Global South की ताक़त: भारत-चीन की मुलाक़ात से अमेरिका में खलबली, पश्चिमी देशों पर भारी पड़ेगा नया समीकरण! 2025

ज़रा सोचिए… दुनिया की सबसे बड़ी ताकतों में से एक अमेरिका, जिसकी अर्थव्यवस्था और सैन्य शक्ति दशकों से वैश्विक राजनीति पर हावी रही है, अचानक असहज हो जाए। वह खुद को उस स्थिति में पाए जहां उसके बनाए नियम ही उसके खिलाफ खड़े हों। यह वही क्षण है जब “Global South” नाम की धुरी तेज़ी से उभरती है, और उसमें भारत और चीन का हाथ मिलाना अमेरिका के लिए सबसे बड़ी सिरदर्दी बन जाता है।

ऐसा लग रहा है मानो एक नई शक्ति दुनिया की शतरंज की बिसात पर अपनी चालें चल रही है, और पश्चिमी देशों का पुराना दबदबा हिलने लगा है। यही वह सस्पेंस है जो आज अमेरिका और उसके सहयोगियों को बेचैन कर रहा है। आज हम इसी विषय पर गहराई में चर्चा करेंगे।

अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने हाल के समय में भारी-भरकम टैरिफ लगाकर सोचा था कि, वह भारत और चीन जैसे देशों को दबाव में ला देंगे। उनका मकसद था कि ब्रिक्स और Global South के देशों के बीच दरार पैदा हो और अमेरिका अपने हितों के लिए उन्हें अलग-अलग खेले। लेकिन उनका यह दांव अब उल्टा पड़ता दिखाई दे रहा है। कोविड महामारी के बाद पैदा हुई Geopolitical उथल-पुथल ने पहले ही कई देशों को झकझोर दिया था, और अब ट्रंप की टैरिफ नीतियों ने इन देशों को मजबूर कर दिया है कि वे एकजुट होकर एक नई धुरी बनाएं। भारत और चीन का मिलना उसी बदलते दौर का सबसे बड़ा संकेत है।

भारत-चीन के इस मेल से ब्रिक्स (ब्राजील, रूस, भारत, चीन और दक्षिण अफ्रीका) का कद और बढ़ने वाला है। जो संगठन पहले केवल उभरती अर्थव्यवस्थाओं का मंच माना जाता था, अब वह जी-7 जैसी ताकतों को चुनौती देने के लिए तैयार दिख रहा है। पश्चिमी देशों में खलबली की वजह यही है कि Global South अब केवल अपनी समस्याओं पर चर्चा नहीं कर रहा, बल्कि Global governance, economic policies और Geopolitics में निर्णायक भूमिका निभाने के लिए तैयार हो रहा है।

एनडीटीवी की रिपोर्ट बताती है कि Global South का उदय एक ऐतिहासिक मोड़ है। यह उन दिनों की याद दिलाता है जब Colonialism और Imperialism ने एशिया, अफ्रीका और लैटिन अमेरिका के देशों को कमजोर कर दिया था। लेकिन आज वही देश, जिन्हें कभी “थर्ड वर्ल्ड” कहा जाता था, अपनी एकजुटता के बल पर नई विश्व व्यवस्था गढ़ने की ओर बढ़ रहे हैं। भारत जैसे देश इसमें एक केंद्रीय भूमिका निभा रहे हैं—क्योंकि भारत न सिर्फ ग्लोबल साउथ की आवाज़ उठा रहा है, बल्कि ग्लोबल नॉर्थ और साउथ के बीच एक सेतु का काम भी कर रहा है।

Global South शब्द की कहानी भी दिलचस्प है। अमेरिकी राजनीति विज्ञानी कार्ल ओग्लेसबी ने 1969 में पहली बार इसका इस्तेमाल किया था। इसका आशय उन देशों से था जो न तो Western capitalists खेमे का हिस्सा थे और न ही Soviet Union के Communist Bloc में आते थे। इन देशों को Cold War के दौरान “तीसरी दुनिया” कहा गया, लेकिन असल में ये वही समाज थे जो गरीबी, असमानता, शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं की कमी जैसी समस्याओं से जूझते हुए भी अपने भविष्य की लड़ाई लड़ रहे थे।

भारत और चीन भले ही Northern Hemisphere में आते हों, लेकिन इन्हें भी Global South का हिस्सा माना जाता है। यही दिखाता है कि यह शब्द भौगोलिक नहीं बल्कि आर्थिक और राजनीतिक असमानताओं का प्रतीक है। इस समूह में ब्राजील, दक्षिण अफ्रीका, इंडोनेशिया, कई अफ्रीकी और लैटिन अमेरिकी देश शामिल हैं।

हाल के दशकों में Global South की ताकत में लगातार वृद्धि हुई है। विश्व बैंक की रिपोर्ट कहती है कि 2030 तक दुनिया की चार सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में से तीन—भारत, चीन और एक अन्य—Global South से होंगी। सोचिए, जो देश कभी विकासशील कहे जाते थे, वही अब दुनिया की अर्थव्यवस्था का इंजन बनने जा रहे हैं। ब्रिक्स का संयुक्त जीडीपी पहले ही जी-7 से ज्यादा हो चुका है, और यह पश्चिमी देशों के लिए सबसे बड़ा झटका है।

भारत ने “वॉयस ऑफ Global South समिट” जैसे मंचों के ज़रिए इस समूह की आवाज़ को वैश्विक स्तर पर पहुँचाया। जी-20 में अफ्रीकी संघ को शामिल कराने की पहल इसका बड़ा उदाहरण है। यह दिखाता है कि भारत केवल अपने लिए नहीं बल्कि पूरे Global South के लिए सोच रहा है। यही वजह है कि इसे एक विश्वसनीय नेता के रूप में देखा जाने लगा है।

अब सवाल उठता है—पश्चिमी देशों में खलबली क्यों मच रही है? पहला कारण है आर्थिक शक्ति का बदलाव। पहले विश्व अर्थव्यवस्था का केंद्र Atlantic region माना जाता था, लेकिन अब यह Asia-Pacific की ओर खिसक रहा है। भारत और चीन जैसी उभरती अर्थव्यवस्थाएं उस संतुलन को बदल रही हैं जो दशकों से पश्चिमी देशों के हाथों में था।

दूसरा कारण है Geopolitical असर। भारत जैसे देश अब केवल नियम मानने वाले नहीं, बल्कि नियम बनाने वाले बन रहे हैं। जी-20 की अध्यक्षता में भारत ने Food Security, Green Energy और Climate Finance जैसे मुद्दों को आगे रखकर साबित कर दिया कि, Global South की प्राथमिकताएं भी अब वैश्विक बहस का हिस्सा हैं।

तीसरा कारण है पश्चिमी नीतियों को चुनौती। रूस-यूक्रेन युद्ध में कई Global South देशों ने नाटो का समर्थन करने से इनकार कर दिया। यह पश्चिमी देशों के लिए बड़ा झटका था, क्योंकि वे उम्मीद कर रहे थे कि पूरी दुनिया उनके साथ खड़ी होगी। लेकिन Global South ने साफ कर दिया कि वह अब किसी का अंधा अनुयायी नहीं, बल्कि स्वतंत्र सोच रखने वाला समूह है।

चीन की भूमिका भी इस कहानी में अहम है। उसकी बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (BRI) ने कई देशों में बुनियादी ढांचे का विकास किया, लेकिन यह “कर्ज़ का जाल” भी साबित हुआ। पाकिस्तान जैसे देश इसमें फंसकर भारी संकट झेल रहे हैं। भारत ने इसके विकल्प के रूप में ग्लोबल डेवलपमेंट कॉम्पैक्ट जैसे मॉडल पेश किए, जो ज्यादा पारदर्शी और भरोसेमंद माने जाते हैं। इस वजह से भारत की छवि और भी मजबूत हुई है और चीन का दबदबा संतुलित होने लगा है।

पश्चिमी देशों के लिए यह स्थिति बेहद जटिल है। एक तरफ उन्हें भारत की ज़रूरत है, क्योंकि भारत लोकतांत्रिक मूल्यों और आर्थिक साझेदारी में भरोसेमंद है। लेकिन दूसरी तरफ Global South के बढ़ते प्रभाव से उनकी चिंता बढ़ रही है। यही कारण है कि अमेरिका में खलबली मची हुई है।

Global South के देश अब उन global institutions में सुधार की मांग कर रहे हैं, जिन्हें दशकों से पश्चिमी देशों ने नियंत्रित किया हुआ है। United Nations Security Council, IMF, विश्व बैंक—ये सब संस्थान पश्चिम के पक्ष में झुके रहे हैं। लेकिन अब आवाज उठ रही है कि इनका ढांचा बदले और सभी को बराबरी का हिस्सा मिले।

कुछ देशों ने तो डॉलर पर निर्भरता भी घटानी शुरू कर दी है। वे युआन या अन्य स्थानीय मुद्राओं में व्यापार करने लगे हैं। यह अमेरिकी आर्थिक प्रभुत्व के लिए सीधा खतरा है। पश्चिमी देशों को यह समझ में आ रहा है कि अगर Global South एकजुट हो गया, तो डॉलर की बादशाहत भी खतरे में पड़ सकती है।

एक और बड़ा कारण है पश्चिम की उदासीनता। जलवायु परिवर्तन जैसे मुद्दों पर पश्चिमी देश अक्सर वादे करते हैं लेकिन निभाते नहीं। ग्लोबल नॉर्थ का Emission सबसे ज्यादा है, लेकिन पीड़ा झेलते हैं Global South के देश। कोविड महामारी के दौरान भी यही हुआ—पश्चिमी देशों ने वैक्सीन जमा कर लीं, जबकि भारत ने मुफ्त वैक्सीन बांटकर भरोसेमंद साथी की छवि बनाई।

यही वजह है कि Global South के लोग अब नियम मानने वाले नहीं, बल्कि नियम बनाने वाले बनना चाहते हैं। वे चाहते हैं कि उनकी हिस्सेदारी बढ़े, उनके मुद्दों पर वैश्विक स्तर पर चर्चा हो और उनकी प्राथमिकताओं को महत्व दिया जाए।

भारत इस बदलते दौर में सबसे आगे खड़ा है। वैक्सीन डिप्लोमेसी से लेकर वैश्विक मंचों पर नेतृत्व तक, भारत ने साबित किया है कि वह सिर्फ अपने लिए नहीं बल्कि पूरी दुनिया के लिए सोचता है। यही कारण है कि ग्लोबल साउथ में उसे भरोसेमंद नेता माना जाता है और यही वह बिंदु है जिससे पश्चिमी देशों की चिंता और बढ़ जाती है। उन्हें अब इस नई वास्तविकता के साथ तालमेल बिठाना ही होगा। अगर वे ऐसा नहीं करते, तो ग्लोबल साउथ का उभार उनकी दशकों की प्रभुत्वशाली स्थिति को ध्वस्त कर देगा।

Conclusion

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