Shocking: Tariff से बढ़ा तनाव! ट्रंप के फैसले पर गुस्सा तो सही, लेकिन भारत में अमेरिकी ब्रांड का बॉयकॉट कितना आसान? 2025

ज़रा सोचिए… अगर कल सुबह उठते ही आपके फोन से व्हॉट्सऐप गायब हो जाए, इंस्टाग्राम और फेसबुक लॉग-इन ही न हों, अमेज़न से अचानक सामान ऑर्डर न किया जा सके, और आपके बच्चों का पसंदीदा कोका-कोला या मैकडॉनल्ड्स का बर्गर मिलना बंद हो जाए… तो आपकी ज़िंदगी कितनी बदल जाएगी? यह सवाल यूं ही नहीं उठा है। इसकी वजह है अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप का वह बड़ा फैसला, जिसमें भारत पर 50 फीसदी तक का Tariff लगा दिया गया है।

इस कदम ने न सिर्फ भारतीय कारोबारियों को हिलाकर रख दिया, बल्कि आम जनता के बीच भी गुस्सा फैल गया है। सोशल मीडिया पर एक ज़ोरदार ट्रेंड शुरू हो गया—“बॉयकॉट अमेरिकन ब्रांड्स।” लेकिन असली सवाल यही है—क्या यह गुस्सा सही मायनों में लंबे समय तक टिक पाएगा? और क्या वाकई भारतीय समाज अमेरिकी ब्रांड्स के बिना रह सकता है? आज हम इसी विषय पर गहराई में चर्चा करेंगे।

आपको बता दें कि लोगों की भावनाओं को समझना मुश्किल नहीं है। जब किसी देश के खिलाफ आर्थिक दबाव डाला जाता है, तो नेचुरली आम जनता उस देश से जुड़े प्रतीकों को टारगेट करती है। और भारत में अमेरिकी प्रतीक कौन हैं?—McDonald’s, Coca-Cola, Apple, Amazon, Starbucks और सैकड़ों अन्य ब्रांड्स, जो हमारी रोज़मर्रा की ज़िंदगी का हिस्सा बन चुके हैं। ट्विटर और इंस्टाग्राम पर भले ही लोग कह रहे हों कि अब हम इन ब्रांड्स का बहिष्कार करेंगे, लेकिन हकीकत में क्या यह संभव है? आइए, इस कहानी को शुरू से समझते हैं, क्योंकि यह सिर्फ राजनीति की नहीं, बल्कि हमारी अपनी रोज़मर्रा की ज़िंदगी की कहानी है।

सोचिए, सबसे पहले बात करें सोशल मीडिया की। व्हॉट्सऐप, इंस्टाग्राम और फेसबुक—क्या आप कल्पना कर सकते हैं कि एक दिन भी इनके बिना चल सकता है? यह सिर्फ ऐप्स नहीं हैं, बल्कि हमारी कम्युनिकेशन की रीढ़ बन चुके हैं। शादी से लेकर बिज़नेस तक, दोस्ती से लेकर रिश्तेदारी तक, हर जगह व्हॉट्सऐप और फेसबुक ही जुड़ाव का माध्यम बन चुके हैं।

ऑफिस की बात करें तो एमएस ऑफिस, लिंक्डइन, चैटजीपीटी—सब अमेरिकी कंपनियों के प्रोडक्ट हैं। यानी यदि आप बॉयकॉट की बात करते हैं, तो आपको सबसे पहले अपनी ही दिनचर्या की जड़ों को काटना होगा। सवाल यही है—क्या हम भारतीय इतने आसानी से इसे स्वीकार कर पाएंगे?

इसके बाद आते हैं ऑनलाइन शॉपिंग पर। अमेज़न और फ्लिपकार्ट। हम सभी जानते हैं कि फ्लिपकार्ट भारतीय ब्रांड के नाम से शुरू हुआ था, लेकिन अब उसका मालिक वॉलमार्ट है, जो कि एक अमेरिकी कंपनी है। सोचिए, जब आप कहते हैं कि अमेज़न का इस्तेमाल बंद करो, तो फ्लिपकार्ट भी उसी दायरे में आ जाता है।

और भारत का ई-कॉमर्स मार्केट इतना बड़ा हो चुका है कि इसमें इन दोनों कंपनियों का दबदबा 70% से भी ज़्यादा है। साल 2024 में अमेज़न बिज़नेस ने 70% नए ग्राहक छोटे शहरों से जोड़े। यानी बॉयकॉट का असर सिर्फ़ मेट्रो शहरों तक नहीं होगा, बल्कि छोटे कस्बों और गांवों तक जाएगा, जहां अब ऑनलाइन शॉपिंग ज़िंदगी का हिस्सा बन चुकी है। क्या कोई इतनी आसानी से इसे छोड़ पाएगा?

अब बात करते हैं आईफोन की। कभी भारत में आईफोन एक लग्ज़री माना जाता था, लेकिन आज यह आम युवाओं का सपना बन चुका है। और धीरे-धीरे इसकी पहुंच मिडिल क्लास तक भी बढ़ रही है। अनुमान है कि 2025 के अंत तक भारत में 1.5 करोड़ आईफोन यूज़र्स होंगे।

यही नहीं, भारत आज एप्पल के लिए सिर्फ़ ग्राहक नहीं, बल्कि प्रोडक्शन हब भी बन रहा है। कर्नाटक के देवनहल्ली में फॉक्सकॉन अरबों डॉलर का Investment कर रहा है, ताकि भारत में बने आईफोन पूरी दुनिया में एक्सपोर्ट किए जा सकें। यानी जिस प्रोडक्ट को हम अमेरिकी ब्रांड मानते हैं, उसका भविष्य भारत से भी जुड़ा हुआ है। तो क्या ऐसे ब्रांड को पूरी तरह ठुकराना संभव है?

फिर आते हैं खाने-पीने की चीज़ों पर। सोचिए, एक बच्चे की जन्मदिन की पार्टी हो और वहां पिज़्ज़ा हट, डोमिनोज़ या मैकडॉनल्ड्स का खाना न हो। या गर्मियों के दिनों में कोका-कोला और पेप्सी जैसी ड्रिंक्स न मिलें। यह सिर्फ स्वाद की बात नहीं है, बल्कि एक कल्चर बन चुका है। स्टारबक्स में बैठकर कॉफी पीना आजकल युवाओं के लिए लाइफस्टाइल का हिस्सा है।

यही वजह है कि भले ही स्टारबक्स को अभी भी भारत में घाटा हो रहा है, फिर भी कंपनी यहां से बाहर जाने का नाम नहीं ले रही। कोका-कोला और पेप्सी जैसी कंपनियां लगातार मुनाफा कमा रही हैं। यानी जितना गुस्सा सोशल मीडिया पर दिख रहा है, हकीकत में ज़िंदगी इन ब्रांड्स से इतनी गहराई से जुड़ चुकी है कि उनसे दूरी बनाना बेहद मुश्किल है।

फैशन की दुनिया में भी यही हाल है। जींस हो या स्नीकर्स, जैकेट हो या वियरेबल गैजेट्स—हर जगह अमेरिकी ब्रांड्स का दबदबा है। Levi’s, Tommy Hilfiger, Nike, Skechers, Fossil—इनमें से कोई न कोई ब्रांड हमारे वार्डरोब में ज़रूर मौजूद है। और यह सिर्फ़ प्रोडक्ट की क्वालिटी का असर नहीं है, बल्कि एक स्टेटस सिंबल भी है। खासकर मिलेनियल्स और Gen Z के लिए। यही दो पीढ़ियां हैं, जिन्होंने अमेरिकी ब्रांड्स को भारत में सबसे मज़बूत बनाया है। इनके लिए यह ब्रांड सिर्फ़ प्रोडक्ट नहीं, बल्कि पहचान हैं। Starbucks में बैठना सिर्फ कॉफी पीना नहीं, बल्कि सोशल इमेज का हिस्सा है। iPhone रखना सिर्फ़ एक फोन होना नहीं, बल्कि एक स्टेटस होना है।

अब सवाल उठता है—अगर इतना गुस्सा है, तो अमेरिकी ब्रांड्स भारत में कैसे फल-फूल रहे हैं? इसका जवाब है कि भारतीय बाज़ार इन कंपनियों के लिए सोने की खान है। एप्पल ने पिछले साल 1 लाख करोड़ रुपये के आईफोन भारत से एक्सपोर्ट किए। अमेज़न ने अपने बिज़नेस में 11 अरब डॉलर से ज़्यादा Investment किया है। फ्लिपकार्ट का रेवेन्यू 18 हज़ार करोड़ रुपये के पार चला गया है। मैकडॉनल्ड्स ने सिर्फ 2024 में 2.22 लाख करोड़ रुपये की कमाई की। ये आंकड़े दिखाते हैं कि भारत अमेरिकी ब्रांड्स के लिए सिर्फ़ एक मार्केट नहीं, बल्कि उनका भविष्य है।

यानी ट्रंप के टैरिफ से भले ही भारत सरकार और भारतीय कारोबारियों पर दबाव पड़े, लेकिन अमेरिकी कंपनियों का भारत में असर कम नहीं हुआ है। उल्टा, वे यहां लगातार Investment बढ़ा रही हैं। और अगर किसी देश की कंपनियां यहां अरबों रुपये Investment कर रही हैं, तो इसका मतलब है कि उनका भरोसा भारतीय उपभोक्ताओं पर है। यही कारण है कि इन कंपनियों को बॉयकॉट करना इतना आसान नहीं है।

अब सोचिए, अगर भारत सच में अमेरिकी ब्रांड्स को बैन कर दे। इसका मतलब सिर्फ मैकडॉनल्ड्स और कोका-कोला को बंद करना नहीं होगा। इसका मतलब होगा हजारों युवाओं की नौकरियां खत्म होना, अरबों रुपये का टैक्स रेवेन्यू बंद होना, और सबसे बढ़कर भारतीय उपभोक्ताओं की आदतों में अचानक से बड़ा बदलाव आना। शायद यही वजह है कि सरकारें इस तरह के फैसले लेने से पहले हजार बार सोचती हैं।

तो सवाल का जवाब यही है—गुस्सा जायज है, लेकिन बॉयकॉट मुश्किल है। अमेरिकी ब्रांड्स ने भारतियों के दिल और दिमाग में ऐसी जगह बना ली है कि उन्हें हटाना आसान नहीं है। और यही इस कहानी की सच्चाई है—आज भारतीय समाज की लाइफस्टाइल और अमेरिकी ब्रांड्स एक-दूसरे में ऐसे घुलमिल गए हैं, जैसे दूध और पानी। उन्हें अलग करना अब लगभग नामुमकिन है।

Conclusion

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