क्या हो अगर एक मशहूर विदेशी ब्रांड करोड़ों रुपये कमा रहा हो… लेकिन उसके पीछे छुपी हो आपकी विरासत, आपके पुरखों की कला, आपकी मिट्टी की खुशबू? क्या हो अगर आपकी बनाई चीज़ें, जिनमें आपके पूर्वजों की मेहनत बसी हो, उन्हें कोई और अपने नाम से बेच दे—वो भी 70 गुना ज्यादा कीमत पर? यही कहानी है Kolhapur की उन चप्पलों की, जिनकी चमक अब इटली के रैम्प पर दिख रही है… पर क्रेडिट कहीं और जा रहा है। और इस बार, सवाल उठे हैं फैशन की दुनिया की नैतिकता पर, ग्लैमर के उस पर्दे के पीछे जो एक गहरी लूट को छुपाए हुए है। आज हम इसी विषय पर गहराई में चर्चा करेंगे।
Kolhapuri Sandal… एक ऐसा नाम जो भारत की पारंपरिक कारीगरी की पहचान है। महाराष्ट्र के Kolhapurर और आसपास के इलाकों में सदियों से ये चप्पलें बनती आ रही हैं। हाथ से बनी, लेदर की खास तकनीक से सजाई गईं ये चप्पलें सिर्फ एक फैशन स्टेटमेंट नहीं, बल्कि भारत की सांस्कृतिक धरोहर हैं। हर जोड़ी चप्पल में एक कहानी छिपी होती है—कभी किसान की मेहनत की, कभी किसी कारीगर की कला की। पर अब, यही Kolhapuri Sandal यूरोप के कैटवॉक पर नज़र आ रही हैं—बिना इस कहानी के, बिना इस जड़ के।
मिलान फैशन वीक में, जब मशहूर इटैलियन ब्रांड प्राडा ने अपने नए फुटवियर कलेक्शन का अनावरण किया, तो फैशन की दुनिया ने तारीफों की बारिश कर दी। लेकिन कुछ आँखें चौक गईं… क्योंकि जो सैंडल वहां पेश की गई थी, वो हूबहू Kolhapuri Sandal जैसी दिख रही थी। फर्क बस इतना था कि इस बार इसका लेबल था—”प्राडा”, और इसकी कीमत थी—800 डॉलर यानी करीब 66,000 रुपये! वहीं भारत में यही चप्पलें 1000 रुपये में बनती और बिकती हैं। यही नहीं, प्राडा ने शुरुआत में इस डिज़ाइन की प्रेरणा के स्रोत का कोई ज़िक्र तक नहीं किया।
मामला तब और गरमाया जब लंदन के प्रतिष्ठित अख़बार द गार्जियन ने इस पर रिपोर्ट प्रकाशित की और बताया कि यह सिर्फ डिज़ाइन की बात नहीं, बल्कि “सांस्कृतिक विनियोग” यानी Cultural Appropriation का मामला है। भारत की एक पारंपरिक शिल्पकला को, उसकी ऐतिहासिक जड़ों से काटकर, उसे एक ग्लैमरस ब्रांड के नाम से बेचा जा रहा है। महाराष्ट्र चैंबर ऑफ कॉमर्स ने इसे न सिर्फ गलत बताया, बल्कि प्राडा को औपचारिक पत्र लिखकर नाराजगी भी जताई।
महाराष्ट्र चैंबर ऑफ कॉमर्स के अध्यक्ष ललित गांधी ने साफ तौर पर कहा—Kolhapuri Sandal सिर्फ एक जूता नहीं, बल्कि एक G I टैग प्राप्त पारंपरिक विरासत है। जीआई यानी Geographical Indication टैग, जो सरकार द्वारा 2019 में दिया गया था। इसका मतलब है कि यह चप्पलें सिर्फ Kolhapur जैसे खास इलाकों में बनती हैं, और वहीं की तकनीक, शैली और सामग्री से इनकी पहचान जुड़ी है। अब सोचिए, अगर कोई विदेशी कंपनी इसे कॉपी कर ले और अपनी ब्रांडिंग के तहत बेचे, तो यह कितना बड़ा अन्याय है?
हालांकि विवाद बढ़ने पर प्राडा को सफाई देनी पड़ी। कंपनी के CSR प्रमुख लोरेंजो बर्टेली ने स्वीकार किया कि उनके सैंडल की प्रेरणा Kolhapuri Sandal से ली गई है। उन्होंने ये भी कहा कि वे अब भारतीय कारीगरों के साथ काम करने के लिए तैयार हैं और डायलॉग शुरू करना चाहते हैं। लेकिन क्या ये बयान काफी है? क्या इतनी बड़ी ग्लोबल ब्रांड को पहले ये सोचने की ज़रूरत नहीं थी कि वो किसकी विरासत से प्रेरणा ले रहे हैं?
इस मुद्दे पर हर्ष गोयनका, आरपीजी ग्रुप के चेयरमैन, ने भी तीखी प्रतिक्रिया दी। उन्होंने कहा—”हमारे कारीगर हार जाते हैं, जबकि विदेशी ब्रांड हमारी संस्कृति से पैसे कमाते हैं।” और यह बात एकदम सटीक बैठती है। क्योंकि भारत के वे कारीगर जिनकी अंगुलियों में कोल्हापुरी की जान बसती है, उन्हें न कोई ग्लैमर मिलता है, न ही क्रेडिट। वहीं एक विदेशी ब्रांड सिर्फ डिज़ाइन चुरा कर उसे फैशन का प्रतीक बना देता है।
ध्यान देने वाली बात यह भी है कि ये कोई पहली घटना नहीं है। फैशन इंडस्ट्री में यह “सांस्कृतिक लूट” लंबे समय से चल रही है। कभी अफ्रीकी प्रिंट्स, कभी एशियाई कढ़ाई, कभी भारतीय साड़ी—हर बार कोई न कोई ब्रांड इसे “इंस्पिरेशन” कहकर लूट लेता है। फर्क बस इतना है कि स्थानीय कलाकारों को उसका न मुआवजा मिलता है, न पहचान।
विश्व बैंक के पूर्व कार्यकारी धनेंद्र कुमार ने भी इसी ओर इशारा किया। उन्होंने कहा, “भारतीय कारीगरों के पास अपने उत्पादों को वैश्विक बाज़ार में बेचने की न तो पूंजी है और न प्लेटफॉर्म।” मतलब एक तरफ है क्रिएटिविटी और परंपरा, दूसरी तरफ मार्केटिंग और मुनाफा। और जब तक इस खाई को नहीं पाटा जाएगा, ऐसे विवाद बार-बार सामने आते रहेंगे।
लेकिन इस पूरे विवाद में एक सकारात्मक बात भी सामने आई है—Kolhapuri Sandal को अब पूरी दुनिया में पहचान मिल रही है। फैशन के ग्लोबल मंच पर जब इन चप्पलों की चर्चा हुई, तो अचानक गूगल ट्रेंड्स पर ‘Kolhapuri Sandals’ की सर्च बढ़ गई। ऑनलाइन प्लेटफॉर्म्स पर इनकी बिक्री भी उछल गई। कई युवा डिजाइनरों का मानना है कि अब Kolhapuri Sandal को नया जीवन मिल सकता है, वो भी ग्लोबल स्तर पर।
नीडलडस्ट ब्रांड की संस्थापक शिरीन मान का कहना है कि “प्राडा की वजह से Kolhapuri Sandal अब भारत के लक्जरी फुटवियर बाज़ार में ‘कूल’ और स्टाइलिश मानी जा सकती है।” यह बदलाव केवल एक डिज़ाइन का नहीं, बल्कि सोच का है—जहां अब परंपरा को सिर्फ गांवों की बात नहीं, बल्कि फैशन की भाषा में भी पेश किया जा सकता है।
इस बीच एक और ज़रूरी सवाल उठता है—क्या भारत सरकार और फैशन इंडस्ट्री इस मौके को पहचान कर, Kolhapuri Sandal के प्रचार-प्रसार और कारीगरों के सशक्तिकरण के लिए कदम उठाएंगे? क्या G I टैग सिर्फ एक सरकारी प्रमाणपत्र बनकर रह जाएगा, या वास्तव में कारीगरों के जीवन को बदलने का जरिया बनेगा?
ये मामला एक गहरी सीख देता है—अगर कोई भी ब्रांड किसी संस्कृति से प्रेरणा लेता है, तो उसका कर्तव्य है कि वह उस संस्कृति को श्रेय, सम्मान और सहयोग दे। प्रेरणा को चोरी नहीं बनाया जा सकता। इसे साझेदारी और पारदर्शिता की भावना से आगे बढ़ाना होगा। प्राडा जैसे ब्रांड अगर वाकई सामाजिक उत्तरदायित्व समझते हैं, तो उन्हें भारतीय शिल्पकारों के साथ मिलकर काम करना चाहिए, ताकि ये कला और भी ऊंचाइयों तक पहुंचे—ना कि बस उनके ब्रांड का हिस्सा बनकर रह जाए।
अब सवाल यह है कि क्या प्राडा जैसे ब्रांड भविष्य में भारतीय कारीगरों के साथ काम करके उन्हें उचित मान-सम्मान देंगे? या ये मामला कुछ दिनों की सुर्खियों के बाद भुला दिया जाएगा? क्योंकि आज जब Kolhapuri Sandal मिलान की रैम्प पर है, तो कल उसे पेरिस, न्यूयॉर्क और टोक्यो में भी जगह मिल सकती है। लेकिन अगर इस चमक के पीछे भारत का नाम, भारत की मिट्टी और भारत का हुनर न हो… तो यह सिर्फ चप्पल की चोरी नहीं, बल्कि संस्कृति की तौहीन होगी।
भारत को अब तय करना है कि वह अपनी विरासत को केवल सजावट की वस्तु समझेगा या उसे दुनिया के सामने सम्मानपूर्वक पेश करेगा। Kolhapuri Sandal सिर्फ एक चप्पल नहीं—यह भारत की आत्मा है, जिसे अब ग्लोबल ब्रांड्स भी नज़रअंदाज़ नहीं कर सकते।
Conclusion
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