सोचिए… दुनिया की सबसे ताकतवर कुर्सी पर बैठा एक आदमी, जिसकी एक-एक बात पूरी वैश्विक अर्थव्यवस्था को हिला सकती है। जिसकी कलम का एक साइन अरबों डॉलर के व्यापार को बदल सकता है। और अब, वही आदमी अचानक ऐसे फैसले लेने लगे, जो न केवल उसके पुराने वादों के खिलाफ हैं, बल्कि ऐसे लगते हैं जैसे किसी अदृश्य शतरंज के खेल में वह अपने मोहरे बार-बार बदल रहा हो।
यह कहानी है अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की—एक ऐसी कहानी, जहां भारत से दोस्ती के वादे अब भारत पर आर्थिक दबाव बनाने के हथियार में बदल चुके हैं, और इस पूरी पटकथा में रूस, पाकिस्तान, चीन, और यहां तक कि Vladimir Lenin के पुराने विचार भी कहीं न कहीं गूंजने लगे हैं। आज हम इसी विषय पर गहराई में चर्चा करेंगे।
आपको बता दें कि पहले कार्यकाल में ट्रंप को भारत में एक “भारत समर्थक” नेता के तौर पर देखा जाता था। उनके भाषण, उनके भारत दौरे, और प्रधानमंत्री मोदी के साथ उनके मंच साझा करने की तस्वीरें, भारतीयों के दिलों में एक भरोसा पैदा करती थीं। लेकिन जैसे ही उन्होंने अपना दूसरा कार्यकाल संभाला, तस्वीर बदलने लगी। खासकर “ऑपरेशन सिंदूर” के दौरान, जब भारत उम्मीद कर रहा था कि अमेरिका पाकिस्तान पर दबाव डालेगा, तब ट्रंप प्रशासन ने उल्टा विश्व बैंक से पाकिस्तान को अरबों डॉलर का कर्ज दिलाने में मदद की। यह वही पाकिस्तान था, जिसके साथ भारत का तनाव चरम पर था।
इसके बाद ऑपरेशन सिंदूर को विराम दिए जाने के बाद ट्रंप ने एक और विवाद खड़ा कर दिया। उन्होंने बार-बार यह कहा कि परमाणु शक्ति सम्पन्न देशों के बीच संघर्ष-विराम उन्होंने कराया है। भारत की जनता के लिए यह बयान असहज करने वाला था—क्योंकि भारत इसे अपने सैन्य और कूटनीतिक प्रयासों की सफलता मानता था, न कि किसी बाहरी मध्यस्थता का परिणाम। और जैसे कि यह सब काफी नहीं था, ट्रंप ने पाकिस्तानी सेना के प्रमुख आसिम मुनीर को व्हाइट हाउस में बुलाकर स्वागत किया।
भारत में यह कदम एक तरह से कूटनीतिक अपमान के रूप में देखा गया। जब एक देश का प्रमुख, उस देश के सैन्य नेता को सम्मान देता है, जिसके साथ आपका तनाव चल रहा हो, तो यह केवल एक प्रोटोकॉल मीटिंग नहीं रहती—यह एक संदेश बन जाती है। और इस संदेश का मतलब था कि ट्रंप अब भारत की बजाय पाकिस्तान के साथ भी सार्वजनिक रूप से खड़े हो सकते हैं।
इसके बाद आया आर्थिक हथियार। ट्रंप ने घोषणा की कि अमेरिका को Export किए जाने वाले भारतीय उत्पादों पर 25% टैरिफ लगाया जाएगा। और सात अगस्त को लागू होने से पहले ही, उन्होंने यह भी कह दिया कि 27 अगस्त से यह दर 50% हो जाएगी। यानी भारत के लिए अमेरिकी बाजार और महंगा हो जाएगा, भारतीय exporters के लिए मुश्किलें और बढ़ जाएंगी, और भारतीय उद्योग को भारी झटका लगेगा।
हालांकि, ट्रंप का यह तरीका नया नहीं था। उनके पहले राष्ट्रपति अभियान में ही उनकी निजी जिंदगी के विवाद, महिलाओं के साथ उनके व्यवहार के आरोप, और मीडिया में छपी तस्वीरें और वीडियो ने उन्हें “मनचला” छवि दी थी। पहली बार राष्ट्रपति बनने के बाद, और फिर जो बाइडन से हारने के बाद, उनके पुराने विवाद फिर से सामने आए। एक महिला को चुप रखने के लिए पैसे देने के मामले में अमेरिकी अदालत ने उन्हें दोषी ठहराया। चुनाव के दौरान यह केस भी चल रहा था, और उसी बीच वह फिर से राष्ट्रपति बन गए।
लेकिन दूसरी बार सत्ता में आने के बाद, उनका मनचलापन एक नए रूप में सामने आया—”आर्थिक मनचला-पन”। अब उनका खेल था—देशों पर अचानक टैरिफ लगाना, दरें दोगुनी-तिगुनी करना, और फिर बातचीत में अपनी शर्तें मनवाना। चीन के साथ उनकी टैरिफ की जंग तो सब्जी मंडी की बोलियों जैसी लगती थी—पहले दाम बढ़ाओ, फिर मोलभाव करो, और आखिर में अपनी मनचाही डील पक्की करो।
अमेरिकी सांसद ग्रेगरी मीक ने इसे “टैरिफ टैंट्रम” कहा—एक ऐसा गुस्सा, जो असल में दबाव बनाने का तरीका है। लेकिन इस बार ट्रंप का टैंट्रम एक और सच्चाई उजागर कर गया—कि अमेरिका का “फ्री ट्रेड” का नारा सिर्फ तब तक है, जब तक यह उसके हित में हो। जैसे ही उसके राजनीतिक या सामरिक हित टकराते हैं, वह नियम बदल देता है।
ट्रंप ने खुले तौर पर कहा कि भारत द्वारा रूस से कच्चा तेल खरीदने के कारण वह टैरिफ बढ़ा रहे हैं। यह वही ट्रंप हैं, जो कभी दावा करते थे कि वह रूस-यूक्रेन युद्ध चुटकी में खत्म कर देंगे। अब, जब रूस ने सैन्य कार्रवाई नहीं रोकी, तो वह भारत पर दोष डाल रहे हैं—जैसे भारत रूस का समर्थन करके युद्ध बढ़ा रहा हो।
असल में रूस और यूक्रेन युद्ध की पृष्ठभूमि में नाटो देशों का विस्तारवादी रवैया और अमेरिका-यूरोप का दबदबा है। पुतिन लगातार कहते रहे हैं कि नाटो का पूर्व की ओर फैलाव ही उनकी कार्रवाई का कारण है। लेकिन जब रूस अमेरिका-यूरोप के दबाव में नहीं आया, तो ट्रंप ने रूस पर सीधे हमला करने की बजाय भारत की बांह मरोड़ने का रास्ता चुना—तेल के बहाने।
इससे एक बड़ा सवाल उठता है—क्या फ्री ट्रेड सिर्फ एक दिखावा है? दो देशों की लड़ाई में तीसरे देश को एक पक्ष चुनने के लिए मजबूर करना, क्या यह स्वतंत्र व्यापार है? दुनिया की ऊर्जा का बड़ा हिस्सा तेल पर निर्भर है, और अमेरिका खुद कई देशों के तेल Export पर प्रतिबंध लगा चुका है—जैसे वेनेजुएला और ईरान। चीन ने भी हाल ही में भारत को “रेयर अर्थ मटीरियल्स” के Export पर रोक लगाई, जो एक राजनीतिक कदम था, न कि आर्थिक।
यानी ताकतवर देशों के राजनीतिक फैसलों के हिसाब से बाकी दुनिया को व्यापार करना पड़ता है। फिर इसे फ्री ट्रेड कैसे कहा जा सकता है? इस विवाद में भी साफ दिखता है कि अमेरिका अपने कृषि और डेयरी उत्पादों के लिए भारत का बाजार खोलना चाहता है। लेकिन भारत का कृषि और डेयरी सेक्टर करोड़ों लोगों को रोजगार देता है।
अगर यह सेक्टर अमेरिकी कंपनियों के लिए खुल गया, तो भारत के किसानों और डेयरी कामगारों की आजीविका खतरे में पड़ जाएगी। इस स्थिति में भारत के सामने एक दुविधा है—या तो वह सस्ते तेल के लिए रूस से व्यापार जारी रखे और अमेरिकी टैरिफ झेले, या अमेरिकी दबाव में आकर अपना बाजार खोल दे, जिससे घरेलू उत्पादन को चोट पहुंचे।
और यहीं व्लादिमीर लेनिन के शब्द Relevant हो जाते हैं। उन्होंने कहा था कि पूंजीवाद, साम्राज्यवाद की सर्वोच्च अवस्था है—जहां कुछ विकसित देश, दुनिया के बहुसंख्यक लोगों पर आर्थिक और राजनीतिक नियंत्रण जमाकर रखते हैं। वे दुनिया को बांट लेते हैं, और जब आपस में टकराते हैं, तो पूरी दुनिया को अपनी लड़ाई में खींच लेते हैं।
ट्रंप का यह रवैया इस सिद्धांत को और मजबूत करता है। अमेरिका दशकों से फ्री ट्रेड का प्रवक्ता रहा है, लेकिन ट्रंप के फैसले यह दिखा रहे हैं कि फ्री ट्रेड सिर्फ एक कूटनीतिक रणनीति है—ताकि ताकतवर देश कमजोर देशों के संसाधनों का फायदा उठा सकें। पहले यह सब चुपचाप होता था, अब ट्रंप इसे खुलेआम कर रहे हैं—जैसे वह यह दिखाना चाहते हों कि ताकत का खेल छिपाकर क्यों खेलें, जब इसे खुलकर खेला जा सकता है। शायद यही वजह है कि आज, लेनिन का विचार फिर से चर्चा में है—और दुनिया सोच रही है कि क्या सच में पूंजीवाद का असली चेहरा यही है, जो हम ट्रंप के फैसलों में देख रहे हैं।
Conclusion
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