आर्थिक तौर पर कंगाल… foreign currency reserves लगभग खत्म… महंगाई बे-लगाम… और फिर भी Pakistan हर बार किसी न किसी अंतरराष्ट्रीय संस्था से नया फंड हासिल कर ही लेता है। सवाल ये उठता है—आख़िर कौन है जो बार-बार Pakistan को पैसा देता है? और सबसे अहम सवाल… क्या ये पैसा वाकई देश की जनता की भलाई के लिए खर्च होता है? या फिर ये धनराशि किसी और दिशा में बहा दी जाती है—जहां से नफरत, आतंक और अस्थिरता पनपती है? आज हम उसी रहस्य से पर्दा उठाएंगे।
Pakistan की आर्थिक हालत किसी से छिपी नहीं है। वहां का foreign currency reserves एक समय ऐसा भी था कि, महज दो-तीन हफ्तों के Import के लायक डॉलर भी नहीं बचे थे। पेट्रोल से लेकर दवाइयों तक की कमी, बढ़ती बेरोजगारी और गिरती रुपये की कीमत ने पूरे देश को हिला कर रख दिया। लेकिन हर बार, जैसे ही देश डूबने लगता है, कोई न कोई अंतरराष्ट्रीय संस्था उसके लिए बेलआउट पैकेज ले आती है। और यह सिलसिला दशकों से चल रहा है।
सबसे बड़ा नाम है—IMF यानी इंटरनेशनल मॉनिटरी फंड। IMF अब तक पाकिस्तान को कई बार बेलआउट पैकेज दे चुका है। हाल ही में जुलाई 2023 में IMF ने पाकिस्तान को 3 बिलियन डॉलर का स्टैंडबाय अरेंजमेंट भी मंजूर किया। ये पैसे Pakistan की अर्थव्यवस्था को संभालने, जनता को राहत देने, और महंगाई पर नियंत्रण जैसे कामों के लिए दिए गए थे। लेकिन सवाल ये है—क्या वाकई इनका इस्तेमाल वहीं हुआ?
फिर आता है वर्ल्ड बैंक। शिक्षा, स्वास्थ्य, ऊर्जा और बुनियादी ढांचे में सुधार के लिए वर्ल्ड बैंक Pakistan को लगातार सहायता देता रहा है। Pakistan के कई हाईवे प्रोजेक्ट, रूरल डेवलपमेंट मिशन और ग्रामीण शिक्षा योजनाएं वर्ल्ड बैंक की फंडिंग से चलती हैं—या कहिए, चलनी चाहिए थीं। लेकिन अक्सर इनमें से कई प्रोजेक्ट कागजों में रह जाते हैं, और जमीन पर उनकी तस्वीर धुंधली रहती है।
तीसरी बड़ी संस्था है ADB यानी एशियन डेवलपमेंट बैंक। बिजली, परिवहन और शहरी विकास के लिए ADB Pakistan को नियमित कर्ज देता है। हाल के वर्षों में ADB ने ग्वादर पोर्ट, Power distribution projects और Water management के लिए भी फंड आवंटित किया है।
अब केवल अंतरराष्ट्रीय संस्थाएं ही नहीं—कुछ देश भी Pakistan को सीधा फंड देते हैं। इनमें प्रमुख नाम हैं—चीन, सऊदी अरब और यूएई। चीन ने CPEC यानी चीन-पाकिस्तान आर्थिक कॉरिडोर के जरिए Pakistan को भारी कर्ज दिया है, ताकि वहां सड़कें, रेल मार्ग और बंदरगाह बन सकें। सऊदी अरब और यूएई भी Foreign currency के संकट के वक्त पाकिस्तान को कर्ज या सहायता देकर, उसकी डूबती अर्थव्यवस्था को संक्षिप्त राहत देते हैं।
अब सवाल उठता है—ये सारा पैसा आखिर जाता कहां है? IMF, वर्ल्ड बैंक और ADB जैसी संस्थाएं ये फंड Poverty alleviation, education-health reform और आर्थिक स्थिरता के लिए देती हैं। लेकिन Pakistan के भीतर हालात कुछ और ही कहानी कहते हैं। एक रिपोर्ट के मुताबिक Pakistan की सेना देश की अर्थव्यवस्था का बड़ा हिस्सा नियंत्रित करती है। देश के कई बड़े प्रोजेक्ट्स और संस्थानों पर सेना का अप्रत्यक्ष नियंत्रण होता है।
ऐसे में आशंका जताई जाती है कि जो पैसा जनता की भलाई के लिए आना चाहिए, वो सेना के indirect expenses में चला जाता है—जैसे कि Defense equipment, military expansion, या फिर नियंत्रण में चल रहे उद्योगों को बनाए रखने में। और यहीं से शक की सुई दूसरी तरफ घूमती है—आतंकी संगठनों की ओर। Pakistan में कई कट्टरपंथी और आतंकी संगठन दशकों से खुलेआम पनपते रहे हैं। चाहे वो लश्कर-ए-तैयबा हो, जैश-ए-मोहम्मद हो या हक्कानी नेटवर्क—इन सभी के संबंध Pakistan की धरती से जुड़े हुए हैं।
दुनियाभर में पहले भी कई बार ये सवाल उठ चुका है कि क्या पाकिस्तान को मिलने वाली विदेशी मदद का कुछ हिस्सा इन संगठनों तक पहुंचता है? ये सवाल इसलिए भी गंभीर हो जाता है क्योंकि भारत बार-बार कहता रहा है कि Pakistan उसकी धरती पर अशांति फैलाने की साजिश करता रहा है। और जब वही देश IMF, वर्ल्ड बैंक या ADB से अरबों डॉलर की मदद लेता है, तो भारत जैसे देश की चिंता वाजिब है।
भारत ने हाल ही में इन संस्थाओं से आग्रह किया है कि वे Pakistan को दी जाने वाली आर्थिक मदद की समीक्षा करें। भारत का कहना है कि जब तक पाकिस्तान आतंकी संगठनों पर सख्ती नहीं करता, और उसकी नीति आतंक के खिलाफ स्पष्ट नहीं होती, तब तक उसे मिलने वाली आर्थिक मदद पर कड़ी निगरानी ज़रूरी है। सिर्फ कर्ज देना ही समाधान नहीं है—कर्ज का इस्तेमाल कहां और कैसे हो रहा है, ये जानना ज्यादा अहम है।
अगर हम इतिहास को देखें, तो Pakistan बार-बार अंतरराष्ट्रीय कर्ज का लाभ उठाता रहा है—लेकिन उन पैसों से व्यवस्था सुधारने की बजाय अस्थायी समाधान ढूंढता रहा है। हर बार नया पैकेज आता है, कुछ समय राहत मिलती है, और फिर संकट वापस लौट आता है। ये सिलसिला 1980 से लगातार चला आ रहा है। IMF से अब तक 20 से ज़्यादा बार बेलआउट पैकेज लिए जा चुके हैं।
इतना ही नहीं, Pakistan की राजनीतिक अस्थिरता भी इस फंडिंग की उपयोगिता पर सवाल खड़ा करती है। वहां अक्सर सरकारें गिरती हैं, या फिर सेना की छाया में काम करती हैं। इस स्थिति में पारदर्शिता और जवाबदेही जैसी चीजें कमजोर हो जाती हैं। और जब शासन ही कमजोर हो, तो कोई भी फंड पूरी तरह अपने उद्देश्य तक पहुंच नहीं पाता।
अब सवाल ये उठता है कि क्या इस फंडिंग को रोका जा सकता है? जवाब है—नहीं, लेकिन इसे पारदर्शी और परिणाम आधारित बनाया जा सकता है। IMF, ADB और वर्ल्ड बैंक जैसी संस्थाओं को यह सुनिश्चित करना होगा कि उनकी फंडिंग जनता के भले के लिए ही उपयोग हो। इसके लिए निगरानी तंत्र, स्वतंत्र ऑडिट, और ग्राउंड रिपोर्टिंग जैसी प्रक्रिया लागू करनी चाहिए।
दूसरी ओर, भारत और अन्य प्रभावित देशों को चाहिए कि वे इन मंचों पर अपनी आपत्ति और तथ्यों के साथ मजबूत उपस्थिति दर्ज कराएं। कूटनीतिक दबाव भी एक साधन हो सकता है ताकि अंतरराष्ट्रीय संस्थाएं फंडिंग को शर्तों के साथ जोड़ें।
ये भी जरूरी है कि अंतरराष्ट्रीय मंच समझें—केवल एक देश की तात्कालिक मदद करना पर्याप्त नहीं है। अगर वही देश उस मदद से आतंक को बढ़ावा देता है, तो वैश्विक शांति पर खतरा मंडराता है। आज आतंकवाद की कोई सीमा नहीं है—कल जो हथियार किसी एक देश के खिलाफ उठे, वे दुनिया के किसी भी कोने में पहुंच सकते हैं।
पाकिस्तान की जनता निश्चित रूप से इस संकट की दोषी नहीं है। वहां भी आम लोग महंगाई से परेशान हैं, रोजगार की कमी झेल रहे हैं और शिक्षा-स्वास्थ्य जैसी मूलभूत सुविधाओं से वंचित हैं। लेकिन जब फंडिंग की बंदरबांट सत्ताधारी संस्थाओं के बीच हो, तो आम जनता तक इसका लाभ नहीं पहुंचता।
आख़िर में यही कहा जा सकता है कि फंडिंग होनी चाहिए, लेकिन शर्तों के साथ—नियमों के साथ—और सबसे जरूरी, पारदर्शिता के साथ। अगर IMF या ADB पाकिस्तान को पैसे देता है, तो उन्हें ये देखना ही होगा कि कहीं वही पैसा भारत के किसी शहर में बम धमाके का कारण तो नहीं बन रहा? क्या आप मानते हैं कि अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं को पाकिस्तान की फंडिंग पर दोबारा विचार करना चाहिए? क्या भारत की चिंता सही है? कमेंट में अपनी राय ज़रूर दें।
Conclusion
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