ज़रा सोचिए… आप सुबह उठते ही टीवी चालू करते हैं, स्क्रीन पर लाल रंग की गिरती हुई लाइनें, टूटते हुए शेयर और घबराए हुए Investors की भीड़ दिखाई देती है। कोई अपने बाल नोच रहा है, कोई अपने आख़िरी बचत पर हाथ मल रहा है। चारों तरफ़ अफरातफरी का माहौल है। यह दृश्य किसी छोटे-मोटे देश का नहीं, बल्कि दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था चीन का है।
एक ऐसा Stock market, जिसका कुल आकार 11 ट्रिलियन डॉलर यानी करीब 850 लाख करोड़ रुपये है। सुनने में यह बाज़ार किसी सोने की खान जैसा लगता है, लेकिन असलियत यह है कि Investors के लिए यह एक ऐसी जगह बन चुका है, जहाँ उम्मीदें टूटती हैं, सपने बिखरते हैं और पैसे जलकर राख हो जाते हैं। यही कारण है कि लोग इसे “नरक” कहने लगे हैं। आज हम इसी विषय पर गहराई में चर्चा करेंगे।
सबसे पहले आपको बता दें कि चीन का Stock market शुरू से ही एक अजीब राह पर चला आ रहा है। जहाँ अमेरिका जैसे देशों में Stock market Investors की कमाई और समृद्धि का ज़रिया बने, वहीं चीन ने इसे सरकार और कंपनियों के लिए पैसा जुटाने का साधन बना दिया।
यही सोच धीरे-धीरे इस बाजार की सबसे बड़ी खामी बन गई। वहाँ लिस्ट होने वाली कंपनियाँ मुख्य रूप से सरकार की नीतियों को लागू करने और अपने लिए फाइनेंस उठाने पर जोर देती रहीं, लेकिन Investors के हितों को कभी प्राथमिकता नहीं दी। यही वजह है कि चीन का Stock market Investors के भरोसे का गढ़ कभी बन ही नहीं पाया।
कई साल पहले जब चीन के बाजार में बुलबुला फूटा था, तब लाखों Investor बर्बाद हो गए। लोगों ने अपने घर गिरवी रखकर, अपनी पेंशन तक लगाकर शेयर खरीदे थे, लेकिन देखते ही देखते सब खत्म हो गया। उस दौर ने Investors की मानसिकता को पूरी तरह बदल दिया। उसके बाद से चीनी Investors ने Stock market को एक खतरनाक खेल मान लिया। वे इसे “बारूदी सुरंग” कहने लगे—जहाँ कदम रखते ही विस्फोट हो सकता है और आपकी मेहनत की कमाई चंद सेकंड में मिट्टी में मिल सकती है।
अगर हम अंतरराष्ट्रीय तुलना करें तो तस्वीर और भी भयावह दिखती है। ब्लूमबर्ग की रिपोर्ट बताती है कि अगर किसी ने दस साल पहले अमेरिका के S&P 500 इंडेक्स में 10,000 डॉलर लगाए होते, तो आज उसकी रकम तीन गुना से ज्यादा हो गई होती। वहीं, अगर वही पैसा चीन के CSI 300 इंडेक्स में लगाया होता, तो Investor को मुश्किल से 3,000 डॉलर का ही फायदा होता। यह फर्क सिर्फ नंबरों का नहीं है, यह फर्क दो देशों की नीतियों और Investors के प्रति रवैये का है। अमेरिका ने अपने Investors को भरोसा दिया, जबकि चीन ने उन्हें बार-बार निराश किया।
आज चीन का Stock market Investors के लिए एक डरावना सपना बन चुका है। लोग कहते हैं कि पैसा लगाना मतलब पैसा डुबाना। ज़रा सोचिए, कितनी अजीब बात है—दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा Stock market, जहाँ कंपनियाँ लिस्ट होती हैं, IPO आती हैं, लेकिन लोगों के लिए वह जुआ बनकर रह जाता है। IPO में पैसा लगाइए और कुछ महीनों बाद पता चलता है कि कंपनी डीलिस्ट हो गई। जो लोग सपनों के सहारे Investment करते हैं, वे कर्ज और निराशा के दलदल में फंस जाते हैं।
2022 में चीन दुनिया का सबसे बड़ा IPO बाजार बन गया था। सुनने में यह बहुत बड़ी सफलता लगती है, लेकिन इसके पीछे की हकीकत बेहद डरावनी है। वहाँ IPO की बाढ़ आई, कंपनियों ने अरबों रुपये उठाए, लेकिन उनमें से कई कंपनियाँ बाद में ढह गईं। उनके शेयरों की कीमतें जमीन पर आ गिरीं और Investor कंगाल हो गए। सोचिए, एक ऐसा बाजार जहाँ IPO का मतलब सफलता नहीं बल्कि धोखाधड़ी और तबाही हो। यही वजह है कि लोग इसे “Investment का कब्रिस्तान” कहने लगे हैं।
चीनी सरकार भी इन हालात से अनजान नहीं है। राष्ट्रपति शी जिनपिंग जानते हैं कि अगर लोग Investment नहीं करेंगे, तो अर्थव्यवस्था की रफ्तार थम जाएगी। वे घरेलू खर्च बढ़ाना चाहते हैं, वे चाहते हैं कि लोग अपनी जेब से पैसा निकालें और बाजार में लगाएँ। लेकिन असली समस्या यह है कि Investors का भरोसा टूट चुका है। लोग Investment करने से डर रहे हैं, खर्च करने से बच रहे हैं और बस बचत पर जोर दे रहे हैं। इससे उपभोग कम हो रहा है और देश की आर्थिक गतिविधियाँ धीमी पड़ रही हैं।
चीन की तकनीकी कंपनियों को आगे बढ़ाने के लिए भारी Investment चाहिए। आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस, इलेक्ट्रिक व्हीकल्स, और हाई-टेक सेक्टर्स में चीन को अमेरिका से मुकाबला करना है। लेकिन सवाल यही है कि जब आम Investor भरोसा ही नहीं कर रहा, तो पैसा कहाँ से आएगा? सरकार चाहे जितने सुधार लागू कर ले, जब तक Investor को यह यकीन नहीं होगा कि उसका पैसा सुरक्षित है और उसे रिटर्न मिलेगा, तब तक हालत सुधरना मुश्किल है।
सबसे बड़ी विफलता यह है कि चीन का Stock market Investors के हितों को कभी प्राथमिकता नहीं देता। खासकर जब सरकारी कंपनियाँ लिस्ट होती हैं, तो उनका असली मकसद सरकार के आदेशों का पालन करना होता है, न कि शेयरधारकों के हितों की रक्षा। ऐसे माहौल में Investor खुद को ठगा हुआ महसूस करता है। और जब ठगे जाने का एहसास गहरा होता है, तो धीरे-धीरे पूरा सिस्टम भरोसा खो देता है। यही कारण है कि Foreign investors भी अब चीन से दूरी बनाने लगे हैं।
यह स्थिति सिर्फ चीन तक सीमित नहीं रहती। चीन दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है, और अगर उसका Stock market डगमगाता है, तो उसके झटके पूरी दुनिया महसूस करती है। Foreign investors जब पैसा खींचते हैं तो अमेरिकी और यूरोपीय बाजारों पर भी असर पड़ता है। एशिया के बाकी देशों में भी अस्थिरता फैल जाती है। भारत जैसे देशों पर भी इसका असर पड़ता है, क्योंकि Foreign investors अपने पोर्टफोलियो में एक देश से पैसा निकालकर दूसरे में लगाते हैं। यानी चीन का Stock market सिर्फ चीनियों के लिए ही नहीं, पूरी दुनिया के लिए सिरदर्द बन चुका है।
फिर भी सवाल यही है—क्या इस समस्या का हल निकलेगा? चीन सरकार सुधार की कोशिशें कर रही है। IPO नियमों में बदलाव हो रहा है, कंपनियों पर निगरानी रखी जा रही है, Investors को आकर्षित करने की योजनाएँ बनाई जा रही हैं। लेकिन विशेषज्ञ मानते हैं कि जब तक मूल सोच नहीं बदलेगी, तब तक यह हालात नहीं सुधरेंगे। असली सुधार का मतलब होगा Investors को प्राथमिकता देना, उन्हें भरोसा दिलाना कि उनका पैसा सुरक्षित है। और जब तक यह नहीं होगा, तब तक चीन का Stock market Investors के लिए “नरक” ही बना रहेगा।
सोचिए, एक तरफ अमेरिका है, जहाँ Investor साल-दर-साल अमीर बनते जा रहे हैं। वहीं दूसरी तरफ चीन है, जहाँ Investor डर-डर कर जी रहे हैं। यह फर्क सिर्फ़ नीतियों का है। और यही फर्क चीन की सबसे बड़ी चुनौती है। अगर उसने इस चुनौती को नहीं समझा, तो आने वाले समय में उसका Stock market दुनिया का सबसे बड़ा सिरदर्द ही साबित होगा।
Conclusion
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