Robert Vadra की बेबाकी या साजिश? ईडी की जांच के बीच उनके आत्मविश्वास की कहानी! 2025

क्या आपने कभी किसी ऐसी गुत्थी के बारे में सुना है जो जितनी बार सुलझाने की कोशिश की जाए, उतनी ही उलझती चली जाती है? एक ऐसा मामला, जो कभी काग़ज़ों पर था, फिर कोर्ट की फाइलों में दर्ज हुआ और अब सत्ता के गलियारों में गूंज बनकर फैल रहा है। Robert Vadra से जुड़ा हर नया खुलासा जैसे देश की राजनीतिक नब्ज को छू जाता है।

जब-जब सरकारें बदलती हैं, जब-जब संसद में टकराव बढ़ता है, जब-जब चुनाव पास आते हैं, तब-तब ये नाम फिर से खबरों की सुर्खियां बन जाता है। इस बार फिर वही हुआ—ईडी ने एक बार फिर Robert Vadra को पूछताछ के लिए तलब किया और देश भर की नज़रें एक बार फिर इस मामले पर टिक गईं। आज हम इसी विषय पर गहराई में चर्चा करेंगे।

यह घटना कोई सामान्य कानूनी प्रक्रिया नहीं थी। दिल्ली की सड़कों पर जैसे ही सुबह की हलचल शुरू हुई, कैमरों की फ्लैश लाइट्स, सुरक्षा बलों की घेराबंदी और मीडिया की गाड़ियों का जमावड़ा इस ओर इशारा कर रहा था कि कुछ बड़ा होने वाला है। ठीक उसी वक्त, 56 वर्षीय Robert Vadra अपने सेंट्रल दिल्ली स्थित घर से बाहर निकलते हैं और दो किलोमीटर का पैदल सफर तय कर सीधे ईडी दफ्तर पहुंचते हैं। यह दृश्य महज औपचारिक नहीं था—यह एक स्टेटमेंट था, एक राजनीतिक संदेश। यह दिखाने की कोशिश थी कि वे न डरते हैं, न छिपते हैं। लेकिन क्या यह केवल एक प्रतीकात्मक यात्रा थी या इसके पीछे कोई रणनीति भी छिपी है?

जिस मामले में यह पूछताछ हो रही है, वह कोई आज का नहीं, बल्कि 2008 से जुड़ा है—हरियाणा के शिकोहपुर गांव की एक ज़मीन डील का मामला। आरोप हैं कि Robert Vadra की कंपनी स्काईलाइट हॉस्पिटैलिटी प्राइवेट लिमिटेड ने, ओंकारेश्वर प्रॉपर्टीज से 7.5 करोड़ रुपये में 3.5 एकड़ जमीन खरीदी थी। ऐसा लग सकता है कि यह सामान्य कारोबारी सौदा था, लेकिन जांच एजेंसियों का मानना है कि इस डील की नींव में ‘गैर-कानूनी विशेषाधिकार’ छुपा था। इस जमीन का म्यूटेशन असामान्य रूप से फास्ट-ट्रैक तरीके से किया गया, और जल्द ही हरियाणा की तत्कालीन सरकार ने इसे कमर्शियल कॉलोनी के तौर पर डेवलप करने की अनुमति दे दी।

यह मंजूरी सबकुछ बदल देती है। एक आम कृषि भूमि जो महज कुछ करोड़ों में खरीदी गई थी, देखते ही देखते उसकी कीमतें कई गुना बढ़ गईं। Vadra की कंपनी ने इस ज़मीन को 58 करोड़ रुपये में रियल एस्टेट की दिग्गज कंपनी डीएलएफ को बेच दिया। और इसके बाद सरकार ने उसी परियोजना का लाइसेंस डीएलएफ को ट्रांसफर कर दिया। यहां सवाल उठता है—क्या यह सब सिर्फ एक संयोग था, या किसी सोची-समझी रणनीति का हिस्सा? आरोप हैं कि यह एक सुनियोजित सौदा था, जिसमें सरकारी शक्ति और निजी लाभ का अद्भुत मेल हुआ।

इस प्रकरण की शुरुआत उस समय हुई जब एक बेबाक और ईमानदार आईएएस अधिकारी, अशोक खेमका ने इस जमीन डील को अपने रडार पर लिया। उन्होंने न सिर्फ इस पर सवाल उठाए, बल्कि फाइलों की दोबारा जांच करवाई और सारे तथ्यों को सामने लाया। खेमका का नाम तब पहली बार देशभर में जाना गया जब उन्होंने सत्ता के बेहद करीब माने जाने वाले व्यक्ति के खिलाफ कड़ा रुख अपनाया। इसी वजह से वे तबादलों की राजनीति का शिकार भी हुए, लेकिन उन्होंने पीछे हटने से इनकार कर दिया। और यहीं से इस केस की असली शुरुआत हुई।

यह मामला धीरे-धीरे केवल कानूनी दायरे तक सीमित नहीं रहा, बल्कि देश की सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी कांग्रेस पर एक स्थायी दाग बन गया। चुनाव दर चुनाव, बीजेपी ने इस केस को उठाया और कांग्रेस को “भ्रष्टाचार की जननी” कहकर घेरा। और हर बार जब Vadra को ईडी या किसी जांच एजेंसी से नोटिस मिलता है, तो इस पूरे घटनाक्रम को एक नया मोड़ मिल जाता है।

मामले में शामिल नाम भी अब बहुचर्चित हो चुके हैं। सीसी थंपी, एक यूएई स्थित व्यापारी, और संजय भंडारी, जो एक ब्रिटिश हथियार डीलर हैं, उनके रिश्तेदार सुमित चड्ढा—इन सभी के नाम ईडी की चार्जशीट में दर्ज हैं। दिसंबर 2023 में दाखिल की गई चार्जशीट में Robert Vadra और प्रियंका गांधी Vadra का नाम प्रत्यक्ष रूप से नहीं है, लेकिन उनकी भूमि खरीद-बिक्री की डिटेल्स शामिल हैं, जो ये इशारा करती हैं कि जांच की निगाहें किस ओर केंद्रित हैं।

ईडी के मुताबिक, 2005 से 2008 के बीच रियल एस्टेट एजेंट एचएल पाहवा के जरिए, अमीरपुर गांव की जमीन खरीदने-बेचने की प्रक्रिया को अंजाम दिया गया। आरोप है कि Vadra ने यहां 40 एकड़ जमीन तीन टुकड़ों में खरीदी और फिर वही जमीन पाहवा को वापस बेच दी। प्रियंका गांधी ने भी 5 एकड़ की कृषि भूमि 2006 में खरीदी और 2010 में बेच दी। सवाल यह उठता है कि इतने कम समय में यह भूमि लेनदेन क्यों हुआ? और क्यों इन्हीं लोगों के बीच हुआ?

Robert Vadra का कहना है कि वे एक कारोबारी हैं और यह उनका Legitimate investment था। उनका दावा है कि ईडी ने उन्हें पिछले 20 सालों में 15 बार बुलाया है, हर बार घंटों तक पूछताछ हुई है, और उन्होंने 23,000 से अधिक दस्तावेज़ जांच एजेंसी को सौंपे हैं। फिर भी उन्हें बार-बार बुलाने का क्या मतलब है? Vadra ने इसे साफ तौर पर “राजनीतिक प्रतिशोध” कहा है। उन्होंने यह भी कहा कि जब भी वे या उनके परिवार के सदस्य सामाजिक मुद्दों पर बोलते हैं, तो जांच एजेंसियों की कार्रवाइयां तेज हो जाती हैं।

इस बार उन्हें 8 अप्रैल को समन भेजा गया था, लेकिन उन्होंने एक नई तारीख की मांग की थी। एजेंसी ने उसे स्वीकार किया और एक बार फिर उन्हें पूछताछ के लिए बुलाया गया। पूछताछ से पहले मीडिया से बात करते हुए Vadra ने कहा, “हर बार मुझे तब निशाना बनाया जाता है जब मैं अल्पसंख्यकों की आवाज़ उठाता हूं। जब संसद में राहुल गांधी सरकार से सवाल करते हैं, तो पूरी ताकत से उन्हें चुप कराने की कोशिश होती है। यही कहानी यहां भी दोहराई जा रही है।”

अब सवाल यह है कि आगे क्या होगा? क्या Vadra के खिलाफ कोई ठोस कानूनी कार्रवाई होगी? या यह मामला फिर से राजनीतिक भाषणों और प्रेस कॉन्फ्रेंस तक ही सीमित रहेगा? ईडी इस बार Vadra के बयान रिकॉर्ड कर रही है और साथ ही फाइनेंशियल ट्रांजैक्शन का फॉरेंसिक विश्लेषण कर रही है। लेकिन जब तक जांच एजेंसी ठोस सबूत लेकर अदालत में नहीं जाती, तब तक यह सब सिर्फ एक ‘हाई प्रोफाइल सस्पेंस ड्रामा’ बनकर रह जाता है।

यह मामला केवल एक व्यक्ति का नहीं है—यह उस राजनीतिक व्यवस्था का प्रतीक है, जहां जांच एजेंसियों की निष्पक्षता पर सवाल उठाए जाते हैं। जहां सत्ता के समीप बैठे लोग कभी जांच की परिधि में आ जाते हैं और कभी राजनीतिक ढाल में छुप जाते हैं। और जब न्याय व्यवस्था, राजनीतिक चालों से प्रभावित होती दिखाई देती है, तब आम जनता का भरोसा डगमगाने लगता है।

इसलिए जब अगली बार Robert Vadra ईडी दफ्तर की ओर पैदल चलते दिखें, तो इसे सिर्फ एक दृश्य ना समझिए—यह एक संकेत है कि देश की राजनीति में अभी भी बहुत कुछ अधूरा है। बहुत सी फाइलें अभी खुलनी बाकी हैं, बहुत से दरवाजे अभी भी बंद हैं, और सवालों की सूची अभी लंबी है।

Conclusion

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