H1B Visa: H1B Visa के नियमों में बदलाव से अमेरिका जाने वाले छात्रों और Professionals पर क्या और कैसे पड़ेगा असर?

ज़रा सोचिए… भारत के किसी छोटे शहर के साधारण से घर में एक परिवार बैठा है। पिता की आँखों में उम्मीद है कि उनका बेटा अमेरिका जाकर काम करेगा, माँ ने उसकी पढ़ाई के लिए अपने गहने बेच दिए, और खुद वह छात्र दिन-रात मेहनत करके टॉपर बना है। उसने सोचा था कि अमेरिका जाकर एक जॉब मिलेगी, डॉलर में कमाई होगी और घर वालों का सपना पूरा होगा। लेकिन अचानक एक खबर आती है—अब अमेरिका का H1B वीज़ा पाना पहले से कई गुना कठिन हो गया है।

सिर्फ कठिन ही नहीं, बल्कि इतना महँगा हो गया है कि बड़ी-बड़ी कंपनियाँ भी सोच-समझकर ही किसी को स्पॉन्सर करेंगी। एक लाख अमेरिकी डॉलर यानी लगभग 88 लाख रुपये का नया शुल्क… सुनकर ही जैसे सपनों की दीवारें हिल जाती हैं। सवाल उठता है कि यह बदलाव उन लाखों भारतीय छात्रों और Professionals के लिए क्या मायने रखता है जो अमेरिका जाने का सपना देखते हैं? क्या यह सपना अब सिर्फ अमीरों तक सीमित रह जाएगा? या फिर भारतीय युवाओं को अपने रास्ते बदलने पड़ेंगे? आज हम इसी विषय पर गहराई में चर्चा करेंगे।

H1B वीज़ा की कहानी 1990 से शुरू होती है, जब अमेरिकी कांग्रेस ने इसे उन नौकरियों के लिए बनाया था जिनमें Special skills की ज़रूरत होती थी। शुरुआत में यह टेक्नोलॉजी, रिसर्च और इंजीनियरिंग से जुड़ी नौकरियों के लिए था। धीरे-धीरे यह भारतीय आईटी Professionals के लिए अमेरिकी सपने की कुंजी बन गया। Infosys, TCS, Wipro जैसी भारतीय कंपनियाँ हज़ारों लोगों को H1B पर अमेरिका भेजती रहीं। वहीं, लाखों भारतीय छात्र अमेरिका में पढ़ाई करने के बाद इसी वीज़ा पर नौकरी पाने की उम्मीद करते थे। लेकिन अब जब फीस 1 लाख डॉलर कर दी गई है, तो यह पूरा सिस्टम बदल जाएगा।

पहले H1B वीज़ा का आवेदन शुल्क कुछ हज़ार डॉलर होता था, जिसे नियोक्ता यानी अमेरिकी कंपनी भरती थी। लेकिन अब जो नई लागत जुड़ी है, वह छोटी और मंझोली कंपनियों की कमर तोड़ देगी। अमेरिका की बड़ी टेक कंपनियाँ जैसे Google, Amazon, Microsoft तो यह खर्च उठा सकती हैं, लेकिन छोटी स्टार्टअप कंपनियाँ या मिड-साइज़ बिज़नेस इस Risk को उठाने से बचेंगे। नतीजा यह होगा कि अब सिर्फ वही उम्मीदवार चुने जाएंगे जो कंपनी के लिए “मस्ट-हैव” यानी बिल्कुल ज़रूरी हों।

भारतीय छात्रों पर इसका असर सबसे गहरा होगा। सोचिए, एक छात्र जो अमेरिका में पढ़ाई के लिए 50 से 70 लाख रुपये खर्च करता है, वह इस उम्मीद से जाता है कि OPT (Optional Practical Training) के जरिए उसे कोई कंपनी नौकरी देगी और H1B स्पॉन्सर करेगी। लेकिन अब कंपनियाँ कहेंगी—“क्यों हम तुम्हारे लिए 1 लाख डॉलर खर्च करें? हमें तो सिर्फ वही चाहिए जिसके बिना हमारा काम नहीं चलेगा।” यानी साधारण या औसत छात्र के लिए रास्ता लगभग बंद हो जाएगा। केवल वही छात्र चुने जाएंगे जिनके पास अनोखी स्किल, दुर्लभ विशेषज्ञता या टॉप यूनिवर्सिटी की डिग्री होगी।

Professionals की बात करें तो भारतीय आईटी सेक्टर हमेशा से H1B वीज़ा पर निर्भर रहा है। हर साल लाखों इंजीनियर अमेरिका का सपना देखते हैं। लेकिन अब कंपनियाँ सिर्फ उन्हीं को स्पॉन्सर करेंगी जिनका पैकेज ऊँचा है और जिनकी स्किल बेहद दुर्लभ है। शुरुआती स्तर के इंजीनियरों, नए ग्रेजुएट्स या छोटे कॉलेजों से आए लोगों के लिए यह दरवाज़ा लगभग बंद हो जाएगा। इस बदलाव से Competition और भी कठिन हो जाएगी। अब सिर्फ टैलेंट नहीं, बल्कि “एक्स्ट्राऑर्डिनरी टैलेंट” ही मौका पाएगा।

यह बदलाव छात्रों और Professionals को मजबूर करेगा कि वे वैकल्पिक रास्ते तलाशें। कनाडा, ऑस्ट्रेलिया, यूरोप और यूके जैसे देशों में पहले से ही भारतीय छात्रों और Professionals की संख्या बढ़ रही है। कनाडा का PR (Permanent Residency) सिस्टम अमेरिका से कहीं आसान और सस्ता है।

यूरोप में भी कई देशों ने Skilled Worker Visa को सरल बनाया है। इसलिए अब कई परिवार यह सोचेंगे कि अमेरिका की जगह किसी और देश को चुना जाए। साथ ही, रिमोट वर्क का विकल्प भी तेज़ी से बढ़ रहा है। कोविड के बाद से कंपनियाँ समझ गई हैं कि दुनिया के किसी भी कोने से टैलेंट काम कर सकता है। ऐसे में भारतीय Professional अब अपने ही देश में बैठकर अमेरिकी या यूरोपीय कंपनियों के लिए काम कर सकते हैं।

लेकिन यहाँ एक और बड़ा सवाल है—क्या इतने महँगे और कठिन सिस्टम के बावजूद छात्र अमेरिका में पढ़ाई करने जाएंगे? भारत से हर साल लगभग 2 लाख छात्र अमेरिका जाते हैं। वे लाखों रुपये की फीस चुकाते हैं, एजुकेशन लोन लेते हैं, और परिवार अपनी पूरी बचत लगा देता है। पहले उनका भरोसा था कि पढ़ाई के बाद नौकरी मिलेगी और लोन चुक जाएगा। लेकिन अब यह भरोसा टूट सकता है। परिवार यह सोचने पर मजबूर होंगे कि इतना रिस्क लेकर अमेरिका भेजना सही है या नहीं।

यह बदलाव अमेरिकी कंपनियों की हायरिंग स्ट्रैटेजी को भी बदल देगा। कंपनियाँ अब सिर्फ बेहद ज़रूरी पदों पर ही H1B का इस्तेमाल करेंगी। साथ ही, वे आउटसोर्सिंग पर और ज्यादा ध्यान देंगी। भारत, फिलीपींस और वियतनाम जैसे देशों में ऑफशोरिंग बढ़ सकती है। यानी काम अमेरिका से बाहर शिफ्ट हो सकता है, जिससे कंपनियों को भारी शुल्क से बचने का मौका मिलेगा। यह बदलाव भारतीय आईटी कंपनियों के लिए नए अवसर भी खोल सकता है, क्योंकि अमेरिकी कंपनियाँ प्रोजेक्ट्स सीधे भारत में शिफ्ट करेंगी।

छोटे शहरों और छोटे कॉलेजों के छात्रों और Professionals पर इसका असर और भी ज्यादा होगा। पहले तक कई मध्यम वर्गीय परिवार सोचते थे कि मेहनत से उनका बच्चा भी अमेरिका जा सकता है। लेकिन अब वह सपना सिर्फ अमीर परिवारों और टॉप इंस्टीट्यूट्स तक सीमित हो सकता है। टियर-2 और टियर-3 शहरों के युवाओं को या तो और अधिक स्किल्ड होना पड़ेगा, या फिर उन्हें वैकल्पिक रास्तों पर जाना पड़ेगा।

इस बदलाव से छात्रों और Professionals की करियर प्लानिंग पूरी तरह बदल जाएगी। अब उन्हें शुरुआत से ही इंटरनेशनल सर्टिफिकेशन, एडवांस टेक्नोलॉजी स्किल्स और हाई-पेइंग रोल्स पर ध्यान देना होगा। जो छात्र अमेरिका में पढ़ाई के लिए जा रहे हैं, वे अब उन कोर्सेज़ को चुनेंगे जिनकी मांग अमेरिका में बहुत ज्यादा है—जैसे आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस, साइबर सिक्योरिटी, डेटा साइंस या हेल्थकेयर। पारंपरिक कोर्सेज़ जैसे सामान्य इंजीनियरिंग या बिज़नेस मैनेजमेंट कम लोकप्रिय हो सकते हैं।

मानसिक दबाव भी बढ़ेगा। अमेरिका जाने का सपना अब पहले से कहीं ज़्यादा महँगा और अनिश्चित हो गया है। छात्र सोचेंगे कि अगर नौकरी नहीं मिली तो लोन कैसे चुकाएँगे? परिवार पर बोझ और चिंता और बढ़ जाएगी। पहले से ही विदेश पढ़ाई पर खर्च करना आसान नहीं है, अब इसमें नौकरी मिलने की गारंटी भी कम हो गई है। कई छात्रों का आत्मविश्वास हिलेगा, कई परिवार टूटेंगे और कई युवा डिप्रेशन तक झेल सकते हैं।

कुल मिलाकर, यह बदलाव H1B वीज़ा सिस्टम को एक नए दौर में ले जा रहा है। अमेरिका शायद यह दिखाना चाहता है कि अब उसे सिर्फ “सर्वश्रेष्ठ” और “सबसे ज़रूरी” टैलेंट चाहिए। लेकिन इसका सीधा असर भारत जैसे देशों पर होगा, जहाँ लाखों छात्र और Professional हर साल अमेरिका जाने की योजना बनाते हैं। यह सिर्फ वीज़ा नीति नहीं, बल्कि एक मैसेज भी है—“अगर तुम अमेरिका आना चाहते हो, तो तुम्हें दुनिया में सबसे बेहतरीन साबित होना पड़ेगा।”

यहाँ से भारतीय युवाओं के लिए नया अध्याय शुरू होता है। उन्हें अब और लंबी अवधि की योजना बनानी होगी। स्किल अपग्रेडेशन, इंटरनेशनल नेटवर्किंग, वैकल्पिक देशों का चुनाव और रिमोट वर्क के अवसर—ये सब भविष्य का हिस्सा होंगे। अमेरिका का सपना पूरी तरह खत्म नहीं होगा, लेकिन अब वह और महँगा, और कठिन और और भी चुनिंदा लोगों तक सीमित रहेगा।

Conclusion

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