रात के अंधेरे में जब पूरी दुनिया गहरी नींद में डूबी थी, तभी एक ऐसी खबर ने दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था की नींव को हिला दिया। अमेरिका, जो दशकों से Global अर्थव्यवस्था का इंजन रहा है, अब खुद एक गहरी आर्थिक सुस्ती की ओर बढ़ रहा है। और जब अमेरिका की चाल धीमी पड़ती है, तो इसका असर केवल वॉल स्ट्रीट पर नहीं, बल्कि दुनिया के हर कोने में महसूस किया जाता है।
इस बार भी कुछ ऐसा ही हो रहा है। अमेरिका में उपभोक्ता खर्च में आई तेज गिरावट ने Investors, कंपनियों और सरकारों की नींद उड़ा दी है। और ये कहानी यहीं खत्म नहीं होती—इस आर्थिक तूफान की लहरें भारत जैसे देशों तक पहुंच चुकी हैं। सवाल सिर्फ इतना है: क्या भारत इस Global Recession की आंच से खुद को बचा पाएगा? आज हम इसी विषय पर गहराई में चर्चा करेंगे।
अमेरिका की अर्थव्यवस्था हमेशा से उपभोक्ता खर्च पर निर्भर रही है। लेकिन जब लोग अपने खर्चों में कटौती करने लगें, तो इसका मतलब होता है कि अस्थिरता गहराई तक पहुंच चुकी है। मई 2025 में उपभोक्ता खर्च में जनवरी के बाद सबसे बड़ी गिरावट दर्ज की गई। अब लोग नए टीवी, कार, महंगे रेस्टोरेंट या छुट्टियों पर जाने के बजाय जरूरी सामान तक सीमित हो रहे हैं। खासकर Service sector में मांग इतनी कमजोर पड़ी है कि Expert इसे महामारी के बाद की सबसे कमजोर तिमाही मान रहे हैं। इसका एक बड़ा कारण है ट्रंप प्रशासन की अनिश्चित नीतियां—लोगों को अंदाजा नहीं कि कल क्या होगा, टैक्स बढ़ेगा या घटेगा, नौकरी रहेगी या जाएगी।
अमेरिकी हाउसिंग मार्केट भी सुस्ती की चपेट में है। मई में नए घरों की बिक्री में 13.7% की गिरावट दर्ज की गई—तीन सालों में सबसे बड़ी। बिल्डर्स ने आकर्षक ऑफर दिए, डिस्काउंट्स दिए, फिर भी ग्राहक नहीं आए। वजह? मॉर्गेज रेट्स 7% के करीब बने हुए हैं, निर्माण सामग्री की कीमतें लगातार बढ़ रही हैं और श्रमिकों की कमी बनी हुई है। इससे आम नागरिक का घर खरीदने का सपना और दूर हो गया है।
अब सबकी निगाहें हैं अमेरिका के केंद्रीय बैंक—फेडरल रिजर्व—पर। फेड ने साफ कर दिया है कि वो जल्दबाज़ी में ब्याज दरें घटाने के मूड में नहीं है। फेडरल गवर्नर क्रिस्टोफर वॉलर और मिशेल बोमैन ने कहा कि अगर महंगाई स्थायी रूप से कंट्रोल में आई, तभी जुलाई की बैठक में कटौती पर विचार होगा। अभी तो वे और डेटा का इंतज़ार कर रहे हैं, ताकि किसी जल्दबाज़ी से बचा जा सके। यह सतर्कता बताती है कि खुद अमेरिका को भी अपने आर्थिक भविष्य पर यकीन नहीं है।
अब चलिए यूरोप की ओर। यूरोप में आर्थिक माहौल पहले से ही नाज़ुक है। वहां की कंपनियां अमेरिका की नीतियों और यूक्रेन, मध्य पूर्व के युद्धों की वजह से Investment करने से डर रही हैं। जून में प्राइवेट सेक्टर की गतिविधियों में केवल मामूली बढ़ोतरी हुई। Investment रुके हुए हैं, विस्तार की योजनाएं होल्ड पर हैं। हां, जर्मनी से कुछ सकारात्मक खबर आई है—वहां की कंपनियां अब थोड़ा आशावादी हो रही हैं क्योंकि सरकार सार्वजनिक खर्च बढ़ाने की योजना बना रही है। लेकिन जब तक अमेरिकी टैरिफ और भू-राजनीतिक तनाव बने रहेंगे, तब तक यूरोप की रफ्तार भी थमी रहेगी।
ब्रिटेन की हालत भी कुछ अलग नहीं। वहां की जनता अब रोज़मर्रा की चीज़ों के दाम देखकर हैरान है। मक्खन, बीफ और चॉकलेट जैसी चीज़ों के दाम पिछले साल के मुकाबले 20% तक बढ़ गए हैं। यह फरवरी 2024 के बाद खाद्य महंगाई की सबसे बड़ी छलांग है। इससे बैंक ऑफ इंग्लैंड भी ब्याज दरों में कटौती को लेकर हिचकिचा रहा है। जब तक महंगाई पर काबू नहीं पाया जाता, तब तक वहां की अर्थव्यवस्था सुस्ती में ही रहेगी।
अब रुख करते हैं एशिया की ओर—जहां चीन की कहानी इस बार चिंता का कारण बन रही है। मई में चीन की औद्योगिक कंपनियों का मुनाफा 9.1% गिर गया। ये अक्टूबर के बाद की सबसे बड़ी गिरावट है। अमेरिका के टैरिफ और देश में डिफ्लेशन के डर ने मिलकर कंपनियों को चौकन्ना कर दिया है। वे नए Investment और भर्तियों से पीछे हट रही हैं। और जब कंपनियां सतर्क हो जाती हैं, तो पूरी अर्थव्यवस्था पर असर पड़ता है।
जापान की राजधानी टोक्यो भी कुछ अलग नहीं कहती। वहां अपार्टमेंट के किराए में 1.3% की बढ़ोतरी हुई है—जो 1994 के बाद सबसे तेज़ है। इसका मतलब है कि महंगाई अब वहां के रोज़मर्रा के जीवन पर भी असर डाल रही है। इससे बैंक ऑफ जापान पर दबाव बढ़ गया है कि वो अपनी मौद्रिक नीतियों में बदलाव करे। लेकिन कैसे करे, जब बाकी दुनिया आर्थिक संकट से गुजर रही हो?
दूसरी ओर, मेक्सिको जैसे देश मंदी की कगार से खुद को बचाने में सफल रहे हैं। उनके केंद्रीय बैंक ने आधा फीसदी की ब्याज दर कटौती की है। लेकिन उन्होंने यह भी स्पष्ट कर दिया है कि आगे सिर्फ छोटी कटौतियां ही होंगी। मेक्सिको की स्थिति अपेक्षाकृत स्थिर है, लेकिन Global दबाव वहां भी महसूस हो रहा है। अब सबसे बड़ा सवाल—इस पूरी Global उथल-पुथल में भारत कहां खड़ा है?
भारत की स्थिति फिलहाल अपेक्षाकृत बेहतर है। घरेलू मांग अब भी मजबूत है। Retail बाजारों में चहल-पहल है, इंफ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट्स पर काम चल रहा है और सरकार की नीतियां अर्थव्यवस्था को सहारा दे रही हैं। लेकिन अमेरिका और यूरोप की धीमी मांग का असर भारत के Export पर दिखने लगा है। खासतौर पर टेक्सटाइल, जेम्स एंड ज्वेलरी और ऑटो पार्ट्स जैसे सेक्टर्स को झटका लग सकता है।
साथ ही, चीन की आर्थिक सुस्ती ने Global supply chain को हिला दिया है। भारत को कच्चे माल की आपूर्ति में देरी हो रही है, जिससे उत्पादन पर असर पड़ सकता है। हालांकि, भारत की सरकार अब “चाइना प्लस वन” नीति के तहत वैकल्पिक स्रोतों की तलाश में है—जैसे कि वियतनाम, इंडोनेशिया और दक्षिण कोरिया।
इसके अलावा, रुपये पर भी दबाव बन रहा है। डॉलर के मुकाबले रुपये में कमजोरी देखी जा रही है, जिससे Import महंगा हो सकता है। इससे भारत की महंगाई दर पर असर पड़ सकता है, खासकर तेल और खाने-पीने की चीज़ों की कीमतों पर।
इसके अलावा शेयर बाजार में भी उतार-चढ़ाव बढ़ गया है। Foreign investor सतर्क हो गए हैं। वे अमेरिका में ब्याज दरों के बढ़ने की संभावना को देखते हुए भारत से पैसा निकाल सकते हैं। इससे सेंसेक्स और निफ्टी पर दबाव बढ़ सकता है।
लेकिन हर बादल के पीछे एक उम्मीद की किरण होती है। भारत के पास एक मौका है—अगर सरकार उत्पादन से जुड़े प्रोत्साहनों को मजबूत करे, MSME सेक्टर को समर्थन दे और Import पर निर्भरता घटाए, तो भारत इस Global मंदी से न सिर्फ बच सकता है, बल्कि उभर भी सकता है।
सवाल यह नहीं कि दुनिया मंदी की ओर बढ़ रही है। सवाल यह है कि क्या भारत अपनी घरेलू मजबूती से इस Global तूफान का सामना कर सकता है? अगर हां, तो आने वाले सालों में भारत न सिर्फ एक बड़ा उपभोक्ता बाजार रहेगा, बल्कि Investment का Global केंद्र भी बन सकता है।
Conclusion
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