Black money! स्विस बैंक से आई खुशखबरी? अरबों की वापसी से बदलेगी भारत की किस्मत! 2025

2019 की एक ठंडी सुबह, जब देश नींद से उठ ही रहा था, तभी स्विट्जरलैंड से एक खबर आई जिसने पूरे भारत को चौंका दिया। खबर थी कि भारतीयों की स्विस बैंकों में जमा राशि अचानक आसमान छूने लगी है। लेकिन असली सवाल ये था—क्या ये धन मेहनत की कमाई है या वर्षों से छिपाया गया वो Black money, जो देश की आंखों से ओझल था? और अगर हां, तो क्या सरकार ने उसे वापस लाने में कोई कामयाबी पाई? या फिर हर साल सिर्फ आंकड़ों के मायाजाल में उलझकर हम सच्चाई से दूर हो जाते हैं? आज हम इसी विषय पर गहराई में चर्चा करेंगे।

सबसे पहले आपको बता दें कि स्विस बैंकों में भारतीयों का पैसा कोई नई बात नहीं है। दशकों से यह एक रहस्यमयी मुद्दा रहा है। जहां आम आदमी की आंखों में उम्मीद होती है कि ये पैसा देश में लौटे और देश की तरक्की में लगे, वहीं सरकारें आंकड़ों और प्रक्रिया की बातें करके इसे तकनीकी दायरे में घुमा देती हैं। संसद में जब एक बार फिर 2024 में इस विषय पर सवाल उठा, तो पूरे देश की नजर इस बात पर टिक गई कि आखिर सरकार क्या कहेगी।

राज्यसभा में वित्त राज्य मंत्री पंकज चौधरी ने बताया कि 2024 में स्विस बैंकों में भारतीयों से जुड़ी जमा राशि में उछाल देखा गया है। करीब 37,600 करोड़ रुपये की भारी रकम का अनुमान है, जो पिछली तुलना में लगभग तीन गुना ज्यादा है। यह सुनकर एक तरफ कुछ लोग इसे देश की आर्थिक ताकत का संकेत मानते हैं, तो वहीं दूसरी तरफ एक बड़ा वर्ग इसे ब्लैक मनी के संदिग्ध प्रमाण के तौर पर देखता है।

लेकिन मंत्री ने साथ ही यह भी स्पष्ट किया कि स्विस नेशनल बैंक यानी SNB के जो आंकड़े मीडिया में आए हैं, वो सिर्फ सीधी जमाओं का ही हिस्सा नहीं हैं। इनमें विदेशी शाखाओं की जमाएं, इंटर-बैंक पेमेंट्स, और देनदारियों को भी जोड़ा गया है। यानी, यह मान लेना कि ये पूरी रकम “Black money” है, तथ्यात्मक रूप से गलत हो सकता है। लेकिन क्या इससे आम जनता की चिंता कम हो जाती है? शायद नहीं।

सरकार ने SNB डेटा के स्वरूप को विस्तार से समझाया। उसमें बताया गया कि यह डेटा बैंकिंग सिस्टम की व्यापक तस्वीर दिखाता है, जिसमें कई बार कॉर्पोरेट फंड्स, foreign investment, और कानूनी रूप से जमा की गई राशि भी शामिल होती है। यानी एक आम धारणा कि स्विस बैंक में पैसा मतलब ‘Black money’—वो हमेशा सही नहीं होती। लेकिन, फिर भी, ये सवाल कायम रहता है कि जब इतनी बड़ी रकम बाहर है, तो उसका देश के साथ कैसा संबंध है?

इस संदर्भ में सरकार ने एक और अहम जानकारी साझा की—AEOI यानी “ऑटोमैटिक एक्सचेंज ऑफ इन्फॉर्मेशन”। यह एक अंतरराष्ट्रीय समझौता है जिसके तहत स्विट्जरलैंड हर साल भारत को भारतीय निवासियों की वित्तीय जानकारी देता है। यह प्रक्रिया 2018 में शुरू हुई और पहली बार डेटा 2019 में मिला। तब से हर साल भारत को यह जानकारी मिल रही है। यानी अब सरकार के पास वो उपकरण मौजूद हैं जिनसे बाहर जमा रकम की सही पहचान और विश्लेषण किया जा सकता है।

अब आता है सबसे बड़ा सवाल—2022 से अब तक कितना Black money भारत वापस ला सका है? यह जानना जरूरी है क्योंकि सिर्फ जानकारी मिलना ही काफी नहीं होता, कार्रवाई भी होनी चाहिए। इसके जवाब में सरकार ने ‘ब्लैक मनी (अनअकाउंटेड इनकम) एक्ट, 2015’ यानी BMA का हवाला दिया।

इस अधिनियम के तहत 2015 में तीन महीने की एकमुश्त अनुपालन योजना चलाई गई थी। उस दौरान 684 खुलासों से 4,164 करोड़ रुपये की Undisclosed foreign assets सामने आई। इस पर सरकार ने 2,476 करोड़ रुपये टैक्स और जुर्माने के तौर पर वसूले। यह एक बड़ी शुरुआत थी, लेकिन फिर सवाल उठा कि क्या ये रफ्तार बनी रही?

सरकार ने आगे बताया कि 31 मार्च 2025 तक BMA के तहत कुल 1,021 असेसमेंट पूरे किए गए हैं, जिनसे कुल 35,105 करोड़ रुपये का टैक्स और जुर्माना वसूला गया है। इस प्रक्रिया में 163 अभियोजन शिकायतें भी दर्ज की गईं। यानी सरकार ने जहां से भी संकेत मिला, वहां से कार्रवाई की।

हालांकि एक बड़ी बात यह भी सामने आई कि अब तक सिर्फ 338 करोड़ रुपये ही टैक्स, ब्याज और जुर्माने के रूप में वसूल हो पाए हैं। यानी जितना कागज़ पर आंकड़ा है, उतना वसूली के स्तर पर नहीं है। और यही अंतर आम जनता के मन में संदेह और असंतोष को जन्म देता है।

अब सोचिए, यदि स्विस बैंक में जमा पैसा सच में वैध और टैक्स चुकाया हुआ है, तो क्या उसे लेकर इतनी खामोशी और गोपनीयता होनी चाहिए? क्या भारत सरकार को इस पैसे के हर स्रोत और उसकी पारदर्शिता की जानकारी सार्वजनिक नहीं करनी चाहिए? क्योंकि जब देश में लाखों लोग महंगाई और बेरोजगारी से जूझ रहे हों, तब विदेशी बैंकों में छिपे धन की खबरें केवल गुस्सा और हताशा ही बढ़ाती हैं।

साथ ही हमें यह भी समझना होगा कि स्विस बैंक में खाता रखना खुद में कोई अपराध नहीं है। कई बार भारतीय कंपनियां, एनआरआई, विदेशी नागरिक या अंतरराष्ट्रीय व्यापार करने वाले लोग वहां खाते खोलते हैं जो पूरी तरह वैध होते हैं। लेकिन जब यह खाते गोपनीय तरीके से खोले जाते हैं, और उन पर टैक्स नहीं दिया जाता—तभी वो “ब्लैक मनी” के घेरे में आ जाते हैं।

यही वजह है कि हर बार जब स्विस बैंकों की चर्चा होती है, तो एक छवि बन जाती है—एक ऐसे तिजोरी की, जिसमें भ्रष्टाचारियों का छिपाया गया खजाना रखा है। जबकि हकीकत इससे कहीं ज्यादा जटिल है। legal, tax, और अंतरराष्ट्रीय नियमों के जाल में उलझी इस सच्चाई को उजागर करना सरकार के लिए भी चुनौतीपूर्ण है।

लेकिन अब सवाल यह है कि क्या यह सरकार या पिछली सरकारें इस चुनौती से निपटने में पूरी तरह सक्षम रही हैं? क्योंकि देश में कई बार बड़े-बड़े घोटालों के आरोपी विदेश भागे, और कुछ के नाम पनामा पेपर्स या पेंडोरा पेपर्स जैसे अंतरराष्ट्रीय लीक में सामने आए। तो फिर आखिर यह कड़ी कार्यवाही क्यों नहीं दिखती?

2015 में जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने काले धन को लेकर कड़ा रुख अपनाया था, तब आम जनता को उम्मीद थी कि अब देश की बेशकीमती संपत्ति वापस आएगी। उस वक्त ‘स्विस बैंक से Black money वापस लाकर हर भारतीय को 15 लाख देने’ जैसे दावे भी लोकप्रिय हो गए थे। हालांकि सरकार ने बाद में साफ किया कि ऐसा कोई आधिकारिक बयान नहीं था, लेकिन इससे जनता की अपेक्षाओं की गंभीरता का अंदाजा जरूर मिलता है।

इस पूरी प्रक्रिया में एक बात और सामने आती है—जांच एजेंसियों की भूमिका। Income Tax Department, Directorate of Enforcement (ED), और अन्य जांच एजेंसियां अक्सर विदेशी बैंकों और खातों की जानकारी जुटाने में सालों लगा देती हैं। इसके पीछे कानूनी प्रक्रिया, अंतरराष्ट्रीय सहयोग और कूटनीतिक पहल की जटिलताएं भी हैं। लेकिन आम आदमी इतना जानना चाहता है—क्या वाकई कोई नतीजा निकला?

आज भी संसद में जब कोई सांसद इस विषय पर सवाल करता है, तो जवाब में सरकार आंकड़ों की ढाल लेकर खड़ी हो जाती है। लेकिन इन आंकड़ों से न तो देश की ग़रीबी मिटती है, न विकास की रफ्तार बढ़ती है। क्योंकि जब तक विदेशी बैंकों में जमा अवैध पैसा देश की अर्थव्यवस्था में वापस नहीं आता, तब तक विकास सिर्फ योजनाओं में सीमित रह जाएगा।

इसीलिए अब समय आ गया है कि सरकार इस विषय पर दो कदम आगे बढ़ाए। पारदर्शिता के साथ हर साल सार्वजनिक रूप से बताया जाए कि कितने लोगों की विदेशी संपत्ति की जांच हुई, कितनों पर कार्रवाई हुई और कितना पैसा वसूल हुआ। इससे जनता को भरोसा मिलेगा और देश की वित्तीय ईमानदारी मजबूत होगी।

इसका एक दूसरा पहलू यह भी है कि अब दुनिया डिजिटल होती जा रही है। टैक्स चोरी और पैसा छुपाना अब पहले जैसा आसान नहीं रहा। AEOI जैसे समझौते, FATCA जैसे अमेरिकी कानून, और OECD की पहल के कारण अब ग्लोबल लेवल पर भी पारदर्शिता बढ़ रही है। लेकिन भारत को इस अवसर का लाभ उठाकर अपनी नीति और निगरानी प्रणाली को और सशक्त बनाना होगा।

आख़िर में सवाल यही है—क्या सरकार अपने नागरिकों से जुड़ी विदेशी संपत्ति पर निगरानी रखकर देश के विकास के लिए उसका लाभ उठा सकती है? क्या वो दिन आएगा जब हमें स्विस बैंक की चर्चा किसी घोटाले के संदर्भ में नहीं, बल्कि अंतरराष्ट्रीय व्यापार के सम्मानजनक उदाहरण के रूप में सुनने को मिले?

यह एक लंबी लड़ाई है, जिसमें नीति, तकनीक, कूटनीति और पारदर्शिता—सबकी जरूरत है। लेकिन इस लड़ाई में सबसे अहम है जनता का भरोसा। और वह भरोसा तब ही बनेगा जब सरकार सिर्फ जवाब नहीं देगी, बल्कि परिणाम दिखाएगी। क्योंकि आखिर में, यह मुद्दा सिर्फ पैसों का नहीं, देश की प्रतिष्ठा, ईमानदारी और भविष्य का है।

Conclusion

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