Trade War: Tariff से जंग इंदिरा से वाजपेयी तक भारत ने अमेरिका को दिया जवाब, अब मोदी की बारी! 2025

एक ऐसा मुल्क, जिसे कभी दुनिया की महाशक्तियाँ गरीब, पिछड़ा और असहाय मानती थीं। जिसकी पहचान भूख और कर्ज़ से जूझते तीसरी दुनिया के देश के तौर पर की जाती थी। और अचानक वही मुल्क धरती के सीने को चीरकर ऐसा धमाका करता है कि वॉशिंगटन से लेकर टोक्यो तक की सरकारें हिल जाती हैं। एक ही झटके में पूरी दुनिया का शक्ति-संतुलन बदल जाता है। सवाल उठता है—क्या ये वही भारत है, जिसे कभी मदद और अनाज के लिए अमेरिका की ओर देखना पड़ता था?

हाँ, ये वही भारत था जिसने 1974 और फिर 1998 में दुनिया को चौंका दिया। लेकिन यह कहानी सिर्फ़ nuclear tests की नहीं है, यह कहानी है—भारत और अमेरिका की टकराहट, संघर्ष और अंततः साझेदारी की। यह कहानी है उस भारत की, जिसने हर प्रतिबंध, हर Tariff और हर दबाव को चुनौती दी और पहले से और मज़बूत होकर निकला। आज हम इसी विषय पर गहराई में चर्चा करेंगे।

1974 के भारत की कल्पना कीजिए। देश अभी-अभी बांग्लादेश युद्ध की जीत के जोश से भरा हुआ था। इंदिरा गांधी उस दौर में “आयरन लेडी” कही जाती थीं। दुनिया भारत को अब भी एक गरीब और संघर्षरत राष्ट्र मानती थी, लेकिन इंदिरा की सोच अलग थी। वे जानती थीं कि अगर भारत को सच में आत्मनिर्भर और मज़बूत बनना है, तो उसे परमाणु शक्ति हासिल करनी ही होगी। और जब राजस्थान के पोखरण के रेगिस्तान में पहला Nuclear testing हुआ—18 मई 1974 को—तो दुनिया हक्की-बक्की रह गई। “स्माइलिंग बुद्धा” नाम से प्रसिद्ध यह परीक्षण भारत की शक्ति का उद्घोष था। लेकिन वॉशिंगटन में बैठे नेताओं को यह मुस्कुराहट नागवार गुज़री।

अमेरिका ने तुरंत प्रतिबंधों की झड़ी लगा दी। न्यूक्लियर टेक्नोलॉजी और सप्लाई रोक दी गई। सहयोगी देशों को भी भारत से दूरी बनाने पर मजबूर किया गया। ‘न्यूक्लियर सप्लायर्स ग्रुप’ (NSG) का गठन हुआ, ताकि भारत जैसे देशों को परमाणु ईंधन और तकनीक से दूर रखा जा सके। अमेरिकी अख़बारों की सुर्खियाँ भारत को लताड़ रही थीं—“India defies the world order.” लेकिन इंदिरा गांधी ने दबाव में आने से इनकार कर दिया। उन्होंने साफ कहा—“भारत का यह कदम उसकी राष्ट्रीय सुरक्षा और आत्मसम्मान का प्रतीक है। हम पीछे नहीं हटेंगे।” यही दृढ़ता आने वाले दशकों की आधारशिला बनी।

1974 से 1998 तक का सफर आसान नहीं था। प्रतिबंधों की वजह से भारत को उन्नत टेक्नोलॉजी और आधुनिक हथियारों तक सीधी पहुंच नहीं मिल पा रही थी। लेकिन इसका उल्टा असर हुआ। भारत ने Indigenous research and development पर ज़ोर दिया। इस दौरान BARC (भाभा एटॉमिक रिसर्च सेंटर) और DRDO जैसी संस्थाओं ने अद्भुत काम किया। धीरे-धीरे भारत ने आत्मनिर्भरता की राह पकड़ ली। इंदिरा गांधी का एक और बड़ा फैसला था—सोवियत संघ के साथ रणनीतिक साझेदारी। इसने भारत को अंतरराष्ट्रीय मंच पर ताक़तवर समर्थन दिया। अमेरिका नाराज़ था, लेकिन भारत पीछे हटने को तैयार नहीं था।

1990 के दशक में भारत की कहानी और दिलचस्प मोड़ पर पहुँची। 1991 का Economic liberalization देश को नई दिशा दे रहा था। दुनिया अब भारत को केवल एक विकासशील देश नहीं, बल्कि उभरते हुए बाज़ार के रूप में देखने लगी थी। लेकिन 1998 में अटल बिहारी वाजपेयी ने ऐसा कदम उठाया जिसने अंतरराष्ट्रीय राजनीति को हिला दिया। पोखरण-II।

अटल बिहारी वाजपेयी का अंदाज़ अलग था। वे नरम स्वभाव और कविता जैसी भाषा में भी Steel जैसी दृढ़ता रखते थे। प्रधानमंत्री बनने के कुछ ही महीने बाद उन्होंने वैज्ञानिकों को आदेश दिया—भारत को अब और छिपाने की ज़रूरत नहीं। 11 से 13 मई 1998 तक पाँच धमाकों ने राजस्थान की धरती को हिला दिया। और साथ ही पूरी दुनिया को संदेश दिया—भारत अब औपचारिक रूप से परमाणु शक्ति है। “बुद्ध फिर मुस्कुराए”—ये शब्द इतिहास में दर्ज हो गए।

लेकिन अमेरिका को यह बिल्कुल मंज़ूर नहीं था। तत्कालीन राष्ट्रपति बिल क्लिंटन ने भारत पर सबसे कठोर प्रतिबंध लगा दिए। आर्थिक मदद रोक दी गई। IMF और वर्ल्ड बैंक से मिलने वाले अरबों डॉलर के कर्ज़ पर रोक लगाने की कोशिश की गई। हथियारों की सप्लाई और टेक्नोलॉजी ट्रांसफर रोक दिए गए। अमेरिकी सरकारी आंकड़ों के अनुसार, सिर्फ़ Greenhouse Gas Elimination Program की 60 लाख डॉलर की राशि और आर्थिक सहायता के 2.1 करोड़ डॉलर तुरंत बंद कर दिए गए।

भारत पर दबाव डालने के लिए अमेरिका ने वैश्विक संस्थाओं तक का इस्तेमाल किया। यह स्थिति बेहद कठिन थी। देश में पहले से ही विकास की चुनौतियाँ थीं और अब अंतरराष्ट्रीय समर्थन भी बंद होने लगा। लेकिन वाजपेयी ने साफ कह दिया—“प्रतिबंध हमें नुकसान नहीं पहुंचा सकते और न ही पहुंचाएंगे।” यह बयान केवल हौसले के लिए नहीं था, बल्कि यह रणनीति थी। भारत ने दुनिया को दिखा दिया कि प्रतिबंध उसके कदम नहीं रोक सकते।

प्रतिबंधों का असर ज़रूर हुआ। कई इंफ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट्स अटक गए। विदेशी कंपनियों ने हाथ खींच लिया। टेक्नोलॉजी तक पहुंच मुश्किल हो गई। लेकिन देश की जनता में गर्व का माहौल था। अखबारों में छप रहा था—“अब हम सचमुच परमाणु शक्ति हैं।” आम लोग गर्व से कहते थे—“भले ही आज थोड़ी मुश्किल हो, लेकिन हमारे बच्चों के लिए सुरक्षित और मज़बूत भारत बनेगा।” यही भावनात्मक ताक़त थी, जिसने प्रतिबंधों को असफल बना दिया।

1999 में कारगिल युद्ध छिड़ा। प्रतिबंधों के बीच भी भारत ने पाकिस्तान को हराया। यह जीत साबित करती थी कि प्रतिबंध भारत की सैन्य शक्ति को नहीं रोक सकते। अमेरिकी मीडिया भी मानने लगा कि भारत की दृढ़ता ने सबको चौंका दिया। धीरे-धीरे वाशिंगटन की नीति बदली।

2000 में राष्ट्रपति बिल क्लिंटन भारत आए। यह 22 साल बाद किसी अमेरिकी राष्ट्रपति की भारत यात्रा थी। दिल्ली, हैदराबाद और मुंबई में क्लिंटन का स्वागत हुआ। यह यात्रा संकेत थी कि अमेरिका भी मान चुका है—भारत को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता। इसी दौर में दोनों देशों के बीच संबंधों में नई गर्माहट आई।

2001 में जॉर्ज डब्ल्यू बुश राष्ट्रपति बने और 9/11 के बाद आतंकवाद के खिलाफ वैश्विक युद्ध छिड़ा। भारत ने अमेरिका का साथ दिया। इस सहयोग से रिश्तों में और गहराई आई। 2005 में मनमोहन सिंह और बुश ने मिलकर ऐतिहासिक भारत-अमेरिका परमाणु समझौता शुरू किया। 2008 में यह समझौता पूरा हुआ और भारत को औपचारिक रूप से परमाणु शक्ति के रूप में मान्यता मिली। यह वही भारत था, जिसे कभी प्रतिबंधों से दबाने की कोशिश की गई थी।

लेकिन इतिहास का पहिया यहीं नहीं रुका। 2018 में डोनाल्ड ट्रंप राष्ट्रपति बने और उन्होंने व्यापार युद्ध छेड़ दिया। भारत पर ऊंचे टैरिफ लगा दिए गए। खासकर टेक्सटाइल्स, आभूषण और मत्स्य पालन जैसे उद्योगों को चोट लगी। ट्रंप का कहना था कि भारत अमेरिकी बाज़ार का गलत इस्तेमाल कर रहा है। लेकिन भारत ने तुरंत रणनीति बदली। नए Export बाज़ार खोजे गए। स्वदेशी उत्पादन पर जोर दिया गया।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लाल किले से अपील की—“हमें आत्मनिर्भर बनना चाहिए, हताशा से नहीं, बल्कि गर्व से।” दुकानदारों और व्यापारियों से कहा गया कि वे ‘मेड इन इंडिया’ के बोर्ड लगाएं। जनता में फिर वही भावना जगी, जो 1998 में थी—प्रतिबंध या टैरिफ हमें रोक नहीं सकते।

आज 2025 में भी स्थिति कुछ ऐसी ही है। अमेरिका फिर से टैरिफ का हथियार लेकर सामने खड़ा है। रूस से तेल खरीदने के मुद्दे पर भारत को दबाव झेलना पड़ रहा है। लेकिन भारत का रुख साफ है—ऊर्जा सुरक्षा और राष्ट्रीय हितों पर कोई समझौता नहीं। यह वही आत्मविश्वास है, जो इंदिरा गांधी और अटल बिहारी वाजपेयी ने दिखाया था।

नीति आयोग के पूर्व सीईओ अमिताभ कांत का कहना है—“यह समय भारत के लिए अवसर है। हमें अपने Export बाज़ारों में विविधता लानी होगी और बड़े सुधार लागू करने होंगे।” वास्तव में यही रास्ता है। अतीत ने दिखाया है कि हर प्रतिबंध भारत के लिए एक नए युग की शुरुआत बना।

1974 ने आत्मनिर्भरता की राह दिखाई। 1998 ने दुनिया को भारत की शक्ति मानने पर मजबूर किया। 2008 ने भारत को औपचारिक परमाणु मान्यता दिलाई। 2018 ने भारत को व्यापारिक विविधता सिखाई। और अब 2025 है—जब भारत दुनिया की पाँचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है और आने वाले दशकों में सुपरपावर बनने की राह पर है।

तो सवाल है—क्या नरेंद्र मोदी भी इंदिरा और वाजपेयी की तरह इस दबाव को अवसर में बदल पाएंगे? क्या आज का भारत भी वही आत्मविश्वास दिखा पाएगा, जिसने अतीत में दुनिया को चौंका दिया था? संकेत साफ हैं। भारत अब किसी भी टैरिफ या प्रतिबंध से डरने वाला नहीं। यह वही भारत है जिसने बार-बार अमेरिका की चौधराहट को चुनौती दी है। और हर बार, और मज़बूत बनकर लौटा है।

Conclusion

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