Shocking : Maggi और Nescafé में नया ट्विस्ट! अमेरिका के बाद अब भारत में भी बदल सकता है स्वाद और स्टाइल। 2025

क्या आपने कभी सोचा है कि आपकी रोज़ की Maggi या सुबह की पहली चुस्की—नेसकैफे कॉफी—आपके शरीर पर क्या असर डाल रही है? जो स्वाद हमें पसंद है, वह क्या वाकई सेहतमंद भी है? और अगर यह सवाल अमेरिका की सरकार और कंपनियों को परेशान कर रहा है, तो भारत में हम कितने सचेत हैं? कहानी की शुरुआत वहीं से होती है :

जहां दुनिया की सबसे बड़ी फूड कंपनी नेस्ले ने एक ऐतिहासिक फैसला लिया—एक ऐसा फैसला जो सिर्फ खाने के रंगों को नहीं, बल्कि आपकी आदतों को भी बदल सकता है। यह बदलाव ऐसा है जो आने वाले समय में दुनिया भर के खाने के व्यापार को नई दिशा दे सकता है। आज हम इसी विषय पर गहराई में चर्चा करेंगे।

नेस्ले अमेरिका ने घोषणा की है कि वह अपने तमाम खाने-पीने के प्रोडक्ट्स से सिंथेटिक रंग, यानी केमिकल से बने कृत्रिम रंग, पूरी तरह हटाने जा रही है। यह काम 2026 के मध्य तक पूरा हो जाएगा। यानी अमेरिका में 2026 के बाद Maggi या नेस्कैफे जैसी चीजों में अब वो आर्टिफिशियल रंग नहीं होंगे, जो अब तक आपके खाने को रंगीन बनाते थे। यह निर्णय उपभोक्ताओं की सेहत और उनकी बदलती प्राथमिकताओं को ध्यान में रखकर लिया गया है। लेकिन असली सवाल यह है—क्या यही बदलाव भारत में भी होंगे?

नेस्ले ने कहा है कि वह पिछले 10 वर्षों से इस दिशा में काम कर रही है। कंपनी लगातार अपने खाने के तरीकों और सामग्री में बदलाव ला रही है, ताकि ग्राहकों को ज़्यादा नैचुरल, ज़्यादा पौष्टिक और ज़्यादा सेहतमंद विकल्प दिए जा सकें। नेस्ले यूएसए के सीईओ मार्टी थॉम्पसन ने कहा, “हम समझते हैं कि हमारे ग्राहक समय के साथ बदल रहे हैं, और हमारी जिम्मेदारी है कि हम भी उनके साथ बदलें। चाहे वो सुबह की कॉफी हो या बच्चों का स्नैक, अब हम सिर्फ स्वाद नहीं, सेहत को भी उतनी ही अहमियत देंगे। हमारी प्राथमिकता अब ऐसे उत्पादों को विकसित करना है जो न केवल स्वादिष्ट हों, बल्कि पोषण से भरपूर भी हों।”

लेकिन भारत में क्या स्थिति है? भारत में नेस्ले का साम्राज्य बेहद बड़ा है। यहां Maggi सिर्फ एक फूड प्रोडक्ट नहीं, एक इमोशन है। हर कॉलेज हॉस्टल, हर ऑफिस ब्रेक, हर लेट नाइट भूख का एकमात्र साथी। भारत में नेस्ले दूध से लेकर चॉकलेट, केचप से लेकर नूडल्स तक—हर सेक्टर में मौजूद है। लेकिन अब तक भारत में ऐसे किसी बड़े बदलाव की घोषणा नहीं की गई है। यह चिंता की बात है क्योंकि उपभोक्ताओं की सेहत पर असर डालने वाले केमिकल्स आज भी हमारे रोज़ के खाने का हिस्सा बने हुए हैं।

अब सवाल उठता है कि कंपनियां खाने में रंग क्यों मिलाती हैं? असल में, जब हम किसी चीज़ को रंगीन देखते हैं, तो दिमाग उसे स्वादिष्ट मानने लगता है। यही कारण है कि बिना रंग के खाना हमें फीका लगता है—even अगर उसका स्वाद वैसा ही हो। मार्केटिंग का यह मनोविज्ञान वर्षों से food industry की रीढ़ बना हुआ है। कंपनियों को पता है कि ग्राहक की पहली नज़र ही सबसे बड़ा निर्णय लेती है, और इसीलिए रंगों का इस्तेमाल एक रणनीति के तौर पर किया जाता है।

खाद्य रंग दो प्रकार के होते हैं—प्राकृतिक और सिंथेटिक। प्राकृतिक रंग फल, सब्जियां, बीज, पत्तियां या फूलों से आते हैं। ये महंगे होते हैं और कम गाढ़े दिखते हैं। दूसरी ओर, सिंथेटिक रंग केमिकल प्रोसेस से बनाए जाते हैं। टार्ट्राजिन, सनसेट येलो, एल्युरा रेड, ब्रिलिएंट ब्लू जैसे रंग इसी श्रेणी में आते हैं। ये रंग सस्ते होते हैं, तेज दिखते हैं, और कंपनियों के लिए आसान विकल्प होते हैं। मगर, इनकी सुरक्षा पर हमेशा से सवाल उठते रहे हैं और अब समय आ गया है कि हम भी इस विषय पर गंभीरता से सोचें।

लेकिन यहीं से शुरू होती है सेहत पर मार। कई शोधों में पाया गया है कि कुछ सिंथेटिक रंगों का सेवन बच्चों में ADHD (अटेंशन डेफिसिट हाइपरएक्टिविटी डिसऑर्डर), एलर्जी, माइग्रेन और यहां तक कि कैंसर जैसी बीमारियों से भी जुड़ा हो सकता है। अमेरिका और यूरोप में ऐसे कई रंगों को सीमित या पूरी तरह बैन किया जा चुका है। लेकिन भारत में अब भी ये उत्पाद खुले आम बेचे जाते हैं। यह एक बड़ा स्वास्थ्य संकट बन सकता है अगर समय रहते कदम नहीं उठाए गए।

नेस्ले के इस फैसले के पीछे एक बड़ा ट्रेंड छिपा है—’क्लीन लेबल मूवमेंट’। दुनिया भर के ग्राहक अब अपने खाने के लेबल्स पढ़ने लगे हैं। वे जानना चाहते हैं कि जो चीज़ वो खा रहे हैं, उसमें क्या है। वे चाहते हैं कि पैक पर सिर्फ आसान और पहचाने जाने वाले इंग्रेडिएंट हों। और यही कारण है कि अमेरिका जैसी बड़ी मार्केट में कंपनियों को अब मजबूरन यह बदलाव करना पड़ रहा है। यह ट्रेंड अब एक जन-आंदोलन का रूप ले रहा है, जहां ग्राहक कंपनियों से पारदर्शिता की मांग कर रहे हैं।

लेकिन भारत में ऐसी जागरूकता कितनी है? क्या हम अपने बच्चों को हर दिन जो टिफिन में देते हैं, उसके लेबल पढ़ते हैं? क्या हम जानना चाहते हैं कि उनकी Maggi में क्या-क्या डाला गया है? या हम सिर्फ उसी पुराने स्वाद को पकड़ कर बैठे हैं, जो कभी बचपन की भूख मिटाता था? यह सोच बदलनी होगी अगर हम अपने और अपने परिवार के स्वास्थ्य के प्रति जिम्मेदार बनना चाहते हैं।

भारत में FSSAI जैसे संस्थान हैं जो खाने की गुणवत्ता और सामग्री पर निगरानी रखते हैं। लेकिन उनका फोकस अब तक ज़्यादातर ‘सुरक्षा’ यानी contamination पर रहा है, न कि ‘स्वास्थ्य’ यानी long-term impact पर। ऐसे में अगर कंपनियां खुद से यह जिम्मेदारी नहीं लें, तो आम उपभोक्ता को नुकसान ही होगा। हमें अपनी एजेंसियों और संस्थाओं से यह मांग करनी होगी कि वे केवल खाद्य सुरक्षा ही नहीं, बल्कि स्वास्थ्य को भी प्राथमिकता दें।

नेस्ले के इस कदम से यह सवाल और भी Relevant हो जाता है—क्या भारत में भी कंपनियां अब इस दिशा में आगे बढ़ेंगी? क्या हमारे regulatory bodies जागरूक उपभोक्ताओं की ओर देखेंगे? या फिर यह फैसला सिर्फ अमेरिका तक सीमित रहेगा? अगर उपभोक्ता आवाज़ उठाएंगे, तो जवाबदेही ज़रूर आएगी।

कंपनी की ओर से फिलहाल भारत में ऐसा कोई आधिकारिक बयान नहीं आया है। लेकिन मार्केट एक्सपर्ट्स मानते हैं कि यदि ग्राहक मांग करें, यदि लोग सोशल मीडिया पर सवाल उठाएं, यदि स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता बढ़े—तो कंपनियों को भारत में भी बदलाव लाना पड़ेगा। उन्हें वह प्रेशर महसूस होगा, जो अमेरिका और यूरोप में महसूस हो रहा है।

क्योंकि आख़िर में, कोई भी कंपनी वही बनाती है जो ग्राहक खरीदता है। अगर हम रंगीन पैकेट से ज़्यादा, रंगहीन सच्चाई को चुनना शुरू कर दें, तो शायद अगली बार जो मैगी का पैकेट खुले, उसमें स्वाद के साथ सेहत भी छुपी हो। और यही वह बदलाव है जिसकी भारत को अब सबसे ज़्यादा ज़रूरत है। हमारे बच्चों की थाली में जो कुछ भी जा रहा है, वह केवल स्वाद से नहीं, समझ से भी चुनना होगा।

Conclusion

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