एक ऐसा राष्ट्रपति, जिसने अमेरिका को ‘फर्स्ट’ करने की जिद में पूरी दुनिया को आखिरी कतार में ला खड़ा किया है। एक ऐसा नेता, जिसकी एक-एक नीति ने Global बाजारों को झकझोर कर रख दिया है, और अब हालात इस कदर बिगड़ गए हैं कि महामंदी की आहट महसूस की जा रही है। लेकिन सबसे बड़ा सवाल यह है कि जब अमेरिका, चीन, यूरोप और मिडिल ईस्ट जैसे क्षेत्र इस आर्थिक सुनामी की चपेट में आ चुके हैं, तो क्या भारत इस तूफान से खुद को बचा पाएगा? या फिर यह भी सिर्फ वक्त की बात है जब भारत भी इस global recession की चपेट में आ जाएगा? आज हम इसी विषय पर गहराई में चर्चा करेंगे।
डोनाल्ड ट्रंप के दूसरे कार्यकाल ने अमेरिका की पारंपरिक नीतियों को पूरी तरह से उलट कर रख दिया है। कभी ‘ट्रेड वॉर’, कभी ‘Tariff ‘, तो कभी ‘जंग-ए-जुनून’—दुनिया लगातार अस्थिरता के एक भंवर में फंसती जा रही है। global level पर चल रही इन नीतियों का प्रभाव इतना गहरा है कि इससे न केवल छोटे देशों की अर्थव्यवस्था लड़खड़ा गई है, बल्कि विकसित राष्ट्रों की भी कमर टूटती नजर आ रही है। और अब जब ट्रंप ईरान-इजराइल के संघर्ष में भी कूद पड़े हैं, तो स्थिति और भी भयावह हो चुकी है।
ट्रंप की ‘अमेरिका फर्स्ट’ नीति ने ग्लोबल ट्रेड को गहरे संकट में डाल दिया है। खासतौर पर Tariff को हथियार की तरह इस्तेमाल करने की उनकी रणनीति ने, कई देशों की अर्थव्यवस्था को सीधे तौर पर प्रभावित किया है। उन्होंने चीन, कनाडा, मैक्सिको और यूरोपीय संघ जैसे बड़े व्यापारिक साझेदारों पर भारी-भरकम टैरिफ लगा दिए हैं। इसके जवाब में इन देशों ने भी अमेरिका पर जवाबी Tariff थोप दिए हैं। नतीजा ये हुआ है कि Global व्यापार का प्रवाह बुरी तरह बाधित हो गया है, कंपनियों के लिए Import और Export करना बेहद महंगा हो गया है, और सप्लाई चेन एकदम अस्त-व्यस्त हो चुकी है।
इस व्यापारिक टकराव का अगला प्रभाव है—आर्थिक अनिश्चितता। जब दुनिया के दो सबसे बड़े आर्थिक ध्रुव आपस में भिड़ते हैं, तो बाकी देशों में अनिश्चितता फैलना लाज़मी है। Investor डरे हुए हैं, कंपनियां दुविधा में हैं और व्यापार का माहौल नकारात्मक हो चला है। नए Investment रुक गए हैं, और जो चल रहे हैं, उनकी गति धीमी हो चुकी है। कई बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने अपनी उत्पादन रणनीतियां फिर से तय करनी शुरू कर दी हैं। कुछ ने अपने मैन्युफैक्चरिंग यूनिट्स को चीन से बाहर निकालने का फैसला किया है, लेकिन ये सब अस्थायी राहत है। स्थायी समाधान फिलहाल नजर नहीं आ रहा।
Tariff का असर सिर्फ कंपनियों और सरकारों तक सीमित नहीं है। इसका सीधा असर पड़ता है आम जनता पर। जब कंपनियों की लागत बढ़ती है, तो वे इसे उत्पादों की कीमतों में जोड़ देती हैं। यानी आम आदमी को अब वही सामान पहले से ज्यादा दामों पर खरीदना पड़ता है। इससे महंगाई बढ़ती है, क्रय शक्ति घटती है और आर्थिक असंतुलन और गहरा हो जाता है। खाने-पीने की चीज़ों से लेकर इलेक्ट्रॉनिक्स, ऑटोमोबाइल्स, टेक्नोलॉजी—हर सेक्टर पर इसका असर पड़ता है।
इन तमाम आर्थिक उलझनों के बीच जो बात सबसे डरावनी है, वो है Global Economic Growth Rate में गिरावट। IMF, World Bank और OECD जैसे संस्थानों ने अपने अनुमानों में Global GDP ग्रोथ रेट को लगातार नीचे की ओर संशोधित किया है। ऐसा पहली बार हो रहा है जब विकासशील देशों के साथ-साथ विकसित देशों की अर्थव्यवस्था भी एक साथ लड़खड़ा रही है। और इसका मुख्य कारण है व्यापार युद्धों और Protectionism की ओर बढ़ता झुकाव।
डोनाल्ड ट्रंप की नीतियां ‘डी-ग्लोबलाइजेशन’ को बढ़ावा दे रही हैं। दुनिया जहां पहले आपसी सहयोग और Global व्यापार की ओर बढ़ रही थी, वहां अब देश आत्मनिर्भरता और Protectionism की ओर बढ़ रहे हैं। इससे Global सप्लाई चेन टूट रही है, इनोवेशन की गति धीमी हो रही है और उपभोक्ताओं के लिए विकल्प सीमित होते जा रहे हैं।
ट्रंप की नीतियों की तुलना इतिहास के सबसे काले आर्थिक दौर से भी की जा रही है। 1930 के Smoot-Hawley Tariff Act को अक्सर 1929 की महामंदी के लिए जिम्मेदार ठहराया जाता है। उस दौर में Tariff ने Global व्यापार को बुरी तरह से बाधित कर दिया था, जिससे आर्थिक संकट और गहरा हो गया था। आज की परिस्थिति बिलकुल वैसी तो नहीं है, लेकिन experts का मानना है कि अगर व्यापार युद्ध यूं ही चलते रहे, तो हम एक नई Global मंदी की दहलीज़ पर खड़े हो सकते हैं।
अब सवाल उठता है—इस सारी उठापटक के बीच भारत कहां खड़ा है? भारत, जो दुनिया की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन चुका है, क्या वह इस संकट से खुद को बचा पाएगा? हकीकत ये है कि भारत भी इस Global उथल-पुथल से अछूता नहीं रहा है। अमेरिका ने भारत पर भी कुछ Tariff लगाए हैं, जिससे भारतीय exporters की परेशानी बढ़ गई है। खासकर टेक्सटाइल, स्टील, और फार्मा सेक्टर को इसका सीधा नुकसान हुआ है।
भारत के लिए और बड़ी चिंता की बात तब सामने आई जब अमेरिका ने ईरान-इजराइल युद्ध में हस्तक्षेप कर दिया। इसका सीधा असर हुआ तेल के दामों पर। ईरानी संसद ने होर्मुज जलडमरूमध्य को बंद करने के प्रस्ताव को मंजूरी दे दी, जिससे Global तेल सप्लाई खतरे में पड़ गई। स्ट्रेट ऑफ होर्मुज से दुनिया के 20% कच्चे तेल की आपूर्ति होती है। और भारत, जो अपनी 80% से ज्यादा तेल की जरूरत Import से पूरी करता है, अब तेल की कीमतों के झटके से कांपने लगा है।
पेट्रोल-डीजल की कीमतें बढ़ने का सीधा असर भारत की आम जनता पर पड़ता है। ट्रांसपोर्ट महंगा होता है, जिससे हर वस्तु महंगी हो जाती है। महंगाई का यह चक्र अर्थव्यवस्था को धीरे-धीरे कमजोर करता है। Interest rates, fiscal deficit, inflation जैसे आर्थिक संकेतक नकारात्मक दिशा में जाने लगते हैं। इस समय जब भारत को तेज़ विकास दर की ज़रूरत है, तब ऐसे Global झटके उसकी चाल को धीमा कर सकते हैं।
भारत की विदेशी नीति हमेशा से बैलेंस्ड रही है। लेकिन जब अमेरिका खुद अपनी नीतियों से Global असंतुलन फैला रहा हो, तो भारत को भी दोहरी चुनौती का सामना करना पड़ता है—एक तरफ अपने हित सुरक्षित रखना, और दूसरी ओर अमेरिकी दबाव का सामना करना। ईरान पर अमेरिकी प्रतिबंधों के कारण भारत को वहां से तेल Import घटाना पड़ा, जिससे उसकी ऊर्जा सुरक्षा कमजोर हुई। और अब जब युद्ध की स्थिति उत्पन्न हो चुकी है, तब भारत की कूटनीति और आर्थिक नीति दोनों की परीक्षा हो रही है।
इस बीच भारत को अपने अंदरूनी मोर्चे पर भी सतर्क रहना होगा। जब पूरी दुनिया अस्थिरता से जूझ रही हो, तब किसी भी तरह की नीतिगत चूक भारत को Global मंदी के दलदल में और गहराई तक धकेल सकती है। सरकार को अपनी फिस्कल पॉलिसी, टैक्स स्ट्रक्चर, और पब्लिक स्पेंडिंग को लेकर बहुत सोच-समझकर कदम उठाने होंगे। साथ ही MSME और घरेलू उद्योगों को राहत देकर उन्हें Global संकट के प्रभाव से बचाना होगा।
ट्रंप की नीतियां आज भले अमेरिका को ताकतवर दिखा रही हों, लेकिन इसका असली असर पूरी दुनिया पर पड़ रहा है। और यह असर अब केवल आंकड़ों तक सीमित नहीं है—यह लोगों की नौकरियों, जीवन स्तर और भविष्य की संभावनाओं पर सीधा असर डाल रहा है। भारत जैसे विकासशील देश के लिए यह समय केवल आर्थिक नहीं, बल्कि रणनीतिक समझदारी का भी है। अगर समय रहते सही फैसले लिए जाएं, तो भारत इस Global संकट को अवसर में भी बदल सकता है। लेकिन अगर चूक हो गई, तो यह सुनामी भारत की तरक्की की नींव तक हिला सकती है।
Conclusion
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