क्या आपने कभी सोचा है कि जिस आईफोन को आप आज अपने हाथ में लिए घूमते हैं, वो असल में 12 देशों की सामूहिक मेहनत का नतीजा है? और अब, जब डोनाल्ड ट्रंप ने धमकी दे डाली है कि अगर Apple ने, iPhone की मैन्युफैक्चरिंग अमेरिका में नहीं की तो 25% का भारी-भरकम टैरिफ लगेगा, तो सवाल उठता है—क्या इस एक फैसले से पूरी ग्लोबल सप्लाई चेन हिल जाएगी?
क्या सिर्फ एक राजनेता की आर्थिक राष्ट्रवाद वाली सोच दुनिया की सबसे बड़ी टेक्नोलॉजी कंपनियों की रणनीतियों को बदल देगी? और सबसे अहम सवाल—इस सबमें भारत की भूमिका क्या होगी? क्या भारत को नुकसान होगा या एक नई Global जिम्मेदारी निभाने का मौका मिलेगा? यही है आज की सबसे बड़ी टेक्नोलॉजी पॉलिटिक्स की कहानी, जो आने वाले दशक के औद्योगिक नक्शे को नया आकार दे सकती है। आज हम इसी विषय पर गहराई में चर्चा करेंगे।
iPhone बनाना एक देश का काम नहीं। यह एक अंतरराष्ट्रीय गठबंधन है जिसमें Apple के ब्रांड वैल्यू से लेकर दक्षिण कोरिया की स्क्रीन टेक्नोलॉजी, जापान के कैमरा सिस्टम, ताइवान की चिप मैन्युफैक्चरिंग, अमेरिका के ब्रॉडकॉम और क्वालकॉम जैसे कंपनियों के पार्ट्स, और भारत और चीन की असेंबलिंग यूनिट्स शामिल हैं।
एक iPhone की कीमत अगर 1000 डॉलर मानी जाए तो उसमें से लगभग 450 डॉलर सीधे Apple के खाते में जाता है—यह उसकी डिजाइन, सॉफ्टवेयर, और ब्रांड वैल्यू का हिस्सा है। लेकिन सबसे दिलचस्प पहलू ये है कि भारत और चीन जैसे देशों, जहां इसका अंतिम असेंबलिंग होता है, उन्हें सिर्फ 30 डॉलर यानी कुल कीमत का लगभग 3% हिस्सा मिलता है। यह दिखाता है कि किस तरह सस्ती लेबर और बड़े पैमाने पर उत्पादन क्षमता वाले देश, ग्लोबल ब्रांड्स की रीढ़ बन चुके हैं।
भारत में करीब 60,000 लोग Apple की असेंबलिंग यूनिट्स में काम कर रहे हैं। चीन में यह संख्या तीन लाख से भी ज्यादा है। इन लोगों की मेहनत ही वह नींव है जिस पर पूरी Apple की हार्डवेयर सप्लाई चेन टिकी है। पर अब जब ट्रंप अमेरिका में मैन्युफैक्चरिंग शिफ्ट करने की बात कर रहे हैं, तो ये पूरा संतुलन बदल सकता है।
ग्लोबल ट्रेड रिसर्च इनीशिएटिव (GTRI) के संस्थापक अजय श्रीवास्तव कहते हैं—अगर असेंबलिंग अमेरिका में होती है तो भारत से एक झटके में 60,000 और चीन से तीन लाख नौकरियां ट्रांसफर हो जाएंगी। यह राजनीति का एक हिस्सा है, जहां ट्रंप अमेरिकी नागरिकों को यह दिखाना चाहते हैं कि वह “मेड इन USA” को फिर से जीवित कर रहे हैं। लेकिन क्या केवल रोजगार पैदा करना ही एक मजबूत अर्थव्यवस्था का संकेत होता है, या फिर उत्पादन की व्यवहारिकता भी मायने रखती है?
लेकिन सवाल है—क्या यह संभव है? जवाब है—तकनीकी रूप से हां, लेकिन आर्थिक रूप से बहुत मुश्किल। भारत में एक असेंबलिंग वर्कर को हर महीने औसतन 230 डॉलर मिलते हैं, जबकि अमेरिका में यही लागत 2900 डॉलर तक जा सकती है।
यानी लागत में 13 गुना इजाफा। यदि Apple यही iPhone अमेरिका में असेंबल करता है, तो उसकी असेंबलिंग कॉस्ट 30 डॉलर से बढ़कर 390 डॉलर हो जाएगी। और यदि कंपनी कीमत नहीं बढ़ाती है, तो उसके प्रॉफिट मार्जिन 450 डॉलर से गिरकर केवल 60 डॉलर तक सिमट सकते हैं। इस तरह एक ऐसा बिजनेस मॉडल जो ब्रांड वैल्यू, सस्ते उत्पादन और कुशल सप्लाई चेन पर आधारित था, अब एक राजनैतिक दांव का शिकार बन सकता है।
लेकिन इस पूरी उठा-पटक में भारत कहां खड़ा है? क्या अगर Apple असेंबलिंग अमेरिका ले गया तो भारत को नुकसान होगा? GTRI के अनुसार, जवाब है—नहीं। बल्कि एक नए रास्ते के संकेत मिल सकते हैं। आज भारत को प्रति आईफोन 30 डॉलर मिलते हैं, जिसमें से बड़ा हिस्सा PLI स्कीम के तहत वापस Apple को सब्सिडी के रूप में चला जाता है।
साथ ही, भारत की मौजूदा पॉलिसी में स्मार्टफोन कंपोनेंट्स पर Import duty बहुत कम है, जिससे घरेलू कंपोनेंट मैन्युफैक्चरिंग विकसित नहीं हो पा रही। ऐसे में अगर Apple असेंबलिंग को शिफ्ट करता है, तो भारत को यह मजबूरी महसूस होगी कि वह डिस्प्ले, बैटरी, चिप जैसी गहरी मैन्युफैक्चरिंग में कदम रखे। यही मजबूरी भारत की अगली क्रांति का कारण बन सकती है।
यह बात इसलिए भी अहम है क्योंकि दुनिया की बड़ी टेक कंपनियां अब केवल असेंबलिंग नहीं, बल्कि कंपोनेंट्स के निर्माण पर ध्यान दे रही हैं। अगर भारत इस दिशा में Investment करता है तो वह केवल Apple के लिए नहीं, बल्कि पूरी इलेक्ट्रॉनिक्स इंडस्ट्री के लिए मैन्युफैक्चरिंग हब बन सकता है।
यानी असेंबलिंग के नुकसान के बदले, भारत को लॉन्ग टर्म में हाई-वैल्यू मैन्युफैक्चरिंग का लाभ मिल सकता है। इससे न केवल रोजगार बढ़ेगा, बल्कि भारत तकनीकी आत्मनिर्भरता की ओर भी एक बड़ा कदम बढ़ाएगा। यह बदलाव भारत को केवल एक आउटसोर्सिंग डेस्टिनेशन नहीं, बल्कि Global इनोवेशन सेंटर बना सकता है।
अब ट्रंप की धमकी की बात करें तो उन्होंने Truth Social पर स्पष्ट शब्दों में कहा—Apple को अमेरिका में बिकने वाले हर iPhone को अमेरिका में ही बनाना होगा। अगर ऐसा नहीं हुआ तो 25% टैरिफ देना पड़ेगा। ट्रंप की यह बात कोई नई नहीं है। उन्होंने पहले भी Apple को चेताया था जब कंपनी ने चीन से उत्पादन भारत और अन्य देशों में शिफ्ट करना शुरू किया था।
अब जब iPhone की भारत में मैन्युफैक्चरिंग लगातार बढ़ रही है, और रिपोर्ट्स कह रही हैं कि जून तिमाही में अमेरिका में बिकने वाले अधिकतर iPhone भारत से आएंगे, ट्रंप की नाराजगी समझ में आती है। पर सवाल यह भी है कि क्या यह नाराजगी व्यावहारिक समाधान की ओर ले जाएगी, या फिर Global व्यापार को संकट की ओर धकेलेगी?
हालांकि, इसका सीधा असर अमेरिका में iPhone की कीमतों पर पड़ सकता है। अगर Apple टैरिफ भुगतेगा तो वह अपनी कीमतें बढ़ा सकता है। और अगर वो मैन्युफैक्चरिंग अमेरिका में करता है तो लागत के कारण कीमतें बढ़ेंगी। दोनों ही सूरत में उपभोक्ता पर असर होगा।
साथ ही, Apple की बिक्री में गिरावट भी संभव है। भारत, चीन और वियतनाम जैसे लो-कॉस्ट मैन्युफैक्चरिंग देशों से जुड़ी Apple की रणनीति अब ट्रंप की टैरिफ पॉलिसी के कारण खतरे में आ सकती है। यह रणनीति सिर्फ Apple तक सीमित नहीं रहेगी—यह Dell, HP, Tesla जैसे तमाम ब्रांड्स को भी अपनी रणनीति बदलने पर मजबूर कर सकती है।
Apple के लिए चुनौती यह है कि उसे अपना ब्रांड वैल्यू, मुनाफा और बाजार—तीनों को संतुलन में रखना है। अमेरिका में प्रोडक्शन शिफ्ट करना ट्रंप की शर्तों को पूरा तो कर सकता है, लेकिन इससे Apple की Global सप्लाई चेन पर असर पड़ेगा। वहीं अगर वह टैरिफ चुका कर भी भारत और चीन में उत्पादन जारी रखता है तो, उसे अमेरिकी उपभोक्ता के बीच राजनीतिक आलोचना का सामना करना पड़ सकता है। इस डेडलॉक में भारत की भूमिका यह होगी कि वह खुद को एक वैकल्पिक और विश्वसनीय मैन्युफैक्चरिंग डेस्टिनेशन के रूप में स्थापित करे। यह मौका है जब भारत केवल service provider नहीं, बल्कि Global supply chain का नेतृत्वकर्ता बन सकता है।
अब भारत को भी इस मुद्दे को केवल एक लेबर-इकोनॉमिक्स के नजरिए से नहीं देखना चाहिए। अगर देश अगले 5 सालों में PLI के साथ-साथ कंपोनेंट मैन्युफैक्चरिंग पर फोकस करता है तो, iPhone जैसी Global प्रोडक्ट्स का पूरा उत्पादन भारत में संभव हो सकता है। यह केवल Apple की बात नहीं, बल्कि उन हजारों कंपनियों की बात है जो भारत की स्किल्ड वर्कफोर्स, इंफ्रास्ट्रक्चर और पॉलिसी सपोर्ट के कारण यहां Investment करना चाहती हैं। Apple के बहाने भारत को अपनी लॉन्ग टर्म इंडस्ट्रियल पॉलिसी को फिर से देखना चाहिए। यह मौका है नई औद्योगिक क्रांति को दिशा देने का, जहां भारत इनोवेशन और निर्माण दोनों का गढ़ बन सकता है।
Conclusion
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