सोचिए… एक ऐसा पड़ोसी, जो आज आपके हर कदम पर शक करता है, आपको नुकसान पहुँचाने की साज़िश रचता है, और बार-बार ज़ख्म देने से बाज नहीं आता… कभी वही पड़ोसी, एक नवजात देश की तरह, आपकी चौखट पर खड़ा था। उसके पास न संसाधन थे, न अनुभव, न बुनियादी ढांचा, और न ही अर्थव्यवस्था को चलाने का कोई ठोस आधार।
तब आपने—हाँ, आपने ही—अपना दिल बड़ा करके, अपने हिस्से के धन, जमीन, पानी और यहां तक कि सेना का हिस्सा भी उसकी झोली में डाल दिया। यह कोई किस्सा नहीं, बल्कि हमारे इतिहास का वह सच्चा पन्ना है, जिसे पढ़ते हुए गर्व और पछतावा दोनों एक साथ महसूस होते हैं। गर्व इस बात पर कि हमने अपने मानवतावादी मूल्यों को निभाया… और पछतावा इस पर कि हमारी यह उदारता, कृतज्ञता में नहीं, बल्कि दुश्मनी में बदली। आज हम इसी विषय पर गहराई में चर्चा करेंगे।
साल 1947—अंग्रेजी हुकूमत का अंत करीब था। पूरे उपमहाद्वीप में हलचल थी, लोग आने वाले कल को लेकर उत्सुक भी थे और डरे हुए भी। एक ओर भारत अपनी आज़ादी के स्वागत में रंगने को तैयार था, तो दूसरी ओर बंटवारे की तलवार ने भाई को भाई से, और मिट्टी को मिट्टी से अलग करने की तैयारी कर ली थी।
लेकिन यह सिर्फ खींची हुई एक सीमा रेखा की कहानी नहीं थी। यह उस विरासत के बंटवारे की कहानी थी, जो सदियों के श्रम, खून और पसीने से बनी थी—रेल की पटरियों से लेकर पानी की धाराओं तक, सरकारी दफ्तरों से लेकर सेना के शस्त्रागार तक, हर चीज़ को दो हिस्सों में बांटना था।

अंग्रेजों ने इस कठिन काम के लिए ‘पार्टिशन कॉन्सिल’ बनाई। यह सिर्फ एक समिति नहीं थी, बल्कि दोनों देशों की किस्मत लिखने वाली एक मेज थी, जिसके चारों ओर भारत और Pakistan के प्रतिनिधि बैठते, बहस करते, झगड़ते, समझौते करते और अंत में एक-एक संपत्ति का हिसाब लगाते। यहां बैठकर यह तय होता कि किस देश को कितनी ज़मीन मिलेगी, कौन से हथियार किसके पास जाएंगे, कौन से रेलवे इंजन किस देश की पटरियों पर दौड़ेंगे, और यहां तक कि किस देश को कितना पानी मिलेगा।
सबसे पहले बात हुई पैसों की। तय हुआ कि Pakistan को ब्रिटिश भारत की वित्तीय संपत्तियों में से 75 करोड़ रुपये दिए जाएंगे। उस समय यह रकम आज के अरबों रुपये के बराबर थी। भारत ने तुरंत 20 करोड़ रुपये दे दिए, ताकि नया देश अपना प्रशासन और बुनियादी ढांचा खड़ा कर सके।
बाकी 55 करोड़ रुपये बाद में देने का वादा किया गया। लेकिन किस्मत ने जैसे मज़ाक कर दिया—इसी दौरान 1947 से 48 में Pakistan ने कश्मीर पर हमला कर दिया। भारत में गुस्सा भड़क उठा, संसद और सड़कों दोनों पर आवाज़ें उठीं—“जो देश हम पर गोलियां चला रहा है, उसे हम पैसे क्यों दें?” माहौल इतना गरम था कि इस भुगतान को रोकने की मांग जोर पकड़ने लगी।
लेकिन तभी, महात्मा गांधी ने अपने अडिग सिद्धांतों पर डटे रहते हुए कहा कि भुगतान रोका नहीं जाना चाहिए। उनके लिए यह पैसा सिर्फ एक लेन-देन नहीं था, बल्कि दोनों देशों के बीच सहयोग और विश्वास की एक उम्मीद थी। गांधी का मानना था कि अगर शुरुआत में ही विश्वास तोड़ दिया गया, तो दोनों देशों के रिश्ते हमेशा के लिए ज़हर बन जाएंगे। आज, उनके इस फैसले पर मतभेद हो सकते हैं, लेकिन उस वक्त यह नैतिकता और आदर्शवाद की सबसे बड़ी मिसालों में से एक था।
इतिहासकार पल्लवी राघवन लिखती हैं कि इसके अलावा ब्रिटिश भारत के पास ब्रिटेन में जमा ‘स्टर्लिंग बैलेंस’ भी थे। यह वह राशि थी, जो भारत ने द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान ब्रिटेन को कर्ज के रूप में दी थी। इन बैलेंस का भी बंटवारा हुआ और Pakistan को उसका हिस्सा मिला। भारत ने यह सोचकर यह सब स्वीकार किया कि एक सक्षम Pakistan पूरे क्षेत्र के लिए स्थिरता लाएगा। लेकिन यह उम्मीद कितनी नासमझ थी, यह आने वाले सालों में साबित हो गया।
बंटवारा सिर्फ पैसों पर खत्म नहीं हुआ। ब्रिटिश भारतीय सेना का लगभग 45% हिस्सा Pakistan को मिला। सोचिए, यह वही समय था जब भारत खुद अपनी सीमाओं की सुरक्षा के लिए संघर्ष कर रहा था। फिर भी, भारत ने टैंक, तोपें, गोला-बारूद, हथियार, यहां तक कि Military training institutes को भी Pakistan के हवाले कर दिया। यह मानो एक ऐसा सैनिक भाई था, जिसने अपनी ढाल और तलवार भी उस भाई को दे दी, जिसके साथ कल को युद्ध भी होना था।
प्रशासनिक सेवाओं का भी बंटवारा हुआ। इंडियन सिविल सर्विस के अधिकारियों को यह चुनने का अधिकार दिया गया कि वे भारत में रहेंगे या Pakistan जाएंगे। अधिकांश अनुभवी अधिकारी भारत में रहना चाहते थे, जिससे Pakistan के प्रशासन में अनुभव की कमी रह गई। लेकिन जो भी अधिकारी वहां गए, उन्हें पूरी जिम्मेदारी और संसाधनों के साथ Pakistan को सौंप दिया गया। यह इस बात का प्रमाण था कि भारत शुरू में सचमुच चाहता था कि उसका पड़ोसी अपने पैरों पर खड़ा हो सके।
इसके बाद आया फाइलों और अभिलेखों का मामला। आप सोच सकते हैं कि सरकारी रिकॉर्ड और दस्तावेज भी कितने महत्वपूर्ण होते हैं—वे सिर्फ कागज़ नहीं, बल्कि एक देश के प्रशासनिक इतिहास और अधिकारों के सबूत होते हैं। बंटवारे के समय पंजाब और बंगाल के विभाजित क्षेत्रों से संबंधित दस्तावेज Pakistan को दिए गए। यह भी एक बड़ी रियायत थी, क्योंकि इससे नए देश को अपने कानूनी और प्रशासनिक ढांचे को खड़ा करने में मदद मिली।
रेलवे का विभाजन भी आसान नहीं था। तय हुआ कि पाकिस्तानPakistan के हिस्से में आने वाले रेलवे ट्रैक, स्टेशन, इंजन और डिब्बे उसके होंगे। भारत ने अनुपात के अनुसार रेल इंजन और डिब्बे सौंपे, मरम्मत सुविधाओं का हिस्सा दिया, और यह सुनिश्चित किया कि दोनों देशों की रेल व्यवस्था शुरू में किसी रुकावट का सामना न करे। डाक और टेलीग्राफ सेवाएं भी इसी तरह बांटी गईं—जो डाकघर और संचार सुविधाएं Pakistan के भूभाग में थीं, उन्हें उसका अधिकार दे दिया गया।
लेकिन सबसे संवेदनशील मामला था पानी का। पंजाब के बंटवारे के साथ ही सिंधु नदी प्रणाली का भविष्य एक बड़ा सवाल बनकर खड़ा हो गया। पानी किसी भी देश की जीवनरेखा है, और यहां मामला था पांच नदियों के पानी का। 1947 में कोई औपचारिक संधि नहीं हुई थी, लेकिन भारत ने बड़े दिल से Pakistan को पानी की आपूर्ति जारी रखी। यह वही उदारता थी, जिसने आगे चलकर 1960 की सिंधु जल संधि की नींव रखी।
पलायन के बाद छोड़ी गई संपत्तियों का भी निपटारा हुआ। इसे ‘इवैक्यूई प्रॉपर्टी’ कहा गया। भारत ने उन मुस्लिम संपत्तियों का नियंत्रण Pakistan को दिया, जो भारत में रह गई थीं, और पाकिस्तान ने हिंदुओं व सिखों की छोड़ी हुई संपत्तियों का प्रबंधन किया। हालांकि इस प्रक्रिया में विवाद भी हुए, लेकिन यह शुरुआती दौर में सहयोग का एक उदाहरण था।
पाकिस्तान को ब्रिटिश भारत का लगभग 23% भूभाग मिला—पश्चिमी पाकिस्तान और पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) दोनों। यह वितरण Religious pluralism, administrative boundaries और भू-राजनीतिक कारणों पर आधारित था। लेकिन यही 23% भूभाग, अगले दशकों में भारत के लिए सुरक्षा चुनौतियों का स्रोत बना।
पार्टिशन कॉन्सिल की बैठकों में प्रतिनिधि अक्सर घंटों बहस करते, कभी समझौते पर पहुंचते, तो कभी नाराज़ होकर उठ जाते। सैन्य उपकरणों की गुणवत्ता, वित्तीय भुगतान का समय, पानी का बंटवारा, प्रशासनिक अधिकारियों की कमी—इन सब पर तीखी चर्चा होती। लेकिन कश्मीर विवाद की छाया ने इन कोशिशों को कमजोर कर दिया।
आज, जब हम पीछे मुड़कर देखते हैं, तो यह साफ समझ आता है कि भारत ने पाकिस्तान को जो कुछ भी दिया—चाहे वह पैसा हो, सेना हो, पानी हो, ज़मीन हो या प्रशासनिक आधार—उसका नतीजा हमें दुश्मनी और आतंक के रूप में मिला। यह इतिहास सिर्फ एक अध्याय नहीं, बल्कि एक चेतावनी है—उदारता तभी काम करती है, जब सामने वाला उसका सम्मान करे।
Conclusion
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