Tariff जंग पर ब्रेक! ट्रंप-जिनपिंग की सुलह से भारत को मिल सकते हैं बड़े फायदे I 2025

एक ऐसी दुनिया जहां दो महाशक्तियां—अमेरिका और चीन—एक-दूसरे को झुकाने की होड़ में करोड़ों लोगों की नौकरियां, अरबों डॉलर की व्यापारिक डील्स, और पूरे Global बाजार को दांव पर लगा देती हैं। जहां एक तरफ अमेरिका डर रहा है मंदी की गिरफ्त में आने से, तो दूसरी तरफ चीन के बंद हो रहे कारखाने, चुपचाप चीख रहे हैं आर्थिक तबाही की कहानी।

और तभी—एक ऐसी खबर आती है, जो पूरी दुनिया को राहत की सांस लेने पर मजबूर कर देती है। Tariff की तलवारें म्यान में चली जाती हैं, और ट्रेड वॉर के मैदान में पहली बार सन्नाटा छा जाता है। पर सवाल ये है कि आखिर अचानक ऐसा क्या हुआ? दो तानाशाही तेवर वाले राष्ट्राध्यक्ष, जो झुकना अपनी तौहीन समझते थे, आखिर क्यों बैठ गए एक टेबल पर? आज हम इसी विषय पर गहराई में चर्चा करेंगे।

2 अप्रैल 2025। अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने दुनिया के सामने वो फैसला सुनाया, जो आने वाले हफ्तों में पूरे Global व्यापार को झकझोर कर रख देगा। उन्होंने ‘लिबरेशन डे’ का ऐलान करते हुए ‘Reciprocal Tariff’ यानी जवाबी Tariff की शुरुआत की। यह फैसला सीधा उन देशों के खिलाफ था, जो अमेरिकी Products पर ज्यादा Tariff लगाते हैं। सबसे बड़ी चोट पहुंची चीन को—जिसे ट्रंप अपने राजनीतिक भाषणों में लगातार निशाना बनाते आए थे। और यही बनी एक नए ट्रेड वॉर की शुरुआत।

चीन ने भी जवाब देने में देर नहीं लगाई। उसने अमेरिकी Import पर भारी Tariff लगाकर साफ कर दिया कि वो किसी दबाव में नहीं आने वाला। बात यहीं नहीं रुकी—अमेरिका ने चीन पर टैरिफ बढ़ाकर 145% कर दिया, और चीन ने पलटवार करते हुए 125% Tariff अमेरिका पर ठोंक दिया। इस बढ़ती तनातनी ने न केवल इन दोनों देशों के व्यापार को जकड़ लिया, बल्कि दुनिया भर की सप्लाई चेन पर भी बर्फ सी जमी दिखाई दी। एक ऐसा माहौल बना, जैसे Global अर्थव्यवस्था युद्ध के मैदान में खड़ी हो।

अमेरिका में खुद इसके नतीजे दिखने शुरू हो गए। एक के बाद एक रिपोर्ट्स सामने आईं, जो चेतावनी दे रही थीं कि इस Tariff वार के कारण अमेरिका मंदी की ओर बढ़ सकता है। चीनी सामान पर बढ़ी कीमतों ने अमेरिकी रिटेल बिजनेस को झटका दिया। सप्लाई में रुकावट, कीमतों में उछाल, और व्यापार घाटा… ये सब मिलकर एक ऐसे तूफान की आहट दे रहे थे, जो अमेरिकी इकोनॉमी को भीतर से हिला सकता था।

इधर चीन की हालत भी कुछ बेहतर नहीं रही। अमेरिकी मांग में गिरावट का असर सीधे चीनी फैक्ट्रियों पर पड़ा। CNBC इंटरनेशनल की एक रिपोर्ट ने खुलासा किया कि चीन की कई मैन्युफैक्चरिंग यूनिट्स बंद होने लगी हैं। खासतौर से टॉय इंडस्ट्री, खेल उपकरण, और लो-कॉस्ट कंज्यूमर प्रोडक्ट्स बनाने वाली फैक्ट्रियों में ताले लगने लगे। गोल्डमैन सैक्स तक ने चेतावनी दे दी कि 1 से 2 करोड़ लोग चीन में बेरोजगार हो सकते हैं।

इन आर्थिक झटकों ने दोनों देशों को सोचने पर मजबूर कर दिया। अमेरिका में मंदी का डर और चीन में उत्पादन का ठप पड़ना, एक ऐसी मजबूरी बन गए, जिसने दोनों नेताओं—डोनाल्ड ट्रंप और शी जिनपिंग—को आमने-सामने बात करने के लिए मजबूर कर दिया। कुछ दिन पहले तक जो एक-दूसरे को आर्थिक बर्बादी की धमकी दे रहे थे, वे अब एक समझौते की भाषा बोलने लगे।

अचानक ही खबर आई कि अमेरिका और चीन के बीच Tariff डील पर सहमति बन गई है। यह डील स्थायी नहीं, बल्कि 90 दिनों के लिए अस्थायी सीजफायर है। लेकिन बाजारों ने इसे राहत की खबर की तरह लिया। डील के तहत अमेरिका ने चीन पर लगे 145% Tariff को घटाकर 30% कर दिया। वहीं चीन ने भी अमेरिका से आने वाले सामानों पर 125% Tariff को कम करके 10% कर दिया।

ये समझौता सिर्फ नंबरों का खेल नहीं था, बल्कि एक संकेत था कि अब दुनिया की सबसे बड़ी इकोनॉमियां भी ‘आर्थिक शक्ति’ से ज्यादा ‘आर्थिक स्थिरता’ की कीमत समझने लगी हैं। इस समझौते के तुरंत बाद दुनियाभर के स्टॉक मार्केट्स में उछाल आया। Investors को भरोसा मिला कि Global व्यापार फिर से पटरी पर लौट सकता है।

लेकिन यह डील भी एक तरह का ब्रेकिंग पॉइंट था—जहां चीन को समझ आया कि अमेरिका के बिना उसका प्रोडक्शन मॉडल अधूरा है, और अमेरिका को भी यह महसूस हुआ कि चीन के बिना उसकी कंज्यूमर मार्केट की लागत बढ़ती जाएगी। दोनों का आपसी नुकसान एक-दूसरे से ज्यादा हो चुका था, और अब फायदा सिर्फ समझदारी में था।

भारत जैसे देश इस Tariff जंग को दूर से देख रहे थे—एक मौके की तरह। भारत की पोजीशन ‘चीन प्लस वन’ रणनीति के तहत लगातार मजबूत हो रही थी, और इस ट्रेड वॉर ने ग्लोबल कंपनियों को नया विकल्प सोचने पर मजबूर कर दिया। लेकिन अब जब Tariff युद्ध थमा है, तो भारत के सामने दो राहें हैं—या तो वह इस अस्थायी शांति में आराम करे, या इस अंतराल में खुद को चीन का मजबूत विकल्प साबित करे।

ट्रंप का यह यू-टर्न महज़ रणनीति का हिस्सा था या मंदी के डर की एक मजबूरी? यह सवाल आज भी बहस का मुद्दा है। लेकिन ये साफ है कि अमेरिका और चीन, दोनों ने इस लड़ाई में बहुत कुछ खोया है। अगर Tariff वापस बढ़ते हैं, तो यही चिंगारी दोबारा Global मंदी की ज्वाला बन सकती है।

भारत की पोजीशन

वहीं चीन, जो दुनिया का सबसे बड़ा मैन्युफैक्चरिंग हब बन चुका था, अब पहली बार ‘निर्भरता’ के मायने समझने लगा है। अमेरिका की डिमांड पर टिका उसका प्रोडक्शन मॉडल एक झटके में चरमरा गया। और यही वो लम्हा था, जब एक सुपरपावर को दूसरी सुपरपावर की जरूरत का अहसास हुआ।

ट्रंप का पलट जाना भी चौंकाने वाला था। एक ऐसा नेता जिसने पूरी ट्रेड पॉलिसी को ‘अमेरिका फर्स्ट’ के आधार पर खड़ा किया, अब ‘साझेदारी’ की भाषा बोल रहा था। और इसका असर अमेरिका की घरेलू राजनीति पर भी पड़ा। Investors और कंपनियों ने राहत की सांस ली, लेकिन विपक्ष ने इसे ट्रंप की कमजोरी बताया।

दुनियाभर के छोटे देश, जो इस ट्रेड वॉर से अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित हुए थे, अब इस ट्रूस के बाद अपनी रणनीति को फिर से गढ़ रहे हैं। दक्षिण कोरिया, वियतनाम, बांग्लादेश, और भारत जैसे देश अब ग्लोबल सप्लाई चेन में स्थायी स्थान पाने की होड़ में हैं।

हालांकि यह भी सच है कि इस युद्धविराम की उम्र 90 दिन ही है। इसके बाद क्या होगा—क्या दोनों देश वाकई शांति की तरफ बढ़ेंगे या फिर Tariff की तलवारें फिर से खिंच जाएंगी—इस पर अब सारी निगाहें टिकी हैं।

लेकिन इस घटनाक्रम ने एक बात तो साबित कर दी—आज की दुनिया में सिर्फ सैन्य ताकत या राजनीतिक जिद से नहीं, बल्कि आर्थिक समझदारी से ही वजूद बचाया जा सकता है। एक गलत फैसला लाखों लोगों की नौकरी, अरबों डॉलर का नुकसान, और Global अस्थिरता पैदा कर सकता है।

अब दुनिया सिर्फ अमेरिका और चीन की मोनोपॉली नहीं रह गई। अब वो दौर है, जहां हर देश को अपनी रणनीति बनानी होगी। भारत जैसी अर्थव्यवस्था के लिए यह समय सुनहरा है—जहां वह खुद को Global मंच पर स्थापित कर सकता है।

और अंत में, यह कहानी सिर्फ ट्रंप बनाम जिनपिंग की नहीं है। यह कहानी है उस अहंकार की, जिसने पूरी दुनिया को हिला दिया… और उस समझदारी की, जिसने वक्त रहते इसे थाम लिया। लेकिन क्या यह समझदारी स्थायी होगी? या फिर 90 दिनों बाद हम फिर से उसी डर की दहलीज पर खड़े होंगे? इसका जवाब आने वाला समय देगा। लेकिन अभी के लिए… Tariff की तलवारें म्यान में हैं… और दुनिया राहत की सांस ले रही है।

Conclusion

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