिर होना तय है, और इसका सीधा असर भारतीय रुपये और भारतीय स्टॉक मार्केट पर पड़ेगा।

अब जब मामला अमेरिका के सुप्रीम कोर्ट तक पहुंच गया है, तो यह कानूनी और संवैधानिक लड़ाई बन चुकी है। कोर्ट को यह तय करना होगा कि क्या अमेरिका का राष्ट्रपति, दुनिया की सबसे स्वतंत्र सेंट्रल बैंक के मुखिया को सिर्फ अपनी मर्जी से हटा सकता है?

अगर सुप्रीम कोर्ट ने ट्रंप के पक्ष में फैसला दे दिया, तो यह एक खतरनाक मिसाल बन जाएगी। आगे चलकर कोई भी राष्ट्रपति अपनी नीतियों को सही साबित करने के लिए फेड को अपने इशारों पर चलाने की कोशिश करेगा। इससे संस्थागत स्वतंत्रता खत्म हो सकती है।

फिलहाल पॉवेल अपने पद पर बने हुए हैं, लेकिन जिस तरह से राष्ट्रपति ने उनके खिलाफ माहौल बनाया है, उससे पॉवेल की कार्यप्रणाली पर सवाल उठाए जा रहे हैं। और यही सबसे बड़ा खतरा है—अगर लोग यह मानने लगें कि फेड के फैसले स्वतंत्र नहीं, बल्कि राजनीतिक हैं, तो Global आर्थिक व्यवस्था पर से भरोसा उठ सकता है।

इस विवाद ने अमेरिका में संस्थाओं के बीच संतुलन पर भी बहस छेड़ दी है। क्या कार्यपालिका का प्रमुख, यानी राष्ट्रपति, उन संस्थाओं में दखल दे सकता है जिनकी स्वतंत्रता संविधान द्वारा सुनिश्चित की गई है? और अगर हां, तो फिर उस लोकतंत्र की नींव कितनी मजबूत रह जाएगी?

इस पूरे घटनाक्रम से यह बात साफ है कि अब Federal Reserve केवल आर्थिक संस्था नहीं रह गई—यह अमेरिका की लोकतांत्रिक प्रणाली की कसौटी बन गई है। पॉवेल की कुर्सी खतरे में है, लेकिन उससे बड़ा खतरा है एक ऐसी प्रणाली का, जहां संस्थाएं नेताओं की इच्छाओं के आगे झुक जाएं।

ट्रंप के इस कदम ने दुनिया को चेतावनी दी है—लोकतंत्र की सबसे बड़ी ताकत उसकी संस्थाएं होती हैं। अगर वे डगमगाईं, तो पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्था हिल सकती है। और शायद इसीलिए, आने वाले कुछ हफ्ते केवल अमेरिका के लिए नहीं, पूरी दुनिया के लिए बेहद अहम होने जा रहे हैं।

Conclusion

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