भारत के लिए 9 जुलाई की वो तारीख एक साधारण दिन नहीं थी… ये वो दिन था जब दुनिया की सबसे ताकतवर अर्थव्यवस्था के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने अपनी ट्रेड वॉर की नई समयसीमा तय की थी। उन्होंने तय कर लिया था कि अगर भारत उनके साथ डील नहीं करता, तो Tariff का हथौड़ा जरूर गिरेगा। लेकिन जब वो दिन बीता, तब न भारत ने कोई झुकाव दिखाया, न ही अमेरिका की ओर से धमकी आई।
एक चुप्पी थी, लेकिन इस चुप्पी के पीछे छुपी थी एक बेहद शातिर चाल – भारत की। सवाल उठता है – क्या ये भारत की ताकत थी? या कुछ और ऐसा, जिसने ट्रंप जैसे आक्रामक राष्ट्रपति को भी सोचने पर मजबूर कर दिया? यही वो रहस्य है, जिसने दुनिया की नज़रों को भारत की ओर मोड़ दिया है। और अब यह कहानी केवल एक ट्रेड डील की नहीं, बल्कि रणनीति, धैर्य और भारतीय कूटनीति की होशियारी की कहानी बन गई है। आज हम इसी विषय पर गहराई में चर्चा करेंगे।
दरअसल, जब साल 2025 की शुरुआत में ट्रंप ने अपने अंदाज़ में ऐलान किया कि वो 90 दिनों में 90 डील करेंगे, तो लगा कि पूरी दुनिया फिर उसी दबाव और धमकी की राजनीति में उलझेगी। यूरोप, जापान, दक्षिण कोरिया जैसे देशों के लिए ये चेतावनी की घंटी थी। और भारत? भारत भी उनके निशाने पर था, क्योंकि अमेरिका को सबसे ज़्यादा दवाएं, टेक्सटाइल्स और डिजिटल सर्विस भारत ही तो भेजता है।
लेकिन इस बार भारत ने खेल ही कुछ और खेला। इस बार भारत ने किसी घबराहट या जल्दबाज़ी के बगैर, अपने पुराने अनुभवों से सीखा हुआ हुनर इस्तेमाल किया। भारत ने न तो सीधा विरोध किया और न ही पूरी तरह से झुक गया। इस रणनीति में छुपा था एक गहरा राज—भारत अमेरिका को ज़्यादा देर तक बातचीत में उलझाकर, अपने लिए सही समय और हालात बनाने की कोशिश कर रहा था।
भारत ने सीधे-सीधे टकराव के बजाय बातचीत का रास्ता चुना, लेकिन वो बातचीत भारत की शर्तों पर हो रही थी। ना किसी तरह की जल्दबाज़ी, ना कोई डर, ना ही कोई बेवजह बयानबाज़ी। भारत के वाणिज्य मंत्री पीयूष गोयल ने वॉशिंगटन जाकर साफ कर दिया – हम बातचीत को तैयार हैं, लेकिन अपनी शर्तों पर। भारत ने ट्रंप की ‘डेडलाइन डिप्लोमेसी’ को गंभीरता से नहीं लिया, लेकिन नज़रअंदाज भी नहीं किया। ये संतुलन ही था जो भारत को बाकी देशों से अलग खड़ा कर गया। और यही वो समझदारी थी, जिसने भारत को न सिर्फ Tariff के खतरे से दूर रखा, बल्कि वैश्विक स्तर पर एक शांत लेकिन मज़बूत राष्ट्र की छवि भी बनाई।
भारत की ये रणनीति दो मजबूत स्तंभों पर टिकी थी – पहला, सब्र। और दूसरा, तैयारी। भारत जानता था कि ट्रंप जैसा नेता सिर्फ शक्ति की भाषा समझता है, लेकिन वो ये भी जानता था कि सीधे भिड़ना नुकसानदेह हो सकता है। इसलिए भारत ने लगातार प्रतिनिधिमंडल भेजे, वर्चुअल मीटिंग्स कीं, लेकिन साथ ही ये भी सुनिश्चित किया कि हर बातचीत में भारत का रुख स्पष्ट रहे – हम डील चाहते हैं, लेकिन झुकेंगे नहीं। और इस पूरे दौरान भारत ने संयम बनाए रखा, न कोई भड़काऊ बयान, न कोई उकसाने वाला कदम। यह एक परिपक्व और रणनीतिक सोच का परिणाम था, जिससे भारत बिना किसी शोर-शराबे के अपना पक्ष मज़बूती से रख पाया।
इसका असर दिखा भी। 9 जुलाई की डेडलाइन के बाद जब ट्रंप ने जापान, यूरोप और दक्षिण कोरिया जैसे देशों को धमकी भरे पत्र भेजे, तब भारत के नाम कोई ऐसी चिट्ठी नहीं आई। जबकि भारत उन देशों में से है, जिनसे अमेरिका को बड़ा व्यापार घाटा है।
तो क्या ये इत्तेफाक था? बिल्कुल नहीं। ये भारत की चतुराई और कूटनीतिक संतुलन का नतीजा था। भारत ने अमेरिका को बातचीत में उलझाए रखा और खुद को Tariff से बचा लिया। इस चुपचाप खेली गई चाल ने यह साबित कर दिया कि एक शांत और संयमित राष्ट्र भी उग्र नेता के सामने मजबूती से खड़ा रह सकता है।
लेकिन इसका मतलब ये नहीं कि Tariff का खतरा पूरी तरह टल गया है। ट्रंप बार-बार फार्मा सेक्टर पर टैक्स लगाने की बात कर चुके हैं। उन्होंने तो ये तक कहा कि फार्मा उत्पादों पर 200% शुल्क लगाया जा सकता है। अगर ऐसा होता, तो भारत को अरबों डॉलर का नुकसान होता। क्योंकि भारत, अमेरिका का सबसे बड़ा जेनेरिक दवाओं का Supplier है।
फिर भी, धमकी नहीं मिली – क्यों? क्योंकि ट्रंप जानते हैं कि भारत के साथ एक छोटी, लेकिन दिखावटी जीत उन्हें घरेलू राजनीति में काम आ सकती है। और भारत इस संभावना को समझते हुए बेहद चतुराई से डील की दिशा में बातचीत को बढ़ा रहा है, ताकि अपने हितों की रक्षा हो सके और ट्रंप को भी कुछ ‘क्रेडिट’ मिल जाए।
ट्रंप को जापान से सख्त ना सुननी पड़ी – उन्होंने कह दिया कि वो 2020 की ट्रेड डील दोबारा नहीं खोलेंगे। कोरिया ने कहा – पहले अमेरिका रियायत दे, तब आगे बढ़ेंगे। यूरोप ने तो ट्रंप की धमकी को ‘राजनीतिक नाटक’ कहकर खारिज कर दिया। ऐसे में सिर्फ भारत ही था, जिसने बातचीत के दरवाज़े बंद नहीं किए। और यहीं भारत की रणनीति ने बाज़ी मार ली। बाकी देशों के कड़े रुख ने ट्रंप को भारत की ओर झुकने को मजबूर कर दिया, क्योंकि उन्हें अपनी डील लिस्ट में कुछ तो दिखाना था।
स्पेशल सेक्रेटरी राजेश अग्रवाल, जो भारत-अमेरिका डील के मुख्य वार्ताकार हैं, उन्होंने साफ किया – हम सितंबर या अक्टूबर तक इस समझौते के पहले चरण को पूरा करना चाहते हैं। इससे पहले हम एक “इंटरिम ट्रेड एग्रीमेंट” को अंतिम रूप देने की कोशिश कर रहे हैं। इस प्रक्रिया में भारत को अपने डेयरी, कृषि और फार्मा जैसे सेक्टर्स में समझौते करने होंगे, लेकिन भारत की तैयारी है कि वो किसी भी समझौते में अपनी आत्मनिर्भरता से समझौता न करे। इस पूरी कूटनीति में भारत अपने हर कदम पर सावधानी बरत रहा है – न तो बहुत आगे बढ़ रहा है, और न ही बहुत पीछे हट रहा है।
सरकारी सूत्रों के मुताबिक, जल्द ही भारतीय प्रतिनिधिमंडल फिर से अमेरिका जाएगा और आमने-सामने की बातचीत होगी। साथ ही, पिछले हफ्तों में कई वर्चुअल बैठकें भी हो चुकी हैं। इन सबका मकसद है – अमेरिका को ये भरोसा दिलाना कि भारत डील के लिए तैयार है, लेकिन उसकी कीमत भी तय करेगा। भारत का यह रुख ट्रंप को खींच रहा है, क्योंकि बाकी देशों ने तो बातचीत से हाथ खींच लिए हैं। एक ऐसा समय जब ट्रंप के पास विकल्प सीमित हैं, भारत का संतुलित दृष्टिकोण उसे अलग ही दर्जा देता है।
अब ट्रंप ने 1 अगस्त की नई डेडलाइन दी है। लेकिन उन्होंने ये भी कहा है – ये 100% पक्की नहीं है। ये बात भारत के पक्ष में जाती है। क्योंकि इसका मतलब है – भारत को समय मिल गया है बिना घुटने टेके बातचीत जारी रखने का। और अगर भारत इस ‘सॉफ्ट डेडलाइन’ को भी पार कर गया और फिर भी ट्रंप ने कोई धमकी नहीं दी, तो यह भारत की दूसरी कूटनीतिक जीत होगी। ये सिर्फ व्यापार नहीं होगा, यह दुनिया को यह दिखाने का मौका होगा कि भारत अब अपनी रणनीति से बड़ी शक्तियों के खेल में भी प्रभावशाली भूमिका निभा सकता है।
इस पूरे घटनाक्रम ने दुनिया को एक नया भारत दिखाया है – एक ऐसा भारत, जो न तो धमकियों से डरता है और न ही किसी दबाव में फैसले करता है। एक ऐसा भारत, जो वार्तालाप को प्राथमिकता देता है, लेकिन आत्मसम्मान से समझौता नहीं करता। ये वही भारत है जो ट्रंप जैसे नेता के सामने भी झुका नहीं। भारत ने अपने संयम, कूटनीति और रणनीति के ज़रिए यह दिखा दिया है कि 21वीं सदी में शक्ति केवल सैन्य या आर्थिक नहीं, बल्कि बुद्धिमत्ता और समय पर लिए गए फैसलों में भी होती है।
आने वाले हफ्ते बेहद अहम होंगे। अमेरिका की आंतरिक राजनीति में ट्रंप को अपनी ’90 डील्स इन 90 डेज़’ की बात को साबित करना है, और भारत को अपने व्यापारिक हितों को बचाए रखना है। अगर इन दोनों के बीच कोई संतुलन बनता है, तो ये इतिहास में दर्ज होगा – एक चुप्पी से जीती गई लड़ाई, बिना बंदूक, बिना धमकी और बिना झुकाव के। और इस जीत की गूंज आने वाले सालों तक सुनाई देगी।
Conclusion:-
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