ज़रा सोचिए… कोई व्यक्ति जो पहले एक विश्वविद्यालय का प्रोफेसर था, किताबें लिखता था, लेक्चर देता था और जिसका नाम शायद ही किसी ने व्हाइट हाउस की राजनीति में सुना हो, वही व्यक्ति अचानक दुनिया की सबसे ताक़तवर अर्थव्यवस्था के राष्ट्रपति का ‘ट्रेड गुरु’ बन जाए। और फिर उसके सुझावों से पूरी global economy हिलने लगे, दोस्त देश दुश्मन बन जाएं और व्यापार सिर्फ़ व्यापार न रहकर जंग का हथियार बन जाए। यह कहानी है पीटर नवारो की—ट्रंप के ट्रेड गुरु, जिनके दिमाग से निकले बेतुके Tariff ने अमेरिका को भी नुकसान पहुँचाया और भारत जैसे देशों को भी। आज हम इसी विषय पर गहराई में चर्चा करेंगे।
भारत और अमेरिका के रिश्ते कभी इतने अच्छे रहे थे कि भारतीय मूल के लोग ट्रंप की जीत के लिए हवन और यज्ञ तक करवाते थे। 2016 का चुनाव याद कीजिए—दिल्ली और अहमदाबाद की गलियों में लोग पोस्टर लगाए घूम रहे थे, “अबकी बार ट्रंप सरकार।” भारतीय-अमेरिकी वोटरों ने उन्हें खुला समर्थन दिया था। लेकिन, सिंहासन संभालते ही ट्रंप का अंदाज़ बदल गया। और इस बदलाव के पीछे सबसे बड़ा हाथ था पीटर नवारो का।
नवारो पहले एक Academic थे। हार्वर्ड से पीएचडी करने के बाद उन्होंने यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया, इरविन में पढ़ाया। लेकिन उनका करियर किसी टॉप जर्नल या बड़े Research papers के लिए नहीं जाना जाता। उनकी असली पहचान बनी 2011 की किताब Death by China से। इस किताब में उन्होंने चीन पर करंसी मैनिपुलेशन, अवैध सब्सिडी और अमेरिकी मैन्युफैक्चरिंग को बर्बाद करने के आरोप लगाए। भाषा इतनी उग्र थी कि यह केवल Economics नहीं, बल्कि एक युद्धघोष जैसा लगता था। 2012 में इस पर डॉक्यूमेंट्री भी बनाई और वह अमेरिका में चीन के सबसे बड़े आलोचक के रूप में स्थापित हो गए।
उनकी भाषा इतनी तेज़ थी कि कई academics ने उन्हें Extremist कहा। लेकिन Nationalists और पॉपुलिस्ट नेताओं ने उनकी जय-जयकार की। और फिर आया 2016 का चुनाव। ट्रंप के दामाद जेरेड कुशनर ने अमेज़न पर यह डॉक्यूमेंट्री देखी और नवारो से संपर्क किया। देखते-ही-देखते नवारो एक किताब लिखने वाले प्रोफेसर से ट्रंप कैंपेन के ट्रेड एडवाइज़र बन गए।
ट्रंप के पहले कार्यकाल में नवारो का दख़ल गज़ब का था। वह Office of Trade and Manufacturing Policy के Director बने। यही वह समय था जब अमेरिका की नीति Free Trade से हटकर America First की ओर मुड़ गई। नवारो ने चीन के खिलाफ Tariff युद्ध छेड़ा। अरबों डॉलर के चीनी सामान पर भारी शुल्क लगाया गया। उनके सुझाव पर स्टील और एल्यूमिनियम पर 25% Tariff लगाया गया। और यही वह दौर था जब Tariff को हथियार बनाकर अमेरिका ने अपने दुश्मनों के साथ-साथ दोस्तों को भी नुकसान पहुंचाना शुरू किया।
भारत इसका सबसे ताज़ा उदाहरण है। नवारो का कहना था कि भारत रूस से तेल खरीदकर “अवसरवादी” रवैया दिखा रहा है। उन्होंने आरोप लगाया कि भारत पुतिन की अर्थव्यवस्था को सहारा दे रहा है। और ट्रंप ने नवारो की इसी लाइन पर चलते हुए भारत के उत्पादों पर 50% Tariff और रूस से तेल खरीदने पर 25% अतिरिक्त Tariff ठोक दिया। यह वही भारत था, जिसे कभी अमेरिका का रणनीतिक साझेदार कहा जाता था।
नवारो के प्रभाव का अंदाज़ा इसी से लगाया जा सकता है कि उन्होंने केवल चीन ही नहीं, बल्कि कनाडा और यूरोप जैसे देशों को भी नाराज़ कर दिया। 2018 की घटना याद कीजिए जब कनाडा के प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो ने अमेरिका के खिलाफ जवाबी Tariff लगाने की बात की। नवारो ने बयान दिया—“Trudeau के लिए नरक में एक खास जगह आरक्षित है।” बाद में उन्हें माफी मांगनी पड़ी, लेकिन दुनिया को यह समझ आ गया कि नवारो का अंदाज़ कैसा है।
उनकी लड़ाइयाँ केवल बाहर के देशों से नहीं थीं। व्हाइट हाउस के अंदर भी वह लगातार भिड़ते रहे। ट्रेज़री सेक्रेटरी स्टीवन मेनुचिन के साथ उनकी चीनी इमारत के लॉन में बहस आज भी मशहूर है। कई बार उन्हें दरकिनार करने की कोशिश हुई, लेकिन ट्रंप के साथ उनकी केमिस्ट्री इतनी गहरी थी कि उनकी बातों को अहमियत मिलती रही।
अप्रैल 2020 में एलन मस्क से उनकी ठन गई। मस्क तब तक ट्रंप के करीबी बन चुके थे। नवारो ने CNBC पर मस्क को “कार असेंबलर” कहा और आरोप लगाया कि वह पार्ट्स Import पर निर्भर हैं। इस बयान ने दिखा दिया कि नवारो किसी से टकराने में परहेज़ नहीं करते।
भारत के खिलाफ उनका रवैया और भी खतरनाक था। उन्होंने खुले तौर पर कहा कि अगर भारत अमेरिका का पार्टनर बनना चाहता है, तो उसे रूस से तेल खरीदना बंद करना होगा। लेकिन उन्होंने कभी यह नहीं कहा कि चीन, जो रूस का सबसे बड़ा खरीदार है, उसे क्यों नहीं रोका जा रहा। यानी भारत को टार्गेट करना उनका सीधा एजेंडा था।
आज जब ट्रंप ने भारत पर 50% Tariff लगाया है और रूसी तेल पर 25% का जुर्माना ठोंका है, तो यह केवल एक आर्थिक फैसला नहीं है। यह पीटर नवारो की उस सोच का नतीजा है, जिसमें Tariff एक हथियार है और व्यापार एक युद्ध का मैदान।
इससे सबसे ज्यादा नुकसान किसे हो रहा है? भारत के छोटे exporters को—झींगा किसान, कपड़ा व्यापारी, हीरा और ज्वेलरी का कारोबार करने वाले। ये वो लोग हैं जिनकी रोज़ी-रोटी अमेरिकी बाज़ार पर टिकी थी। अब अचानक उनके प्रोडक्ट 50% महंगे हो गए हैं। अमेरिकी उपभोक्ताओं को भी चोट लग रही है, क्योंकि उन्हें वही सामान दोगुने दाम पर खरीदना पड़ रहा है। लेकिन असली झटका उन परिवारों को है जिनके लिए यह कारोबार जीवन का सहारा था।
अमेरिका की साख भी इन बेतुके Tariff से गिर रही है। पहले अमेरिका को “फ्री ट्रेड का चैंपियन” कहा जाता था। अब वही देश खुद अपनी बनाई वर्ल्ड ट्रेड ऑर्गेनाइज़ेशन की भावना के खिलाफ काम कर रहा है। भारत जैसे देश यह सोचने पर मजबूर हो गए हैं कि अगर अमेरिका साझेदार बनकर भी इस तरह का व्यवहार करता है, तो भरोसा किस पर किया जाए।
नवारो के इस रवैये ने अमेरिका को “अकेला” कर दिया। चीन और रूस तो दुश्मन थे ही, लेकिन यूरोप, कनाडा और भारत जैसे दोस्त भी अब शंका और दूरी की राह पर चल पड़े हैं। यह नवारो की रणनीति का सबसे बड़ा दोष था। उन्होंने दुश्मनों को तोड़ने की बजाय दोस्तों को भी दुश्मनों के खेमे में धकेल दिया।
भारत की जनता भी यह समझ चुकी है कि यह लड़ाई केवल आंकड़ों की नहीं, आत्मसम्मान की है। यही वजह है कि अब भारत की नीति साफ है—किसी भी धमकी या धौंस के आगे झुकना नहीं। जैसे 1974 और 1998 में परमाणु प्रतिबंध झेलकर भी भारत और मज़बूत होकर निकला था, वैसे ही अब भी निकलेगा।
ट्रंप और नवारो की जोड़ी ने दुनिया को दिखा दिया है कि कैसे Personal enmity, prejudice और गलत गणनाएं global economy को हिला सकती हैं। लेकिन इस खेल का अंत अमेरिका के लिए भी सुखद नहीं होगा। क्योंकि जब आप व्यापार को युद्ध बना देते हैं, तो जीत कोई नहीं पाता—सब हारते हैं।
भारत ने अब अपने Export बाज़ारों को विविधता देना शुरू कर दिया है। यूरोप, एशिया, अफ्रीका में नए रास्ते खोजे जा रहे हैं। घरेलू उद्योगों को प्रोत्साहन दिया जा रहा है। यही वजह है कि Expert कहते हैं—ट्रंप और नवारो की धमकियों से भारत झुकेगा नहीं, बल्कि और मज़बूत बनेगा।
यह कहानी सिर्फ़ Tariff की नहीं है। यह कहानी है एक “गुरु घंटाल” की, जिसने अपने उग्र विचारों से दोस्ती को दुश्मनी में बदला और अमेरिका को वैश्विक नेतृत्व से अलगाव की तरफ धकेल दिया। लेकिन भारत जैसे देश इसे केवल चुनौती नहीं, अवसर मान रहे हैं। अवसर आत्मनिर्भर बनने का, अवसर नए साझेदार खोजने का, और अवसर दुनिया को दिखाने का कि हम किसी की धौंस के आगे झुकने वाले नहीं।
Conclusion
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