Rare Earth पर अब भारत-जापान की नजर! चीन की बादशाहत को टक्कर देने आई दमदार जोड़ी। 2025

जब एक देश चुपचाप आपकी रीढ़ की हड्डी से खेलना शुरू कर दे, तो आपको पता भी नहीं चलता कि कब आप घुटनों पर आ गए। यही किया है चीन ने—दुनिया के सबसे कीमती संसाधनों पर कब्जा जमाकर, पूरी ग्लोबल इंडस्ट्री को अपनी मर्जी का गुलाम बना दिया। जब हर मोबाइल फोन, हर इलेक्ट्रिक कार और हर उपग्रह चीन से आने वाले Rare Earth तत्वों पर निर्भर हो, तो किसी भी देश की स्वतंत्रता सिर्फ दिखावा बन जाती है।

लेकिन अब भारत और जापान इस चुपचाप हो रहे युद्ध के खिलाफ एकजुट हो चुके हैं। और इस बार मैदान में उतर चुके हैं मुकेश अंबानी जैसे दिग्गज, जो न केवल भारत के सबसे अमीर लोगों में शामिल हैं, बल्कि Global रणनीति को भी आकार देने में सक्षम हैं। सवाल अब सिर्फ व्यापार का नहीं, रणनीति, आत्मनिर्भरता और Global सत्ता संतुलन का है। और इस कहानी के केंद्र में है—Rare Earth मैटेरियल्स, वो अदृश्य खजाना जो आपकी हर मोबाइल, हर कार और हर बैटरी में छिपा है। आज हम इसी विषय पर गहराई में चर्चा करेंगे।

चीन ने हाल ही में Rare Earth मैटेरियल्स की सप्लाई पर सख्त नियंत्रण लागू किया है, और इससे भारत की ऑटो और इलेक्ट्रॉनिक्स इंडस्ट्री में अफरातफरी मच गई है। इन मैटेरियल्स के बिना स्मार्टफोन, लैपटॉप, इलेक्ट्रिक व्हीकल्स और यहां तक कि रक्षा उपकरणों का निर्माण भी मुश्किल हो जाता है।

और जब उत्पादन ठप हो, तो पूरी अर्थव्यवस्था की सांसें अटक जाती हैं। यह संकट केवल तकनीकी क्षेत्र तक सीमित नहीं है, बल्कि यह रोजगार, Investment और आर्थिक स्थिरता को भी प्रभावित करता है। लेकिन भारत अब इस खतरे से आंख नहीं चुरा रहा। जापान के साथ मिलकर एक ऐसा गठबंधन बनाया जा रहा है, जो चीन की इस मोनोपॉली को तोड़ सके और Global सप्लाई चेन को एक नया संतुलन दे सके।

जापान की एक दर्जन से अधिक दिग्गज कंपनियां इस समय दिल्ली में जमी हुई हैं। मित्सुबिशी केमिकल्स, सुमिमोतो मेटल्स एंड माइनिंग, और पैनासोनिक जैसी बड़ी कंपनियां भारत की कंपनियों के साथ रणनीतिक साझेदारी के लिए तैयार हैं। ये सभी ‘बैटरी एसोसिएशन ऑफ सप्लाई चेन’ यानी BASC का हिस्सा हैं। इनका मिशन है—भारत के साथ मिलकर एक ऐसी सप्लाई चेन बनाना, जो चीन पर निर्भर न हो। ये साझेदारी केवल संसाधनों की नहीं, बल्कि तकनीकी ज्ञान, इनोवेशन और उत्पादन प्रक्रियाओं की भी है। और ये सिर्फ एक व्यापारिक साझेदारी नहीं है, बल्कि एक भू-राजनीतिक रणनीति है, जो Global सत्ता के समीकरण को बदल सकती है।

भारत की ओर से रिलायंस इंडस्ट्रीज़ और अमारा राजा जैसी कंपनियां इस मौके को भुनाने के लिए पूरी तरह तैयार हैं। रिलायंस, जो हर उभरते सेक्टर में अपनी पैठ बना चुकी है, अब जापानी टेक्नोलॉजी के साथ मिलकर भारत में लीथियम-आयन बैटरी, और क्रिटिकल मिनरल्स की सप्लाई चेन को मजबूत करने की दिशा में तेज़ी से काम कर रही है। ये कंपनियां सिर्फ व्यापार नहीं कर रहीं, बल्कि आने वाले दशकों के लिए भारत की ऊर्जा सुरक्षा की नींव रख रही हैं। यह साझेदारी भारत के स्टार्टअप इकोसिस्टम, मैन्युफैक्चरिंग क्षमता और विदेश नीति को भी मजबूती देने वाली है।

भारत सरकार भी इस रणनीतिक लड़ाई में पीछे नहीं है। वित्त मंत्रालय ने साफ कहा है कि क्रिटिकल मिनरल्स की सप्लाई को सुरक्षित करना अब शीर्ष प्राथमिकता है। सरकार चाहती है कि भारत न सिर्फ उपभोक्ता बना रहे, बल्कि निर्माता भी बने। इसके लिए उत्पादन से लेकर प्रोसेसिंग तक, हर स्तर पर भारत की मौजूदगी दर्ज की जाए। जापानी कंपनियों के पास टेक्नोलॉजी है, भारत के पास मार्केट और युवा संसाधन—अगर दोनों का सही तालमेल हो जाए, तो यह गठबंधन चीन की एकाधिकारवादी नीतियों को गहरी चुनौती दे सकता है। इसके लिए सरकार ने नीतिगत सुधारों, टैक्स में राहत और इन्फ्रास्ट्रक्चर अपग्रेडेशन जैसी योजनाएं भी शुरू की हैं।

लेकिन इस मिशन की राह आसान नहीं है। जानकारों का कहना है कि चीन को इस क्षेत्र में हराना किसी पहाड़ पर चढ़ने से कम नहीं है। चीन न सिर्फ कच्चा माल निकालता है, बल्कि उसकी रिफाइनिंग और प्रोसेसिंग में भी अग्रणी है। ग्लोबल लीथियम बैटरी प्रोडक्शन में चीन की हिस्सेदारी 80 फीसदी है। जापान 10 फीसदी के साथ दूसरे नंबर पर है। भारत फिलहाल इस दौड़ में कहीं पीछे है। अभी भारत की अधिकतर ईवी कंपनियां अपनी बैटरियां चीन से ही आयात करती हैं। यह स्थिति भारत को तकनीकी रूप से निर्भर बनाती है, और यही बदलाव की सबसे बड़ी जरूरत है। और जब तक वैकल्पिक सप्लाई चेन तैयार नहीं होती, तब तक आत्मनिर्भरता एक सपना ही रहेगी।

इसके अलावा, भारत और जापान में उत्पादन की लागत चीन की तुलना में 20 से 30 फीसदी ज्यादा हो सकती है। वजह है—कच्चे माल की निर्भरता, प्रोसेसिंग टेक्नोलॉजी की सीमाएं और स्केल की कमी। हालांकि जापानी कंपनियों के पास हाइब्रिड टेक्नोलॉजी में जबरदस्त अनुभव है, लेकिन भारत को पूरी वैल्यू चेन में उतरने के लिए भारी Investment और नीति समर्थन की जरूरत होगी। यही वो मोड़ है जहां से भारत आत्मनिर्भरता की ओर बढ़ सकता है या फिर एक बार फिर Foreign imports पर निर्भर रह सकता है। तकनीकी आत्मनिर्भरता केवल आर्थिक लाभ नहीं देती, बल्कि वह एक देश को रणनीतिक मजबूती भी देती है।

सरकार इस चुनौती को अच्छी तरह समझती है। यही वजह है कि हाल के महीनों में भारत ने कई Mining परियोजनाओं को हरी झंडी दी है। देश के भीतर लिथियम और अन्य क्रिटिकल मिनरल्स की खोज को प्राथमिकता दी जा रही है। साथ ही, भारत विदेशों में भी Mining ब्लॉक्स खरीदने की कोशिश कर रहा है—चाहे वो अर्जेंटीना हो, ऑस्ट्रेलिया या अफ्रीकी देश। रणनीति यह है कि संसाधन भी हों, तकनीक भी और बाजार भी—तभी जाकर आत्मनिर्भरता का सपना साकार हो सकता है। यह पूरी प्रक्रिया न केवल भारत की अर्थव्यवस्था को मजबूत करेगी, बल्कि उसे Global उत्पादन हब में बदलने की दिशा में भी एक कदम होगा।

अब इस पूरी पहेली में मुकेश अंबानी जैसे दिग्गज का नाम और भी अहम हो जाता है। अंबानी सिर्फ एक उद्योगपति नहीं, बल्कि ट्रेंड सेट्टर हैं। जब उन्होंने टेलीकॉम में कदम रखा, तो पूरा सेक्टर हिल गया। अब वे बैटरी, ग्रीन एनर्जी और इलेक्ट्रिक मोबिलिटी के क्षेत्र में Investment कर रहे हैं। उनका विजन है—भारत को क्लीन एनर्जी में दुनिया का अगुवा बनाना। और जापानी कंपनियों के साथ मिलकर वे एक ऐसी गाथा लिख सकते हैं, जो न सिर्फ भारत को आत्मनिर्भर बनाएगी, बल्कि उसे दुनिया के शीर्ष ऊर्जा राष्ट्रों में खड़ा करेगी। अंबानी की रणनीति में केवल लाभ नहीं, बल्कि राष्ट्रनिर्माण की भावना भी शामिल है।

अगर सब कुछ योजना के मुताबिक चला, तो आने वाले वर्षों में भारत और जापान मिलकर एक नया इंडस्ट्रियल ब्लॉक बना सकते हैं—एक ऐसा ब्लॉक जो Rare Earth मैटेरियल्स, बैटरी टेक्नोलॉजी और ग्रीन एनर्जी के क्षेत्र में चीन की पकड़ को कमजोर कर सकेगा। यह सिर्फ व्यापार नहीं, एक शांत युद्ध है—जहां बंदूकें नहीं, रणनीति, टेक्नोलॉजी और साझेदारी हथियार होंगे। और इस युद्ध में जीत उन्हीं की होगी, जो आज सही दिशा में कदम उठाएंगे। यह लड़ाई किसी सेना की नहीं, बल्कि आर्थिक बुद्धिमत्ता की है—जिसमें विजेता वही होगा, जो दूरदृष्टि और धैर्य से काम लेगा।

Conclusion

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