ज़रा सोचिए… एक देश जिसकी पहाड़ों की वादियाँ कभी सैलानियों से भरी रहती थीं, वहाँ अब सड़कों पर धुआँ उठ रहा है, पत्थरबाज़ी हो रही है, पुलिस और प्रदर्शनकारियों की भिड़ंत ने पूरा माहौल युद्धक्षेत्र जैसा बना दिया है। काठमांडू की सड़कों पर आगजनी, नारेबाज़ी और टूटी हुई खिड़कियों का मंजर इस बात की गवाही दे रहा है कि Nepal आज सबसे गहरे राजनीतिक संकट से गुज़र रहा है। सोशल मीडिया बैन से शुरू हुआ विवाद देखते ही देखते इतना बड़ा रूप ले लेगा, किसी ने कल्पना भी नहीं की थी।
Gen-Z की भीड़, जिन्हें तकनीक और इंटरनेट से काटा नहीं जा सकता, उन्होंने सरकार को चुनौती दी और अंततः प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली समेत कई सांसदों को पद छोड़ना पड़ा। सवाल यह है कि Nepal ही क्यों? क्यों भारत के पड़ोसी देशों में एक-एक कर सरकारें गिर रही हैं—कभी पाकिस्तान, कभी श्रीलंका, कभी बांग्लादेश और कभी म्यांमार? क्या यह महज़ संयोग है या दक्षिण एशिया की राजनीति किसी नए तूफ़ान की आहट दे रही है? आज हम इसी विषय पर गहराई में चर्चा करेंगे।
आपको बता दें कि Nepal का हालिया तख्तापलट सिर्फ सोशल मीडिया बैन का नतीजा नहीं था। यह उस पिढ़ी का गुस्सा है, जिसने डिजिटल दुनिया में खुद को पनपते देखा है और जिसे अचानक अपनी सबसे बड़ी ताक़त से वंचित कर दिया गया। सरकार का तर्क था कि सोशल मीडिया कंपनियाँ Nepal में बिना रजिस्ट्रेशन और लोकल ऑफिस खोले काम कर रही हैं I
इसलिए 26 प्लेटफ़ॉर्म्स को बंद किया गया। लेकिन टिकटॉक और वाइबर जैसे ऐप्स ने नियम मान लिए, इसलिए उन पर बैन नहीं लगा। बाकी ऐप्स जैसे फेसबुक, इंस्टाग्राम, ट्विटर और यूट्यूब पर पाबंदी ने लोगों को भड़का दिया। जब सरकार ने बैन हटाया तब तक हालात हाथ से निकल चुके थे। प्रदर्शन और हिंसा ने सत्ताधारी दल को कमजोर कर दिया और अंततः राजनीतिक गिरावट सामने आई।
लेकिन यह तस्वीर सिर्फ Nepal तक सीमित नहीं है। दक्षिण एशिया में पिछले कुछ सालों में बार-बार सत्ता पलटी है। पाकिस्तान इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। मई 2023 में इमरान खान को तोशाखाना मामले में गिरफ्तार किया गया, और देखते ही देखते पाकिस्तान की सड़कों पर आग लग गई। सेना तक को खुलेआम चुनौती दी गई। इस हिंसा में 10,000 से ज़्यादा लोग मारे गए और अंततः इमरान खान की सरकार गिर गई। एक वक्त पर जिसे “नया पाकिस्तान” का चेहरा कहा जाता था, वही नेता आज जेल में है। पाकिस्तान में तख्तापलट ने यह साबित कर दिया कि जनता और सेना के बीच तनाव देश की राजनीति का स्थायी हिस्सा बन चुका है।
श्रीलंका में तो कहानी और भी भयावह रही। 2022 में जब देश गहरे आर्थिक संकट में डूब गया, तो बिजली कटौती, ईंधन की किल्लत और महंगाई ने आम लोगों की ज़िंदगी नरक बना दी। हालात इतने बिगड़े कि लोग राष्ट्रपति भवन में घुस गए। महिंदा राजपक्षे को देश छोड़कर भागना पड़ा और जनता ने “अरगलाया आंदोलन” के ज़रिए यह दिखा दिया कि लोकतंत्र में जनशक्ति सबसे बड़ी ताक़त है। श्रीलंका आज भी उस संकट से पूरी तरह उबर नहीं पाया है। यहाँ यह याद दिलाना ज़रूरी है कि जिस देश को कभी “दक्षिण एशिया का स्विट्जरलैंड” कहा जाता था, वहाँ भूख और दिवालियापन ने सरकार को गिरा दिया।
बांग्लादेश की स्थिति भी कुछ अलग नहीं रही। मई 2024 में वहाँ भी हिंसक प्रदर्शन शुरू हुए और प्रधानमंत्री शेख हसीना को सत्ता छोड़नी पड़ी। राजधानी ढाका से लेकर कई शहरों में लोग सड़कों पर उतर आए। आरोप था कि अवामी लीग और उसकी छात्र इकाई ने लंबे समय तक विपक्ष को दबाया और लोकतंत्र का गला घोंटा। इस प्रदर्शन में खासकर अल्पसंख्यक हिन्दू समुदाय को निशाना बनाया गया, जिसने स्थिति को और भयावह बना दिया। शेख हसीना भारत भागकर शरण लेने को मजबूर हुईं। यह वही नेता थीं जिन्होंने दशकों तक बांग्लादेश की राजनीति पर राज किया था, लेकिन आखिरकार उन्हें भी तख्तापलट का सामना करना पड़ा।
म्यांमार की कहानी और भी खौफ़नाक है। फरवरी 2021 में वहाँ सेना ने तख्तापलट कर लोकतांत्रिक सरकार को उखाड़ फेंका। आंग सान सू ची, जिन्हें कभी लोकतंत्र की मसीहा माना गया, आज जेल में हैं। छात्र, नागरिक समूह और भिक्षु लगातार लोकतंत्र बहाल करने के लिए सड़कों पर उतरते हैं, लेकिन सेना की बंदूकें हर आवाज़ को दबा देती हैं। यहाँ यह साफ हो जाता है कि दक्षिण एशिया में लोकतंत्र कितनी नाज़ुक डोर पर टिका हुआ है।
अफगानिस्तान में तो हालात और भी अलग हैं। अगस्त 2021 में जब अमेरिकी सेना ने 20 साल बाद अफगानिस्तान छोड़ा, तो तालिबान ने सत्ता पर कब्ज़ा कर लिया। राष्ट्रपति अशरफ गनी देश छोड़कर भाग गए और अफगानिस्तान एक बार फिर तालिबान शासन के अधीन आ गया। महिलाओं की आज़ादी, शिक्षा और मानवाधिकार एक झटके में छिन गए। यह तख्तापलट नहीं बल्कि पूरी व्यवस्था की वापसी थी, जिसने दुनिया को दिखा दिया कि वैश्विक शक्तियों के जाने के बाद छोटे देश कैसे चरमपंथियों के हाथों में चले जाते हैं।
अब सवाल यह है कि भारत के पड़ोसी देशों में बार-बार सरकारें क्यों गिर रही हैं? इसका जवाब कई परतों में छिपा है। पहला कारण है आर्थिक संकट। पाकिस्तान, श्रीलंका और बांग्लादेश जैसे देशों में कर्ज़ का बोझ और बढ़ती महंगाई ने जनता को नाराज़ कर दिया। दूसरा कारण है सत्ता का दुरुपयोग। नेताओं ने लोकतंत्र के नाम पर व्यक्तिगत शासन चलाने की कोशिश की और जब जनता का सब्र टूटा तो सड़कों पर क्रांति उतर आई। तीसरा कारण है बाहरी शक्तियों का दबाव। चीन, अमेरिका और रूस जैसे बड़े देश इन छोटे देशों की राजनीति को प्रभावित करते हैं और कभी-कभी तख्तापलट की स्थितियाँ और तेज़ हो जाती हैं।
Nepal के मौजूदा हालात इस पूरे पैटर्न की नई कड़ी हैं। सोशल मीडिया बैन ने युवाओं को भड़का दिया। Gen-Z, जो दिन का 6 से 7 घंटे इंटरनेट पर बिताते हैं, उन्हें अचानक डिजिटल दुनिया से काट देना, उनके लिए पहचान और अस्तित्व पर हमला जैसा था। नतीजा यह हुआ कि वे सड़कों पर उतर आए और हिंसा ने सरकार को गिरा दिया। यह साफ इशारा है कि आने वाले समय में डिजिटल अधिकार भी राजनीति में अहम भूमिका निभाएँगे।
भारत के लिए यह स्थिति चिंता की है। चारों ओर अस्थिरता का माहौल है। पश्चिम में पाकिस्तान, दक्षिण में श्रीलंका, पूर्व में बांग्लादेश और उत्तर में Nepal—हर तरफ राजनीतिक भूचाल है। ऐसे में भारत की सुरक्षा और कूटनीति दोनों को बड़ी चुनौती मिल रही है। सवाल यह है कि भारत अपने पड़ोसियों के इस संकट से कैसे निपटेगा? क्या यह क्षेत्र फिर से अस्थिरता और अराजकता की गिरफ्त में जाएगा, या फिर लोकतंत्र और स्थिरता की ओर कोई नई राह निकलेगी?
इतिहास गवाह है कि जब-जब दक्षिण एशिया में अस्थिरता फैली है, भारत को भी उसके झटके महसूस हुए हैं। चाहे वह बांग्लादेश का 1971 का युद्ध हो, श्रीलंका का गृहयुद्ध हो या अफगानिस्तान में आतंकवाद का उभार। Nepal का मौजूदा संकट भी भारत को उसी दिशा की याद दिला रहा है।
आज Nepal के तख्तापलट की कहानी हमें यह सोचने पर मजबूर करती है कि लोकतंत्र कितना नाज़ुक है। यह केवल वोट डालने की प्रक्रिया नहीं, बल्कि जनता के विश्वास और उनकी आज़ादी का ताना-बाना है। जब सरकारें उस विश्वास को तोड़ती हैं, तो लोग सड़कों पर उतर आते हैं। और जब लोग सड़कों पर उतरते हैं, तो सबसे मज़बूत सत्ता भी ताश के पत्तों की तरह बिखर जाती है।
Conclusion
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