ज़रा सोचिए… अगर कल सुबह आप अपनी कार स्टार्ट करने बैठें और अचानक पता चले कि उसमें इंजन है लेकिन कंप्रेसर नहीं, बैटरी है लेकिन रेयर अर्थ मैग्नेट्स नहीं, एयर कंडीशनर है लेकिन कूलिंग Technology गायब है। गाड़ी आपकी होगी, ईंधन आपका होगा, लेकिन Technology की कमी के कारण गाड़ी वहीं खड़ी रह जाएगी। यह स्थिति आज भारत की इंडस्ट्री और चीन के रिश्तों से मिलती-जुलती है।
भारत ने विकास की गाड़ी दौड़ानी शुरू कर दी है, लेकिन उसकी रफ़्तार पर चीन ने ब्रेक लगा रखा है। यही वजह है कि जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी चीन की यात्रा पर जाने की तैयारी कर रहे हैं, तो पूरे उद्योग जगत, कारोबारियों और आम लोगों की निगाहें इस यात्रा पर टिक गई हैं। सवाल यही है—क्या चीन भारत को वह तकनीक देगा, जिसकी उसे सख़्त ज़रूरत है, या फिर एक बार फिर बातचीत के बाद सब अधूरा रह जाएगा? आज हम इसी विषय पर गहराई में चर्चा करेंगे।
प्रधानमंत्री मोदी की यह यात्रा वैसे तो कूटनीतिक तौर पर एक अहम पड़ाव है, लेकिन इसकी अहमियत सिर्फ़ राजनीति तक सीमित नहीं है। यह सात साल बाद की पहली चीन यात्रा होगी, और इस दौरान दोनों देशों के बीच व्यापार और Technology ट्रांसफर पर चर्चा होना लगभग तय है। लेकिन जमीनी सच्चाई यह है कि चीन फिलहाल किसी भी सौदे में जल्दबाज़ी करने के मूड में नहीं दिख रहा।
चीन को पता है कि पिछले कुछ सालों से भारत-चीन रिश्ते तल्ख रहे हैं। गलवान की झड़पों ने रिश्तों में खटास डाल दी, और भारत ने भी इसके बाद चीन के Investment और उसके Products पर सख़्ती बरती। लेकिन अब हालात बदले हैं। अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने जब दोनों देशों पर टैरिफ लगाया है, तब भारत और चीन के पास एक मौका है कि वे अपने रिश्तों को नए सिरे से देखें। इसके बावजूद चीन की चालाकी यही है कि वह भारत को ज़रूरी Technology ट्रांसफर करने में देर कर रहा है।
भारत के लिए यह देरी बेहद भारी पड़ रही है। चीन ने भारत को रेयर अर्थ मैग्नेट्स, फर्टिलाइज़र्स और दवाओं में इस्तेमाल होने वाले कच्चे माल की सप्लाई रोक दी है। यह सिर्फ़ एक व्यापारिक कदम नहीं है, बल्कि एक रणनीतिक दबाव भी है। चीन यह अच्छी तरह समझता है कि इन कच्चे माल के बिना भारत की कई इंडस्ट्री अधूरी पड़ जाएगी।
सोचिए, अगर रेयर अर्थ मैग्नेट्स न हों तो भारत की इलेक्ट्रिक वाहन इंडस्ट्री कैसे चलेगी? अगर दवाओं के लिए जरूरी कच्चा माल न मिले तो फार्मा इंडस्ट्री कैसे टिकेगी? और अगर फर्टिलाइज़र की सप्लाई बाधित हो जाए तो भारत के किसानों की फसल पर सीधा असर होगा। यानी चीन ने भारत की नब्ज़ पकड़ रखी है, और यह नब्ज़ है उसकी Technology और सप्लाई चेन।
हायर कंपनी का मामला इसका सबसे ताज़ा उदाहरण है। चीन की अप्लायंसेज़ बनाने वाली दिग्गज कंपनी हायर भारत में अपनी यूनिट की 48 से 50 प्रतिशत हिस्सेदारी बेचना चाहती है। भारती ग्रुप के चेयरमैन सुनील मित्तल ने इस हिस्सेदारी को खरीदने के लिए समझौता भी कर लिया है।
लगभग सारी औपचारिकताएँ पूरी हो चुकी हैं। लेकिन डील पर अभी भी सस्पेंस बना हुआ है, और इसकी वजह सिर्फ़ एक है—चीन सरकार की मंज़ूरी। चीन Technology ट्रांसफर के मामले में इतना सतर्क है कि वह हर शर्त की गहराई से जांच कर रहा है। इसका मतलब यह है कि भारत को सिर्फ़ हिस्सेदारी तो मिल सकती है, लेकिन उसके साथ ज़रूरी तकनीक मिलेगी या नहीं, यह अभी भी अधर में लटका हुआ है।
यही नहीं, भारत की कंपनी पीजी इलेक्ट्रोप्लास्ट की कहानी और भी दिलचस्प है। यह कंपनी एयर कंडीशनर के कंप्रेसर बनाना चाहती है। इसके लिए उसने चीन की एक टॉप कंपनी हाईली ग्रुप से पार्टनरशिप की योजना बनाई। भारत में प्लांट की बिल्डिंग लगभग तैयार है, Investment का इंतज़ाम हो चुका है, मशीनरी का ऑर्डर देने के लिए कागज़ात तैयार हैं—लेकिन मामला वहीं अटका है। वजह वही—चीन सरकार की मंज़ूरी। पीजी इलेक्ट्रोप्लास्ट के फाइनेंस मैनेजिंग डायरेक्टर विशाल गुप्ता खुद तीन हफ़्ते पहले चीन गए थे। उन्होंने अपने संभावित पार्टनर से मुलाकात की। लेकिन जवाब वही आया—“यह मामला अभी रुका हुआ है।” यानी भारत का सपना अधूरा रह गया।
इस देरी का असर अब भारत की इंडस्ट्री पर साफ दिख रहा है। पीजी इलेक्ट्रोप्लास्ट ने कंप्रेसर प्रोजेक्ट को अगले वित्तीय वर्ष में शुरू करने की योजना बनाई थी। लेकिन अब यह प्रोजेक्ट एक साल खिसक गया है। इतना ही नहीं, कंपनी को अपने पूंजीगत खर्च का अनुमान भी घटाना पड़ा। पहले 900 करोड़ रुपये का अनुमान था, लेकिन अब इसे घटाकर 700 से 750 करोड़ रुपये कर दिया गया है। यह सिर्फ़ एक कंपनी की कहानी नहीं है, बल्कि भारत की उन सैकड़ों कंपनियों की कहानी है, जो चीनी Technology पर निर्भर हैं।
चीन ने अपनी कंपनियों को साफ संदेश दिया है कि कोई भी विदेशी साझेदारी, खासकर जिसमें Technology का ट्रांसफर शामिल हो, वह बिना सरकारी जांच के मंज़ूर नहीं की जाएगी। चीन के उद्योगों के अधिकारियों ने खुलासा किया है कि उन्हें मौखिक निर्देश मिले हैं—तकनीकी डील्स को सरकार से हरी झंडी मिलने से पहले आगे न बढ़ाएँ। यह खासकर उन मामलों में ज़्यादा सख़्त है, जहाँ बड़ी चीनी कंपनियाँ शामिल हैं। इसका सीधा असर यह है कि भारत की कंपनियाँ भले ही तैयार हों, लेकिन चीन की मंज़ूरी के बिना उनके प्रोजेक्ट अधूरे रह जाते हैं।
भारत की ऑटोमोबाइल कंपनियों के सामने भी यही समस्या है। इलेक्ट्रिक वाहनों की बात करें तो चीन इस क्षेत्र में सबसे आगे है। बैटरी तकनीक, चार्जिंग इंफ्रास्ट्रक्चर और सप्लाई चेन—हर जगह चीन का दबदबा है। भारतीय कंपनियाँ जैसे सोना कॉमस्टार, डिक्सन टेक्नोलॉजीज, ईपैक ड्यूरेबल और भगवती प्रोडक्ट्स चीनी कंपनियों के साथ गठजोड़ करने की कोशिश कर रही हैं। लेकिन चीन हर बार Technology ट्रांसफर के मामले में सावधानी बरतता है। लुमैक्स ऑटो टेक तो चीन में अपना इंजीनियरिंग और रिसर्च हब बनाने की योजना तक बना चुका है, ताकि नई Technology के बारे में जानकारी मिल सके। लेकिन चीन इस कदम पर भी सतर्कता बरत रहा है।
असल में चीन यह भली-भांति जानता है कि उसकी इलेक्ट्रिक वाहन Technology उसकी सबसे बड़ी ताक़त है। यही उसका तुरुप का पत्ता है। वह चाहता है कि पूरी दुनिया उसकी Technology पर निर्भर रहे, और कोई भी देश उसकी बराबरी न कर पाए। अमेरिका के साथ भी उसने रेयर अर्थ मैग्नेट्स पर यही रणनीति अपनाई थी। अब वही रणनीति वह भारत के खिलाफ भी अपना रहा है। भारत चाहे जितनी भी कोशिश कर ले, चीन अपनी तकनीकी बढ़त छोड़ने के मूड में नहीं है।
भारतीय कंपनियों के लिए यह स्थिति बेहद चुनौतीपूर्ण है। उन्होंने सरकार से मांग की है कि PN3 के तहत मंज़ूरी की प्रक्रिया को आसान बनाया जाए, ताकि लोकल मैन्युफैक्चरिंग क्षमता बनाई जा सके। लेकिन लोकल क्षमता बनाना आसान नहीं है। इसके लिए रिसर्च चाहिए, Investment चाहिए और सबसे बढ़कर समय चाहिए। और समय वही चीज़ है जो आज भारत के पास सबसे कम है। क्योंकि अगर भारत इस समय Technology में पिछड़ गया, तो वह आने वाले दशक में ग्लोबल सप्लाई चेन में पीछे रह जाएगा।
चीन का रुख हमेशा से यह रहा है कि वह विदेशी ऑपरेशंस में हिस्सेदारी बेचने या Technology ट्रांसफर करने में बहुत सतर्क रहता है। उसकी सरकार यह सुनिश्चित करना चाहती है कि Technology पर उसका नियंत्रण हमेशा बना रहे। यह उसकी औद्योगिक नीति का हिस्सा है। और यही वजह है कि भारत को बार-बार निराशा मिल रही है।
लेकिन इस बार परिदृश्य अलग है। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने भारत और चीन दोनों पर टैरिफ लगाया है। इससे दोनों देशों के बीच एक नई कड़ी बन सकती है। रिपोर्ट्स बताती हैं कि भारत और चीन रेयर अर्थ मैग्नेट्स, फर्टिलाइज़र और फार्मास्यूटिकल्स की सप्लाई पर एक व्यापार पैकेज पर बातचीत कर सकते हैं। यह पैकेज दोनों देशों के रिश्तों में सुधार का आधार बन सकता है। लेकिन असली सवाल वहीं है—क्या चीन भारत को वह टेक्नोलॉजी देगा, जिसकी उसे ज़रूरत है?
भारत की गाड़ी सड़क पर है, इंजन चालू है, ड्राइवर तैयार है। लेकिन बिना टेक्नोलॉजी के यह गाड़ी कितनी दूर जा पाएगी? मोदी की यह यात्रा उसी सवाल का जवाब ढूँढने की कोशिश है। अगर चीन राज़ी हो जाता है, तो भारत की औद्योगिक गाड़ी रफ़्तार पकड़ सकती है। लेकिन अगर चीन अपनी सख्ती पर अड़ा रहा, तो भारत को अपने दम पर रास्ता तलाशना होगा। और यह रास्ता आसान नहीं है।
Conclusion
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