ज़रा सोचिए… एक ऐसा ऑफर आपके सामने रखा जाए, जो पहली नज़र में सुनने में सोने की खान लगे। चीन कहे—“आओ, हमारे साथ जुड़ जाओ, हम तुम्हें जीरो tariff वाला सबसे बड़ा बाज़ार देंगे। तुम्हारा सामान बिना किसी टैक्स के पूरी एशिया में बिकेगा। तुम्हारे उद्योगों को एक अरब से भी ज़्यादा ग्राहकों तक पहुँच मिलेगी।” सुनने में कितना शानदार लगता है, है ना? लेकिन क्या वाकई यह ऑफर उतना सुनहरा है जितना दिखता है?
या फिर यह उस चमकदार मिठाई की तरह है जिसमें भीतर ज़हर छुपा हो? भारत आज इसी दुविधा में खड़ा है। अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने हम पर टैरिफ़ का दबाव बनाया, और चीन ने उसी मौके पर हमें ज़ीरो tariff वाले विशाल बाज़ार में शामिल होने का न्योता दिया। पर असली सवाल यह है—क्या भारत को यह ऑफर स्वीकार करना चाहिए? या यह हमारे घरेलू उद्योगों के लिए मौत की घंटी बन जाएगा? आज हम इसी विषय पर गहराई में चर्चा करेंगे।
भारत का विशाल बाज़ार दुनिया के लिए हमेशा से लुभावना रहा है। 1.4 अरब की आबादी, तेजी से बढ़ता Middle class और उसकी Purchasing power—ये वो तीन बातें हैं जिनके दम पर कोई भी महाशक्ति यह दावा नहीं कर सकती कि वो, भारत के बिना अपनी आर्थिक ताक़त को पूरी तरह मज़बूत बना सकती है।
यही वजह है कि जब अमेरिका ने भारत पर tariff का दबाव बढ़ाया, चीन ने तुरंत यह अवसर भुनाया और हमें फिर से “Regional Comprehensive Economic Partnership” यानी RCEP का सदस्य बनने का ऑफर दिया। चीन 2019 से ही भारत को मनाने में जुटा है। बार-बार वही लालच—जीरो tariff, विशाल मार्केट और अरबों डॉलर का संभावित व्यापार। लेकिन भारत अब तक इस संगठन से दूर रहा है। क्यों? क्योंकि इस ऑफर की चमक के पीछे अंधेरा छुपा है।
आइए, पहले समझते हैं कि RCEP है क्या। यह दुनिया का सबसे बड़ा व्यापारिक ब्लॉक है। इसमें 10 आसियान देश और उनके पाँच FTA पार्टनर—चीन, जापान, दक्षिण कोरिया, ऑस्ट्रेलिया और न्यूज़ीलैंड शामिल हैं। यानी कुल 15 देश। यह ब्लॉक पूरी दुनिया की GDP का लगभग 30% और 3 अरब लोगों को कवर करता है।
2020 में इस समझौते पर हस्ताक्षर हुए और 2022 से यह प्रभावी हो गया। इसका मुख्य मकसद है—सदस्य देशों के बीच tariff और गैर-tariff बाधाओं को खत्म करना, Investment को आसान बनाना और व्यापार को तेज़ करना। सुनने में तो सबकुछ परफ़ेक्ट लगता है। लेकिन भारत ने 2020 में ही साफ़ कर दिया था कि वह इसमें शामिल नहीं होगा। वजह? हमारी अपनी चिंताएँ और अपने उद्योगों की सुरक्षा।
चीन के सरकारी अख़बार ग्लोबल टाइम्स ने हाल ही में लिखा—“अमेरिका की ओर से भारत पर 50% tariff लगाए जाने के बाद भारत को वैकल्पिक बाज़ार ढूँढना ही होगा। और इसमें RCEP उसके लिए सबसे सुरक्षित विकल्प हो सकता है।” अख़बार का तर्क है कि एशिया का विशाल बाज़ार भारत के लिए अमेरिकी व्यापार की अस्थिरता से बचने का सुरक्षा कवच है। यहाँ तक कि उन्होंने कहा कि अगले 10 से 15 सालों में 90% सामानों पर tariff शून्य हो जाएगा, और भारत के लिए यह सुनहरा अवसर होगा।
लेकिन भारत की असली दिक़्क़त यहीं से शुरू होती है। क्योंकि सवाल यह नहीं है कि हमारे सामान एशिया में कितनी आसानी से बिकेंगे, बल्कि यह है कि चीन और बाकी देशों के सस्ते उत्पाद भारत में कितनी आसानी से आ जाएंगे। सोचिए, चीन का एक सस्ता खिलौना, एक सस्ता इलेक्ट्रॉनिक गैजेट या एक सस्ता कपड़ा अगर बिना tariff भारत में आने लगे तो क्या होगा? हमारे यहाँ की छोटी फैक्ट्रियाँ, MSME और घरेलू उद्योग एक झटके में तबाह हो जाएंगे।
भारत की सबसे बड़ी चिंता यही है—घरेलू उद्योगों की सुरक्षा। चीन पहले से ही बड़े पैमाने पर उत्पादन में माहिर है। वहाँ का एक कारखाना उतना उत्पादन करता है जितना भारत का पूरा उद्योग नहीं कर पाता। ऐसे में अगर उनके सामान जीरो tariff के साथ भारत में बाढ़ की तरह आने लगे, तो हमारे उद्योग इस प्राइस वॉर में टिक ही नहीं पाएंगे। यही वजह है कि भारत RCEP में शामिल होने से पहले एक ‘सेफ्टी मैकेनिज़्म’ चाहता था—एक ऐसा नियम जो हमें यह अधिकार दे कि अगर किसी प्रोडक्ट का Import बहुत ज़्यादा हो जाए तो हम उस पर tariff बढ़ा सकें। लेकिन चीन और बाकी देशों ने इस पर सहमति नहीं दी।
अब जरा आँकड़े देखिए। भारत का चीन के साथ व्यापार घाटा पहले से ही रिकॉर्ड स्तर पर है। वित्त वर्ष 2024 में यह घाटा 99 अरब डॉलर तक पहुँच चुका है। यानी हम चीन से जितना बेचते हैं, उससे कहीं ज़्यादा उनसे खरीदते हैं। अगर हम RCEP में शामिल हो गए तो यह घाटा और भी बढ़ेगा। और घाटे का मतलब है—हमारे उद्योगों पर दबाव, हमारी नौकरियों पर खतरा और हमारी आत्मनिर्भरता पर चोट।
यहाँ याद रखिए, RCEP में शामिल होने का मतलब सिर्फ़ आर्थिक समझौता नहीं है, यह भू-राजनीतिक संदेश भी है। चीन चाहता है कि भारत इस संगठन में शामिल हो ताकि वह एशिया में अपना आर्थिक और राजनीतिक दबदबा और मज़बूत कर सके। RCEP को वह अपनी बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (BRI) से जोड़कर एशिया में प्रभुत्व कायम करना चाहता है। अगर भारत इसमें शामिल होता है तो चीन को यह संदेश मिलेगा कि भारत उसकी अगुवाई वाले ब्लॉक में शामिल होने के लिए तैयार है। लेकिन भारत ने अब तक यही दिखाया है कि वह अपनी स्वतंत्र विदेश नीति और आत्मनिर्भर भारत की रणनीति से पीछे नहीं हटेगा।
भारत के नीति-निर्माताओं का मानना है कि हमें अपनी प्राथमिकताओं के हिसाब से ही व्यापारिक समझौते करने चाहिए। अगर आज हमने बिना सोचे-समझे RCEP में शामिल होकर अपने बाज़ार खोल दिए, तो आने वाले दशकों में हमारी अर्थव्यवस्था पर नियंत्रण विदेशी कंपनियों का होगा। हमारी फैक्ट्रियाँ बंद होंगी, हमारी नौकरियाँ छिनेंगी और हमारा बाज़ार सस्ते चीनी सामान का अड्डा बन जाएगा।
सोचिए, यह सिर्फ़ आर्थिक खतरा नहीं है, बल्कि सामाजिक असर भी होगा। अगर लाखों छोटे उद्योग बंद हो गए, तो करोड़ों नौकरियाँ खत्म हो जाएंगी। बेरोज़गारी बढ़ेगी, गाँवों से शहरों की ओर पलायन और तेज़ होगा और समाज में असंतुलन पैदा होगा। क्या हम सिर्फ़ सस्ते सामान की लालच में इतना बड़ा जोखिम उठा सकते हैं?
इसलिए भारत ने बार-बार यह साफ़ किया है कि RCEP अपने मूल उद्देश्यों को संतुलित रूप में पूरा नहीं करता। यहाँ बड़े देशों का फायदा है, लेकिन भारत जैसे देशों के लिए खतरे ही खतरे हैं। चीन को उत्पादन में जो बढ़त मिली है, उसका मुकाबला करना हमारे लिए आसान नहीं है। यही वजह है कि भारत ने कहा—“हम अपने राष्ट्रीय हितों और आत्मनिर्भर भारत की नीति के खिलाफ़ जाकर कोई भी समझौता नहीं करेंगे।”
भारत जानता है कि उसकी ताक़त उसका बाज़ार है। यही 1.4 अरब लोगों का विशाल बाज़ार चीन और अमेरिका दोनों की आँखों का तारा है। यही वजह है कि जब अमेरिका दबाव बनाता है, चीन लालच देता है। लेकिन भारत को यह समझना होगा कि उसका भविष्य किसी एक ब्लॉक में शामिल होने या किसी के दबाव में झुकने में नहीं है। उसका भविष्य उसकी अपनी शर्तों पर बने समझौतों में है, जहाँ हमारे उद्योग, हमारी नौकरियाँ और हमारी आत्मनिर्भरता सुरक्षित रहें।
Conclusion
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